31 दिसम्बर की रात 12 बजते ही Happy New Year की गूंज सुनाई देती है।
हर वर्ष नया साल आता ही है।हर वर्ष हर घर में नए कैलेंडर को दीवार पर टांग दिया गया है।दिनांक,वार,माह सब वैसे ही होतें हैं,सिर्फ वर्ष की संख्या बदलती है।
इक्कसवीं सदी में प्रवेश करने बावजूद भी मानव समाज को व्यापक स्वरूप देने के बजाए देशवासी जाति में भी जाति की उप जाति की भी उप जाति के भी उप शाखा में जकड़ रहें हैं। यही स्थिति राजनीति की है,एक ही राजनैतिक दल में गुटबाजी का प्रचलन हो गया है,एक ही दल में विभिन्न गुट पनप गए हैं।
जनमानस पर भौतिकवाद हावी होने से अत्याधुनिक साधन सम्पन्नता ही सामाजिक प्रतिष्ठा का मापदंड बन गई है।
प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक शारीरिक बनावट को दर्शनीय बनाने के लिए रसायनयुक्त अनगिनत सौदर्य प्रसाधनो का उपयोग कर “बांसी कढ़ी में उबाल” लाने वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं।
हमारे पास महंगा वाहन भी हमारी सामाजिक प्रतिष्ठा में चार चांद लगा रहा है। लेकिन यह महंगा वाहन चलाते समय हम यातायात के नियमो का पालन करते समय अपनी ओरिजनल भारतीय मानसिकता परिचय देते हैं। तमाम यातायात के नियमो का उल्लंघन करने में अपनी थोथी प्रतिष्ठा ही समझतें हैं। मेरे व्यंग्यकार मित्र सीतारामजी ने मुझसे कहा इस संदर्भ में इतना और लिख दो कि, महंगा वाहन क्रय करने के लिए बैंक से ऋण उपलब्ध हो जाता है,लेकिन यातायात के नियमों का पालन करने की प्रेरणा देने वाली अक्ल बाजार में नहीं मिलती है।
अपना देश स्वतंत्रता प्राप्ति के 75वे वर्ष में प्रवेश कर चुका है।
धार्मिकता चरम पर है। धार्मिक क्षेत्र में विद्वानों की कमी नहीं है,लेकिन ज्ञानी नदारद हैं?
शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा की इमारतें जरूर वातुनुकूल निर्मित की जा रही हैं। जहाँ विद्यार्थी पढालिखा ही बन रहा है।शिक्षित कब होगा यह अनुत्तरित प्रश्न है?
इस वर्ष गांधीजी की एक सौ बावनवी जयंती का वर्ष मनाया गया है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा लाभ उठाते हुए गांधीजी की ना सिर्फ आलोचना बल्कि उन्हें गालियां तक दी जा रही है।
देश की गंगाजमुनी सभ्यता को धार्मिक उन्मादी नष्ट करने की शर्मनाक साज़िश कर रहें हैं।
राजनीति में यह स्लोगन,
Minimum Government maximum Governance
सिर्फ कहने सुनने तक ही सीमित है।
राजनीति का धर्म के साथ तालमेल स्थापित करने बजाए घालमेल किया जा रहा है।
धार्मिकता की आड़ में अंध विश्वास फैलाया जा रहा है।
इसी संदर्भ में प्रख्यात हास्य व्यंग्य के कवि स्वर्गीय काका हाथरसी का यह व्यंग्य प्रासंगिक होगा।
“एक गड़रिया था।उसके पास लगभग ढाईसौ भेड़ें थी।एकबार उसकी भेड़ों को कोई बीमारी लग गई।गड़रिया ज्योतिषी के पास गया।गडरिये ने पंडितजी से पूछा पंडितजी पंचांग बाचो और कोई उपाय बताओ?
पंडितजी ने पंचांग देख कर उपाय बताया रामचरितमानस पढ़ो।
गड़रिये ने पढ़ना शुरू किया।बालकाण्ड पढा बीस भेड़ें मर गई जैसे जैसे रामचरितमानस का एक एक कांड पढता गया भेड़ें मरती गई।उत्तरकाण्ड तक सारी भेड़ें मर गई।उपाय कारगर सिद्ध हुआ बीमारी दूर हो गई।
सिर्फ एक मेमना (भेड़ का बच्चा) बचा गया।जब भी गड़रिया अपने कामकाज में व्यस्त रहता और मेमना मैं मैं करता हुआ ममियाते हुए गड़रिये को परेशान करता,तब गडरिया गुस्से में आकर कहता है, निकालू क्या रामायण?साले एक चौपाई का भी नही है।?
यही स्थिति वर्तमान सत्ता ने आम जनमानस के साथ बनाई है।
शशिकान्त गुप्ते इंदौर