अग्नि आलोक
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ग्रंथ, मंत्र, तंत्र, गुरू, परमात्मा से मुक्ति बिना सत्य में स्थिति असंभव

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~सन्यास का अर्थ ‘सत्य में स्थित’ है, भगोड़ापन नहीं
~ पिता-पति दोनों ने घर में दिया कृष्ण मंदिर, किस कृष्ण के लिए भागी मीरा
~सत्य के नाश हेतु पूंजीवादी राष्ट्रवाद, घोंघाचार्य मौन
~ सबसे बड़े दुश्मन : मठ, महंत, कथावाचक और संत
~ जानें और जीएँ स्प्रिचुअल सेक्स साइंस

@ डॉ. विकास मानव

*सन्यास यानी सत्य में स्थिति :*
      भगोड़ा, भिखारी बनना या कपड़े रंगाकर ऐसो-आराम भोगना सन्यास नहीं 

नहीं यह भोग या भवरोग का आगार है जीवन!
नहीं साधुत्व का पाखंडमय व्यापार है जीवन!!

सन्यास यानी जहाँ भी हो, जैसे भी हो सत्य में स्थित/स्थिर हो जाओ. संन्यास वहां से शुरू होता है जहां से पुस्तकादि बंद होती हैं। पुस्तकों के अंदर की बातें संन्यासी नहीं करता है। 

      पुस्तक से यहाँ अर्थ है पोथी पुराण, मंत्र, तंत्र, परमात्मा, गुरु सभी।  संन्यासी के पास न गुरु है, न परमात्मा है और न ही कोई अन्य मार्गदर्शिका है। हर जीवनमार्गी का सन्यास पथ अलग तरह की अनुभव यात्रा है। आप किस रास्ते जाएंगे आपको तय करना है। अगर आपके चित्त में पहले से गुरु है, परमात्मा है, कोई मंत्र, तंत्र, योग या ऐसा ही कुछ है तो वो जगत की यात्रा होगी न की संन्यास की। हर संन्यासी की खोज नई होगी | नया तभी संभव है जब पहले से ही पुराना सब कुछ छूट गया हो।

विभिन्न विषयों पर बहुत सारे ग्रंथ, आलेख और छोटे छोटे लेख जो संन्यासियों ने लिखे हैं इस जगत में उपलब्ध हैं | ध्यान रहे, ये संन्यासी हैं। हमेशा कुछ न कुछ का समाधान खोजने वाले वैज्ञानिक हैं। कुछ नया ही लेकर आएंगे। इस बात को ठीक से समझ लें जो भी ग्रंथ संन्यासी के लिखे होंगे वो भौतिकता पर आधारित नहीं हो सकते हैं। अगर चिकित्सा का ग्रंथ हैं। लेकिन चिकित्सा शरीर की नहीं। चिकित्सा शरीर को शून्य करने की | संन्यासी के लिए शरीर का होना ही रोग है। अगर संन्यासी चिकित्सा की बात करेगा तो कर्मजनित रोगों की चिकित्सा पर बात होगी। 

    संन्यास मार्ग में बहुत सारे व्यवधान आते हैं। हर किसी के अपने अनुभव होते हैं। कुछ बातें सभी में समान होती हैं। जैसे सभी कर्मों का समाधान होने से पूर्व ही शरीर समाप्त हो जाता है। इसका समाधान सभी को चाहिए। पहले होश रहते सभी कर्मों का नाश हो जाए फिर शरीर छूटे। फिर शरीर छोड़ने में किसी को दिक्कत नहीं होगी। 

     रसायन विद्या और रसायन विज्ञान संन्यासियों की इसी दिशा की खोज है। अजर अमर रहेंगे कब तक जब तक सभी कर्मों का समाधान नहीं हो जाता है। ये अलग बात है कालांतर में लोगों ने उसमें अपने अर्थ घुसेड़ दिए हैं। उन्होंने इस अजर और अमर होने की बात कह कर कल्प आदि से जोड़ दिया। संन्यासी तो खुद ही शरीर को छोड़ने की दिशा में है वो क्यों अजर अमर होना चाहेगा।

      संन्यासी चाहता है जब तक सभी पूर्व जन्मों के कर्मों का समाधान न निकल जाए तब तक शरीर न छूटे। अन्यथा अगला जन्म किसका और कैसे होता है। फिर यहीं लटके रहेंगे। इसलिए मरने से पहले ही सब प्रकारu से मुक्त होने के लिए रस विद्या और रस विज्ञान की खोज की गई।और जो लोग संन्यास मार्ग में हैं, उनके मार्ग दर्शन के लिए रस विज्ञान पर ग्रंथ लिखे गए। 

      संन्यासी अकारण लिखेंगे भी नहीं| अन्यथा उनसे भ्रम और गहरा हो जाता है। इस बात को सभी ध्यान में रखें संन्यासियों ने तत्व ग्रंथ या तत्व विवेचन संन्यासियों के लिए लिखे हैं। बाद में लोगों ने इनमें अपने अर्थ घुसा दिए हैं।

     संन्यासी अपनी गति अपनी विद्या का उपयोग अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए करता है न कि श्वानों के समक्ष यह सिद्ध करने के लिए कि वही विद्वान और धर्मवेत्ता है। हमें किसी को यह समझाने की आवश्यकता नहीं कि हम ही बेहतर हैं। अपना मूल्य साबित करने के लिए अपना समय और ऊर्जा बर्बाद न कर उन्हें सकारात्मक प्रयासों में लगाएं। वह करें जो मनोनुकूल हो।

       सबसे अधिक वही लोग ही हमारा मूल्यांकन करते हैं, जिनका खुद कोई विशेष मूल्य नहीं होता। इसलिए हर किसी को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। जीवन में यही राह अपनाना श्रेयस्कर है। अधिकांश लोगों के पास ब्लड ग्रुप के अलावा कुछ पॉजिटिव नहीं होता है और जिनका पॉजिटिव हो तो वे भी ‘ निगेटिव ‘ हो सकते हैं।

*मीरा मायका ससुराल दोनों जगह से क्यों भागी :*

   अयमात्मा गुडाकेश: सर्व भूताना शयस्थित:!

     लोग ये कहते हैं राधा और मीरा का एक ही श्याम है। क्या तुम्हें लगता है कि राधा अपना श्याम मीरा को दे सकती हैं ? जिन्हें धोखादायी भरम है, तो उन्हें ज्ञान होना चाहिए.

   घर में मीरा के बाप ने भी कृष्ण को रखा था यहीं घर में भक्ति कर लो। कम से कम बदनामी से तो बचें। लेकिन मीरा घर से भाग जाती थीं।

    मीरा के पति भोज ने भी घर में ही कृष्ण का मंदिर बनवाया हुआ था,

यहीं भक्ति करो। बेचारे ने यहाँ तक कहा कि, मैं तुम्हारे पास कभी नहीं आऊँगा | लेकिन मीरा फिर भी भाग गईं। 

   अगर मीरा के पति ने जो कृष्ण घर में रखा था और पिता रत्न सिंह ने जो कृष्ण घर में रखा था;  मीरा का अपना कृष्ण भी वही था तो उन के घर से भागने का कारण क्या था? 

   इसका तो यही अर्थ हुआ कि मीरा का कृष्ण अलग ही था। तुम सभी वास्तविकता से बहुत दूर हो।

    तुम अपने विश्वास की भी समीक्षा करके देख लो। विश्वास है ईश्वर पर तो दुखी क्यों हो ? 

दीन, दरिद्री, अशांत होना अपने आप में ही प्रमाण है। तुम्हारा विश्वास भी झूठा है। तुम्हारा विश्वास नरक, स्वर्ग, पाप अनगिनत जगह पर में बटा हुआ है | 

   तुम्हे यह स्पष्ट जान लेना चाहिए कि ईश्वर की लीला मात्र एक समय में इतिहास में घटी कोई घटना मात्र नहीं होती है, अपितु यह संसार में नित्य घटित हो रही है। क्योंकि यह सब सनातन संस्कृति का दर्शन है। इसलिए यह भी सनातन ही है। 

     गोवर्धन लीला में तुम मनुष्यों के जीवन का सत्य प्रकट कर रहा है कि हमे मन के भ्रम से निकल कर अपनी आत्मा से जुड़कर जीना चाहिए. आत्मा ही जीवन का सत्य है. आत्म साक्षात्कार ही जीवन का और जन्म लेने का परम उद्देश्य है।

     गोवर्वधन लीला की कथा में स्पष्ट रूप में श्रीकृष्ण नें इन्द्र की पूजा का निषेध कर गोवर्धन की पूजा करने को प्रेरित किया.. मतलब मन की मत सुनो। आत्मा (कृष्ण) की ही आवाज केवल सुनो।

लेकिन तुम तो कुछ और सुन रहे हो.

लीलाओं का आध्यात्मिक तत्व दर्शन लीलाओं व पात्रों के नाम में छिपा होता है. इसको भी समझो. यहां गोवर्धन का अर्थ तुम सिर्फ पहाड़ के रूप में लेते हो जो पूर्ण सत्य नही है। यह गोवर्धन का लक्ष्यार्थ रूप है. गोवर्धन का सन्धि विच्छेद यह है :

   गो+वर्धन. गो = इन्द्रियां. 

  वैदिक संसकृत में गो का अर्थ इन्द्रियां,प्रकाश होता है तथा लक्ष्यार्थ में गऊ के लिए किया जाता है. मूल अर्थ इन्द्रियों के लिए है। वर्थन  का अर्थ है बल या शक्ति देना।

     अब तुम विचार करो कि संसार के समस्त जीवों की इन्द्रियां किस शक्ति के बल पर कार्य कर रही हैं तो यह स्पषट हो जाएगा कि सब जीवों मे जो चैतन्य स्वरुप आत्मा है उसी के बल और शक्ति से तुम्हारी इन्द्रियां कार्य करती हैं। परन्तु मन के फैलाये भ्रम के कारण तुम मन को सर्वोपरि मानने लगते हो और अपने मन की ही करते रहते हो। यही विडंबना है तुम्हारे हरि बोल का। 

इन्द्रियों का अधिपति राजा होने से मन ही इन्द्र कहलाता है. इस प्रकार गोवर्धन लीला द्वारा श्रीकृष्ण ने यह जीवन का सत्य प्रकट किया है कि हमारे जीवन का आधार आत्मा है मन नही और गीता में स्पषट है.

  अयमात्मा गुडाकेश: सर्व भूताना शयस्थित:!

अर्थात ईश्वर ही समस्त प्राणियों  मे आत्मा रूप में विराजमान है.

गोवर्धन पूजा के दिन सनातन गुरुकुल के ब्रम्हचारी आत्मस्थ होकर मन को वस में करने का संकल्प लेते थे। और गृहस्थ घर में गोबर का आकृति बनाकर पूजा करते थे। लेकिन तथाकथित धर्माचार्यों ने  तुमलोगों को एक पहाड़ के चारो ओर नचा दिया। और तुमने बहुत बड़ा पुण्य कर लिया। साधना की बात तो इस मठ महंत के धर्माचार्यों में तो है ही नहीं। 

     साधना स्थलों को तो मूर्ति रखकर मन्दिर बना दिया, दर्शन स्थल बना दिया और चढ़ावा से धन कमाने में लग गए। आजकल तो उसको पर्यटन स्थलों में बदला जा रहा है। जिससे कि धन संग्रह ज्यादा से ज्यादा की जा सके।

*सत्यानाश हेतु पूँजीवादी राष्ट्रवाद, घोंघाचार्य मौन :*

        व्हेनसांग के विवरण से पता चलता है कि भारत में सातवीं शताब्दी तक प्राकृत और ब्राम्ही लिपि जानने वाले लोग मौजूद थे। तभी तो किसी ने उसे बताया होगा कि स्तम्भ लेखों पर क्या लिखा था। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि संस्कृत भाषा का उदय मुख्य रूप से सातवीं शताब्दी के बाद हुआ है।

       शायद यह सब काम सत्ता के तलबार के बल पर शंकराचार्यों ने किया और करवाया होगा। उसी को आज तक शास्त्रार्थ कह के प्रचारित किया जा रहा है। वह वास्तव में शास्त्रार्थ नहीं शस्त्रार्थ था। शस्त्र के बल से बात मनवाया जा रहा था।    

      मिथिला का इतिहास देखने से लगता है कि मिथिलाक्षर लिपि; जिसका जिक्र ललित बिस्तर में भी मिलता है, का प्रयोग ब्राह्मण राजाओं ने ही बन्द करवा दिया और ये राजा सब मिथिला के नहीं थे। वे या तो कर्नाटक के थे या खांडवा (मध्य प्रदेश) से आए थे। मिथिला वाले इस दुराचार की चर्चा तक नहीं करना चाहते हैं। 

      फिरोज शाह तुगलक अशोक स्तंभों से बहुत प्रभावित हुआ था क्योंकि लोग उसको भीम की लाठी तो हनुमान जी की गदा और जाने क्या क्या कहते थे। उसने देखने के टोपड़ा से उसको दिल्ली मंगवा लिया। जब उस शानदार चमकदार स्तम्भ पर कुछ लिखा हुआ देखा तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ और उसको पढ़वाना चाहा लेकिन कोई विद्वान उसे पढ़ नहीं पाया कि क्या लिखा हुआ है। 

      अकबर को भी सफलता नहीं मिली उसको पढ़वाने में। जब अंग्रेजों ने पढ़ने के लिए काशी से विद्वान बुलवाए तो हर कोई अलग अलग बात कहने लगा। किसी ने रामायण का प्रसंग बताया तो किसी ने पुराण से उसको जोड़ा। एक ने तो उसको युधिष्ठिर के वनवास के समय की बात कह दिया। आखिर में जब जेम्स प्रिंसेप उसको पढ़ने में सफलता प्राप्त कर ली तो संस्कृत वाले उसको संस्कृत ही बताने लगे। लेकिन संस्कृत उसक अर्थ ही निकल पा रहा था। तब बौध साहित्य के सहारे प्राकृत भाषा के अस्तित्व को स्वीकार किया गया। इससे साफ पता चलता है कि प्राकृत बहुत पुरानी भाषा है और उसी से निकला संस्कृत अपेक्षाकृत बहुत नया है। 

*सबसे बड़े दुश्मन मठ, महंत, संत और कथावाचक :*

     सबसे बड़े दुश्मन मठ, महंत, संत और कथा वाचक लोग हैं। समुद्रगुप्त के समय से ही ये कथा वाचक लोग पुराण महाभारत रामायण सब की अजीबोगरीब कपोल कल्पित कहानियों परोसकर समाज को भ्रमित करते आ रहे हैं। ये मत महंत और संत धर्म के प्रचारक लोग हैं। ब्राह्मण मूर्ख बन के धर्म रक्षक कहला रहे हैं और साधू सन्त मठाधीश पूजारी धर्माचार्य इस लम्पट व्यवस्था के पहरेदार हैं। 

        मन्दिरों और तीर्थों को तेजी से पर्यटन स्थल में बदला जा रहा है जिससे कमाई का अतिरिक्त श्रोत बन सके। त्वरित विशेष दर्शन के लिए अलग से पांच हजार से बीस हजार रुपया तक वसूला जा रहा है। मूर्ति ईश्वर नहीं पैसा कमाने का जरिया है। मन्दिर दुकान है आस्था बेचने का। एक ऐसा दुकान जहां से बिना कुछ खरीदे ही लोग पैसा दे के आ रहे हैं। 

        शिक्षा को मंहगा करके उनको अशिक्षित बना के रखने की तैयारी हो चुकी है। मनुस्मृति को संविधान बनाने की बात हो रही है। लेकिन शोषित और वंचित वर्ग इस सब से बेखबड़ ब्राह्मणों को गाली देने और हिन्दू मुस्लिम करने में उलझा हुआ है। 

कहा जाता हैं कि भारत के विकसित ज्ञान विज्ञान में विमान शास्त्र आदि भी शामिल था। युवा मस्तिष्क जो सोच नहीं पा रहा उसको यह सब बात सुनने में बड़ी अच्छी लगती हैं। फिर जब बताया जाता है कि मुसलमानो ने बाहर से आके सब मिटा दिया तो उनका खून खौल उठता है। लेकिन इस्लाम के अस्तित्व में आने से बहुत पहले अशोक का जंग रहित लौह स्तम्भ मिलता है।

       पत्थर का चमकदार स्तम्भ मिलता है। उस ज्ञान (टेक्नोलॉजी) को किसने मिटाया? गुप्तकाल (शक हूण यवन प्रधान) का एक भी वैसा चमकदार शानदार लौह या पाषाण स्तम्भ नहीं मिल रहा है। रुद्र दमन (शक) या हर्षवर्धन (हूण) कनिष्क (कुसान) के समय का भी नहीं मिलता। विमान उड़ाना तो बहुत दूर की बात है।

      इस्लाम बना नहीं था। अंग्रेज आए नहीं थे। फिर किसने उस ज्ञान विज्ञान को मिटाया। अशोक के समय उत्तम किस्म के तलबार भले ढाल का निर्यात दूर दूर तक होता था। फिर क्या हो गया? 

      बनाने में समय लगता है मिटाने में नहीं। और विध्वंश करने वाला यदि खंडहर की तारीफ अपन गौरवशाली अतीत कह के करने लगे तो स्थिति सोचनीय बन जाती है। पहले उन विध्वंसियों का पता किया जाए।

       पटना के भूमिहार पार्क में खुदाई में जो अशोक का विशाल सभागार मिला है वह अस्सी स्तम्भों पर स्थित था। सारे के सारे स्तम्भ दस और आठ के कतार में मिले। सभी स्तम्भ गोलाई में एक ही आकार प्रकार के थे। मानो किसी मशीन से निर्मित किए गए हों। उनकी बनावट, एक समान दूरी, लगाने की सिमेट्री आधुनिक इंजीनियर को भी अचरज में डालने वाला है। 

     उसी के पास चंद्रगुप्त मौर्य का महल जो शलवान के लकड़ी से बना था मिला। देश के गौरवशाली अतीत के इन प्रतीक सब को संरक्षित करने की की अवश्यकता थी। लेकिन संरक्षित करने के बदले उन सब को फिर से मिट्टी और बालू से भर के ढक दिया गया। इंग्लैंड ने स्टोन हेज को अब भी सुरक्षित रखा हुआ जब कि उनको पता नहीं है कि उन खम्भों पर बना महल किसका था। 

      किन्तु भारत में हमने इतने महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर को फिर से जमीन में दबा दिया। कारण बताया गया कि वहां जमीन से पानी छूट रहा था। कितना फूहड़ बहाना है। आज जब समुद्र के भीतर से टनेल बनाया जा रहा है हम जमीन से निकलने वाले पानी को नहीं रोक पाए। साफ है कि कोई शक्ति है जो भारत के प्राचीन इतिहास को दबा के रखना चाहता है। सरकार चाहे किसी की भी हो बात सोच की होती है।

       भारत के प्राचीन इतिहास को दबाने और मिटा के रखने की सोच किसकी है यह जानना जरूरी है। उन्ही लोगों ने भारत के इतिहास ज्ञान विज्ञान भाषा एवम् संस्कृति को भी मिटाया होगा। हमारे बीच अगर वे आज भी सक्रिय हैं तो कौन लोग सब है? 

      वे कितना भी राष्ट्रवादी बनने की बात करें लेकिन पहचाने जायेंगे देश के दुष्मन के रुप में ही। यह सोच इस देश के लिए निश्चित तौर पर बहुत ही घातक है।

        नए नए लड़के लड़कियों को कथा वाचक बना के धर्म बचाओ के नाम पर मैदान में उतारा जा रहा है। भांति भांति के साधू सन्त और साध्वियाँ धर्म के मैदान में सक्रिय दिखाई देते हैं। जिनको धर्म का “ध” भी नहीं मालूम वे धर्म की रक्षा करने में लगे हैं। ये लोग सन्तान धर्म और ऋषिकुल के कथाओं का तत्वार्थ क्या समझेंगे?

       राम को सरकार, सीता और राधा को किशोरी जी बोलने वाले राम सीता कृष्ण या राधा को कभी समझ ही नहीं सकते। ये सनातन धर्म ही नहीं समझते हैं। और उनके पीछे मठाधीश अपनी रोटी सेक रहे हैं। लम्पटाचार्य लोग शास्त्रार्थ की चुनौती देते हैं। अपने ही पुरखों के लिखे पुस्तकों को शास्त्र भी बोलते हैं और उसी का प्रमाण भी देते हैं। यही उनका ज्ञान है।

        एक तथाकथित अद्भुदाचार्य कहता है कि बुद्ध जिसने बौध धर्म चलाया वह क्षत्री था लेकिन जिस बुद्ध को विष्णु को अवतार बताया है वह ब्राह्मण था। एक पुराण में बुद्ध को जरुर ब्राह्मण का बच्चा लिखा है लेकिन अन्य पुराण सब में क्या लिखा है वह भी तो देखो। ये मूर्खाचार्य यह भूल जाते हैं कि अब बाकि लोग भी अब पढ़ लिख गए हैं। इसलिए कुछ अज्ञात दुष्ट लोग अब अपने ही शास्त्रों से मूर्खतापूर्ण, आपत्ति जनक और परस्पर अंतर्विरोधी बातों को निकालने एवम् बदलने में लग गए हैं। ये ऐसा किस हक से कर रहे हैं? 

         किसी भी घोंघाचार्य का इस पर मुंह नहीं खुलता। मुंह में दही इसलिए जमी है कि बुद्ध के नाम पर भारत का इतिहास और संस्कृति को मिटाने में इनकी भूमिका अहम रही है। लेकिन क्या यह सब करना अब धर्म विरोधी काम नहीं रहा? 

      उनके लिए यह धर्म विरोधी काम नहीं है क्योंकि वे इन पुस्तकों को अपनी बपौती मानते हैं। फिर डर किस बात से रहे हैं?

*स्प्रिचुअल सेक्स साइंस को जानें और जीएँ :*

       सांसारिक भोगों में एक विचित्र आकर्षण होता है। यही कारण है कि वे मनुष्य को सहज ही अपनी ओर खींच लेते हैं। किंतु इससे भी अद्भूत बात यह है कि यह जितनी ही अधिक मात्रा में प्राप्त होते जाते हैं, मनुष्य का आकर्षण उतना ही, उनकी ओर बढ़ता जाता है और शीघ्र ही वह दिन आ जाता है, जब मनुष्य इनमें आकंठ डूबकर नष्ट हो जाता है। 

       सांसारिक भोगों की ओर अशक्त की भाँति विवश होकर खिंचते रहना ठीक नहीं। मनुष्य को अपना स्वामी होना चाहिए। इस प्रकार यंत्रवत् प्रवृत्तियों के संकेत पर परिचालित नहीं होते रहना चाहिए। संयम मनुष्य की शोभा ही नहीं, शक्ति भी है।

       अपनी इस शक्ति को काम में लाकर, विनाशकारी भोगों के चंगुल से उसे अपनी रक्षा करनी ही चाहिए। मनुष्य जीवन अनुपम उपलब्धि है। इस प्रकार सस्ते रूप में उसका ह्रास कर डालना न उचित है और न कल्याणकारी।

    यह निर्विवाद सत्य है कि, भोगों की अधिकता मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार की शक्तियों का ह्रास कर देती है। भोग जिनमें भ्रमवश मनुष्य आनंद की कल्पना करता है, वास्तव में विषरूपी ही होते हैं। यह रोग युवावस्था में ही अधिक लगता है। 

      यद्यपि उठती आयु में शारीरिक शक्तियों का बाहुल्य होता है, साथ ही कुछ न कुछ जीवनतत्त्व का नवनिर्माण होता रहता है, इसलिए उस समय उसका कुप्रभाव शीघ्र दृष्टिगोचर नहीं होता। किंतु अवस्था का उत्थान रुकते ही इसके कुपरिणाम सामने आने लगते हैं। लोग अकाल में वृद्ध हो जाते हैं। नाना प्रकार की कमजोरियों और व्याधियों के शिकार बन जाते हैं।

       चालीस तक पहुँचते-पहुँचते सहारा खोजने लगते हैं, इंद्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, और जीवन एक भार बन जाता है। शरीर का तत्त्व वीर्य जो कि मनुष्य की शक्ति और वास्तविक जीवन कहा गया है, अपव्यय हो जाता है जिससे सारा शरीर एकदम खोखला हो जाता है।

    ईसामसीह जीवन भर ब्रह्मचारी रहे। ऊँचे उठे हुए बुद्धिजीवी लोग अधिकतर संयमी जीवन ही बिताने की चेष्टा किया करते हैं। वैज्ञानिक, दार्शनिक, विचारक, सुधारक तथा ऐसी ही उच्च चेतना वाले लोग संयम का ही जीवन जीते दृष्टिगोचर होते हैं। 

    गृहस्थ आश्रम में संतानोत्पादन का बहाना लेकर भोगपूर्ण जीवन बिताने वाले गृहस्थाश्रम का सही मंतव्य नहीं समझते। सृष्टि क्रम को स्थिर रखने के लिए दांपत्यजीवन की अनिवार्यता स्वीकार अवश्य की गई है तथापि उसमें भी संयम का महत्त्व कम नहीं किया गया है। धर्म-कर्तव्य के रूप में संतान-सृजन और बात है, और कामुकता के वशीभूत होकर दांपत्यजीवन को भोग का माध्यम बना डालना भिन्न बात है।

       उस प्रकार के आचरण को संसार के सभी विद्वान तथा विवेकशील व्यक्तियों ने अनुचित तथा मानवजीवन को नष्ट करने वाला बतलाया है।  

    विषयों का निषेध करते हुए, भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है :

       ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।

       आद्यन्तवन्त कौन्तेय न  तेषु रमते बुधः।।

    जो इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब सुख हैं, यद्यपि वे विषयी पुरुष को सुख रूप प्रतीत होते हैं, किंतु वास्तव में होते वे दुःख के ही हेतु हैं और नाशवान भी। इसलिए हे कुंती पुत्र अर्जुन ! बुद्धिमान व्यक्ति, उनमें आसक्त और लिप्त नहीं होते।

    प्रसिद्ध जीवशास्त्री डाॅ. क्राउन एम. डी. ने लिखा है :

    “ब्रह्मचारी यह नहीं जानता कि, व्याधिग्रस्त दिन कैसा होता है ? उसकी पाचनशक्ति सदा नियंत्रित रहती है और उसको वृद्धावस्था में भी बाल्यावस्था जैसा आनंद आता है।”

    अमेरिका के प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक डाॅ. बेनीडिक्ट लुस्टा का कथन है, “जितने अंशों तक जो मनुष्य ब्रह्मचर्य की विशेष रूप से रक्षा करता है, उतने अंशों तक वह विशेष महत्त्व का कार्य कर सकता है।”

    जन्म के समय 10 रत्ती वीर्य बालक के ललाट में होता है, ऐसा भारतीय तत्त्वदर्शियों का मत है। यही कारण है कि बच्चा विशुद्ध परमहंस जैसी प्रकृति का, विशुद्ध आनंदवादी, निश्चिन्त और केवलोऽहं होता है। 9 से 12 वर्ष तक वीर्यशक्ति भौहों से उतरकर कंठ में आ जाती है। प्रायः इसी समय बच्चे के स्वर में भारीपन और कन्याओं के स्वर में सुरीलापन आता है। 

     अभी तक लगभग दोनों की ही ध्वनि एक जैसी होती थी, अब बच्चे के स्वर में पुरुषोचित लक्षण झलकने लगते हैं। इस आयु में वीर्य में विपरीत लिंग का आकर्षण पैदा होने लगता है। 11 से 16 वर्ष तक की आयु में वीर्य मेरुदंड से होता हुआ उपस्थ की ओर बढ़ता है और धीरे-धीरे मूलाधार चक्र में अपना स्थान बना लेता है। 

       काम-विकार पहले मन में आता है, उसके बाद तुरंत ही मूलाधार चक्र उत्तेजित हो उठता है, उसके उत्तेजित होने से वह सारा ही क्षेत्र – जिसमें कि कामेंद्रिय भी सम्मिलित होती हैं, उत्तेजित हो उठती हैं। 24 वर्ष की आयु में यह वीर्य मूलाधार चक्र में से सारे शरीर में इस प्रकार व्याप्त हो जाता है :

       यथा पयसि सर्पिस्तु, गूढ़श्चेक्षौ रसो यथा।

       एवं ही सकले काये शुक्रं तिष्ठति देहिनाम।।

    अर्थात – जिस प्रकार दुग्ध में घी, तिल में तेल, ईख में मीठापन तथा काष्ठ में अग्नितत्त्व सर्वत्र विद्यमान रहता है, उसी प्रकार वीर्य सारे शरीर में व्याप्त रहता है।

    25 वर्ष की आयु तक आहार-विहार को दूषित नहीं होने दिया गया तो इस आयु में शक्ति की मस्ती और विचारों की प्रफुल्लता देखते ही बनती है। प्रफुल्लता, मानसिक उन्मुक्तता, साहस, निर्भयता, वाक्-विनोद का आनंद – जीवन के हर क्षेत्र में उत्साह और सफलता के रूप में सर्वत्र लिया जा सकता है। 

    उपस्थ में आए स्थूल वीर्य को ऊर्ध्वरेता बनाकर पुनः उसी ललाट में लाना, जहाँ से वह मूलाधार तक आया था –  योगविद्या का काम है। शक्तिबीज का मस्तिष्क में पहुँच जाना और सहस्रार चक्र की अनुभूति कर लेना ही ब्रह्म निर्वाण है। योगी अरविंद कहते हैं -“जैसे दीपक का तेल, बत्ती के द्वारा ऊपर चढ़कर प्रकाश के रूप में परिणित होता है, वैसे ही संयमित जीवन का वीर्य सुषुम्ना नाडी़ द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान दीप्ति में परिणत हो जाता है।

    वीर्य सृष्टि का मूल उपादान है, उसकी सामर्थ्य को समझा जाना चाहिए, उसकी रक्षा की जानी चाहिए तथा ऊर्ध्वरेता के लाभों से लाभान्वित होकर मनुष्य की यथार्थता को समझना और पाना चाहिए। जो अपने वीर्य की रक्षा कर लेते हैं, वे कोई भी इच्छा करें, कभी अधूरी नहीं रह सकती। 

      यह शक्ति और सिद्धि ही हमें समर्थ और अपराजेय बना सकती है और कोई दूसरी शक्ति नहीं। अखंड आनंद की प्राप्ति इसी से संभव है।

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