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हिंदू मुस्लिम एकता के हामी महान क्रांतिकारी शहीद अशफाक उल्लाह खान

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मुनेश त्यागी

     “मेरा दिल गरीब किसानों और दुखिया मजदूरों के लिए हमेशा दुखी रहता है। हमारे शहरों में रौनक इन्हीं के दम से है, हमारे कारखाने इन्हीं की वजह से चल रहे हैं। गर्व है कि सारे काम इन्हीं की वजह से हो रहे हैं।”

       ये बहुत ही महत्वपूर्ण चंद शब्द हैं भारत के अमर शहीद और स्वतंत्रता सेनानी अशफाक उल्ला खान के। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काकोरी केस के महान शहीद, क्रांतिकारी शायर और हिंदू मुस्लिम एकता के सबसे बड़े हामी और भारत मां की आजादी की बेडियों को काटने वाले और आजादी की लड़ाई में अपनी जान की कुर्बानी देने वाले, भारत के महान सपूत अशफाक उल्लाह खान का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। उनकी मां का नाम मजहूर-उन-निशा और पिता का नाम पठान शफीकुल्लाह खान था।

       अशफाक के बड़े भाई रियासत उल्ला खान रामप्रसाद बिस्मिल के सहपाठी थे। भाई रियासत अपने भाई अशफाक को बिस्मिल की बाहदुरी और शायरी के किस्से सुनाया करते थे। आजादी के दीवाने अशफाक उल्ला खान राम प्रसाद बिस्मिल से किसी भी तरह मिलना चाहते थे। अशफाक और बिस्मिल की मुलाकात असहयोग आंदोलन के दौरान 1922 में शाहजहांपुर में हुई थी। उन्होंने बिस्मिल को बताया कि “मैं भी “वारसी” और “हसरत” के नाम से शायरी करता हूं।” इसके बाद बिस्मिल ने उनकी शायरी सुनी और यहीं से वे दोनों दोस्त हो गए।

      1922 में गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन को अचानक वापस लेने के फैसले से अशफाक भी खुश नहीं थे और यहीं से वे क्रांतिकारियों के साथ मिल गए। क्रांतिकारियों की मान्यता थी कि अहिंसा जैसे नरम शब्दों के माध्यम से भारत को आजादी नहीं मिल सकती। इसलिए उन्होंने बम, पिस्तौल और सशस्त्र क्रांति के माध्यम से अंग्रेज़ों से लड़कर भारत को आजाद करने की नीति तैयार की। अपनी सशस्त्र क्रांति के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन और सेना की स्थापना की थी। बाद में भगत सिंह के प्रयासों से इसमें समाजवाद शब्द जोड़ा गया और यह क्रांतिकारी एसोसिएशन, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन यानी एचएसआरए  में बदल गई।

    हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का उद्देश्य था कि संसार में पूर्ण स्वतंत्रता हो, प्रकृति की देन पर सबका एक साथ अधिकार हो, कोई किसी पर शासन न करे,  सभी जगह  लोगों के अपने पंचायती राज स्थापित हों।  वे ऐसे नजारे देखते थे कि जहां न भूख हो, न नग्नता हो, जहां न गरीबी हो, जहां न अमीरी हो, जहां न जुल्म हों, न अन्याय हो, जहां बस प्रेम हो, एकता हो, इंसाफ हो, आजादी हो, सुंदरता हो, सब का लोक कल्याण हो।

     आजादी की लड़ाई और अपनी इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें पैसों की जरूरत थी। बिस्मिल ने भारत को आजाद करने के लिए सरकारी पैसों को लूटकर अपने आंदोलन को आगे बढ़ने का फैसला किया। उनका कहना था कि यह पैसा हिंदुस्तानियों का है, अतः हम इस पैसे को लूटकर हथियार खरीदेंगे और अपने आंदोलन को आगे बढ़ाएंगे। इसी नीति के तहत बहुत विचार विमर्श के बाद 9 अगस्त 1925 को चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान और राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आठ अन्य क्रांतिकारियों ने 8-डाउन सहारनपुर-लखनऊ यात्री गाड़ी को लखनऊ के निकट काकोरी स्थान पर रोक लिया और सरकारी खजाने को लूट लिया।

     इसमें राजेंद्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह, सचिन्द्र नाथ बक्शी, चंद्रशेखर आजाद, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकंदी लाल, मनमथ नाथ गुप्त और मुरारी लाल शामिल थे। इस घटना के बाद धीरे-धीरे क्रांतिकारी पकड़े जाने लगे, मगर पुलिस चंद्रशेखर आजाद को नहीं पकड़ पाई।

     इस घटना के बाद अशफ़ाकउल्ला खान पहले बनारस गए, फिर वहां से बिहार गए और वहां से विदेश जाकर लाला हरदयाल से मिलना चाहते थे ताकि सशस्त्र आंदोलन को आगे बढ़ाया जा सके और लुटेरे अंग्रेजों को यहां से भगाया जा सके। वहां से दिल्ली गए। दिल्ली में उनके एक पठान दोस्त ने मदद के बदले उन्हें धोखा दिया और पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक तसद्दुक हुसैन ने अशफाक उल्ला खान और बिस्मिल के बीच सांप्रदायिक जहर फैलाकर, उन्हें हिंदू मुसलमान की खाई बनाकर, उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की।

     इस पर आजादी के दीवाने और क्रांतिकारी अशफाक उल्ला खान ने पुलिस अधिकारी से कहा कि “खान साहब, मैं राम प्रसाद बिस्मिल को आपसे बहुत ज्यादा अच्छी तरह से जानता हूं। उन्होंने कहा कि “हिंदू भारत”, लुटेरे “ब्रिटिश भारत” से ज्यादा अच्छा है।” इस पर उस अंग्रेज सरकार के गुलाम नौकर की आंखें झुक गईं और इस प्रकार उन्होंने अंग्रेजों के नौकर पुलिस अधिकारी को शर्मशार  होने के लिए मजबूर कर दिया।

     इसके बाद अशफाक उल्ला खान को गिरफ्तार करके फैजाबाद जेल भेज दिया गया। इसके बाद काकोरी मामले में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाकउल्ला खान, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा दे दी गई और बाकी 16 क्रांतिकारियों को 4 साल का कठोर दंड से लेकर मशक्कत आजीवन कारावास की सजा दी गई। इस केस में शामिल मेरठ के क्रांतिकारी विष्णुशरण दुबलिश को सात साल के कठोर कारावास की सजा दी गई थी।

      अशफ़ाकउल्ला खान ने जेल से भेजे गए अपने अंतिम संदेश में कहा था कि “हमें आतंकवादी कहना बिल्कुल गलत है। हमारा उद्देश्य आतंक फैलाना नहीं था। हमारे किसी भी साथी ने हमें नुकसान पहुंचाने वालों तक पर कोई गोली नहीं चलाई, किसी को नहीं मारा, किसी को कोई नुक्सान नहीं पहुंचाया। हम तो केवल आजादी हासिल करने के लिए देशभर में क्रांति लाना चाहते थे।” 

     फांसी पर चढ़ने से पहले उन्होंने अपने संदेश में आगे कहा था कि “हिंदुस्तानी भाइयों, आपस में मत लड़ो, हम सब का उद्देश्य एक ही है, एक होकर अंग्रेजों का मुकाबला करो और अपने देश को आजाद करो।”

    फांसी लगने से पहले राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान ने जेल से भेजे गए अपने अंतिम संदेश में भारत के लोगों से कहा था कि “वे जैसे भी हो भारत में हिंदू मुस्लिम एकता कायम रखें। इसी से हमारा भारत देश आजाद हो सकता है और यही हमारी आखिरी इच्छा है और यही हमारी असली यादगार हो सकती है।” भारतीय समाज और सारी जनता को”भाईचारे” और “हिंदू मुस्लिम एकता” की उनकी यह सबसे बड़ी देन है।

       अशफ़ाकउल्ला खान को सोमवार 19 दिसंबर 1927 को फांसी के तख्ते पर ले जाया गया, जहां उन्होंने खुद ही अपने हाथों से फांसी का फंदा अपने गले में डाल लिया और आजादी के लिए अपना सर्वस्व बलिदान देकर अमरता को प्राप्त हो गए। गले में फंदा डालने से पहले उन्होंने एक शेर पढ़ा था,,,, 

“कुछ आरजू नहीं है, आरजू तो बस यह है
रख दे कोई जरा सी खाके वतन कफन में।
ऐ पुख्तकार उल्फत होशियार डिग मत जाना
मराज आशंका है, इस दार और रसन में।”

 भारत के प्यारे शहीद अशफाक उल्ला खान ने अपनी दमदार शायरी के जरिए बहुत कुछ कहा है। यहीं पर शहीद अशफाक उल्ला खान "हसरत"की कुछ हसरतें देखने लायक हैं,,,,,

“न कोई इंग्लिश है, न कोई जर्मन
न कोई रशियन है, ना कोई तुर्की,
मिटाने वाले हैं, अपने ही हिंदी
जो आज हमको मिटा रहे हैं।”

“बुझदिलों को सदा ही मौत से डरते देखा
गो कि सौ बार उन्हें रोज मरते देखा,
मौत से हमने नहीं वीर को डरते देखा
मौत को जब एक बार आना है तो डरना क्या है?”

“हम सदा खेल ही समझा किए मरना क्या है?
वतन हमेशा रहे शादकाम और आजाद
हमारा क्या है अगर हम रहें, रहें, ना रहें
मौत और जिंदगी है दुनिया का सब तमाशा
फरमान कृष्ण का था अर्जुन को बीच रण में।”

अपनी जिंदादिल शायरी को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं और आगे लिखते हैं,,,,,

“जाऊंगा खाली हाथ, मगर ये दर्द साथ ही जाएगा
जाने किस दिन हिंदुस्तान आजाद वतन कहलाएगा?
बिस्मिल हिंदू हैं कहते हैं फिर आऊंगा, फिर आऊंगा,
फिर आकर, ऐ भारत मां, तुझे आजाद कराऊंगा।”

  भारत मां के इस महान क्रांतिकारी और अजीम शायर को शत-शत नमन वंदन और अभिनंदन। देखिए। हम इस अद्भुत शहीद को अपना शीश नवाते हैं। भारत मां को आजाद करने के लिए, रामप्रसाद बिस्मिल से सीख लेकर, वे अपने में किस तरह कमाल का बदलाव करने को आतुर थे, इस महान क्रांतिकारी शख्सियत पर किसे नाज नही होगा। उनकी कमाल की कुछ पंक्तियां देखिए,,,,

“जी करता है मैं भी कह दूं पर मजहब से बंध जाता हूं
मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की बात नहीं कर पाता हूं,
हां अगर खुदा मिल गया कहीं तो अपनी झोली फैला दूंगा,
और जन्नत के बदले, उससे एक पुनर्जन्म ही मांग लूंगा।”

 आज हम सब धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील, समतावादी और सामाजिक न्याय के समर्थकों की यह सबसे बड़ी जिम्मेदारी हो गई है कि वर्तमान के नफरत बड़े माहौल में जहां हिंदू मुस्लिम एकता को तोड़ने की पूरी कोशिश की जा रही है, ऐसे माहौल में हम शहीद अशफ़ाकउल्ला खान के विचारों को लेकर जनता के बीच जाएं, अपनी बात कहें और साझी संस्कृति और गंगा जमुनी तहजीब की विरासत को आगे बढ़ायें और समाज में सांप्रदायिक सद्भाव , सौहार्द और आपसी भाईचारे का माहौल कायम करें। शहीद अशफाक उल्ला खान के लिए यही सबसे बड़ी श्रद्धांजलि और मुबारकबाद होगी।

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