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‘मधुशाला’ को लिखकर अमर हो गए हरिवंश राय ‘बच्चन’

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−चेतनादित्य आलोक

हिंदी साहित्य के उत्तर छायावाद काल के कवियों में हरिवंश राय ‘बच्चन’ (27 नवंबर 1907−18 जनवरी 2003) को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हालांकि, बच्चन जी ने न केवल श्रेष्ठ कविताएं लिखकर पाठकों का मन मोहा, बल्कि अपनी गद्यात्मक रचनाओं के माध्यम से भी देशवासियों को अपना प्रशंसक बना लिया था। अपने दौर में कवि सम्मेलनों के सिरमौर माने जाने वाले बच्चन जी का आरंभिक जीवन संघर्षों और चुनौतियों से भरा हुआ था। किशोरावस्था में पहुंचते ही उन्होंने परिवार के कई लोगों को खो दिया, जिनमें उनकी पहली पत्नी श्यामा जी भी शामिल थीं। बता दें कि बच्चन जी ने दो विवाह किए थे। उनकी पहली शादी श्यामा नामक युवती के साथ सन् 1926 में महज 19 वर्ष की आयु में ही कर दी गई थी। दुर्भाग्य से, श्यामा जी लंबे समय तक पति का साथ नहीं निभा पाईं। क्षय रोग से भीषण संघर्ष के बाद अंततरू 1936 में उन्होंने प्राण त्याग दिया। पत्नी की असमय मृत्यु के बाद बच्चन जी बिल्कुल अकेले पड़ गए। इससे उनके कोमल मन−मस्तिष्क को गहरा आघात सहना पड़ा और वे अवसाद के शिकार हो गए। पत्नी श्यामा देवी की बीमारी और फिर उनकी मृत्यु के कठिन दौर की मानसिक हलचल और उधेड़−बून को कविवर बच्चन ने अपनी आत्मकथा के प्रथम खंड ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ में बड़ी ही सहजता और बेबाकी से लिखा है। इसकी कुछ प्रसिद्ध लोकप्रिय पंक्तियां इस प्रकार हैं− ‘क्या भूलूं क्या याद करूं मैं/ अगणित उन्मादों के क्षण हैं/ अगणित अवसादों के क्षण हैं/ रजनी की सूनी घडि़यों को/ किन−किन से आबाद करूं मैं/ क्या भूलूं क्या याद करूं मै…’

डॉ धर्मवीर भारती ने बच्चन जी की इस बेबाक और सहज शैली से प्रभावित होकर कहा था कि बच्चन हिंदी के हजार वर्षों के इतिहास में पहले ऐसे कवि और साहित्यकार हैं, जो अपने बारे में सबकुछ इतनी बेबाकी, साहस और सद्भावना से बयां कर देते हों। इसी प्रकार डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी स्वीकार किया है कि बच्चन की ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ नामक पुस्तक में केवल उनका परिवार और व्यक्तित्व ही नहीं, बल्कि उसमें उनका समूचा काल और क्षेत्र भी गहरे रंगों में उभरकर आया है। देखा जाए तो एक कवि और साहित्यकार की व्यथा का उसकी रचनाओं में उभरकर आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया मानी जाती है, लेकिन बच्चन जी जैसे बड़े कद के कवि और साहित्यकार ने अपनी आत्मकथा में जितनी उदारता दिखाई है, वह सचमुच उल्लेखनीय और सराहनीय है। हालांकि, जीवन में परस्पर प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण बच्चन जी के आचरण और व्यवहार में भले ही भाव विह्वलता ने आश्रय पाई हो, लेकिन उन्होंने कर्म की अपनी पूंजी को कभी व्र्यथ नहीं जाने दिया। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो हर परिस्थिति में हमेशा ही उनकी कर्मठता अन्य लोगों के लिए अनुकरणीय बनी रही। दरअसल, चरम दुख की घड़ी से उबरने के लिए बच्चन जी ने अपनी लेखनी को ही अपना साथी और सहारा बना लिया था, जिसने न केवल उन्हें अवसाद की गहरी खाई में डूबने से बचाया, बल्कि उससे उबरने में भी सहायता की।

यही कारण है कि बच्चन जी की कई कविताएं घोर निराशा के क्षणों में भी आशा की किरण जगातीं और घुप्प अंधेरे में भी प्रकाश की राह पर ले जाती हुई प्रतीत होती हैं। ऐसी ही उनकी ‘जो बीत गई सो बात गई’ शीर्षक कविता की कुछ बेहद लोकप्रिय पंक्तियां इस प्रकार हैं− ‘जीवन में एक सितारा था/ माना वह बेहद प्यारा था/ वह डूब गया तो डूब गया/ अम्बर के आनन को देखो/ कितने इसके तारे टूटे/ कितने इसके प्यारे छूटे/ जो छूट गए फिर कहां मिले/ पर बोलो टूटे तारों पर/ कब अम्बर शोक मनाता है/ जो बीत गई सो बात गई…’

वैसे देखा जाए तो बच्चन जी की कविताओं में केवल संघर्ष, निराशा और आशा ही नहीं है। इसमें जीवंतता, उत्साह, उम्मीद, दृढ़ता और आत्मबल से परिपूर्ण स्वर भी भरपूर मौजूद हैं− ‘अकेलेपन का बल पहचान/ शब्द कहां जो तुझको टोके/ हाथ कहां जो तुझको रोके/ राह वही है दिशा वही/ तू जिधर करे प्रस्थान/ अकेलेपन का बल पहचान…’

वर्ष 1907 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिला स्थित बाबू पट्टी गांव में 27 नवंबर 1907 को जन्मे बच्चन जी के पिता का नाम लाला प्रताप नारायण श्रीवास्तव और माता का नाम सुरसती देवी था। बता दें कि बच्चन जी का वास्तविक नाम हरिवंश श्रीवास्तव था, लेकिन बचपन में माता, पिता तथा परिवार के अन्य बड़ों के द्वारा ‘बच्चन’, जिसका शाब्दिक अर्थ बच्चा या संतान होता है, कहकर बुलाए जाने के कारण बाद में वे इसी नाम से जाने गए और अंततः इसी नाम से उन्होंने साहित्यिक रचनाएं भी लिखीं। बच्चन जी की आरंभिक शिक्षा−दीक्षा गांव की पाठशाला में ही हुई। बाद में उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। वर्ष 1941 से 1952 तक वे प्रयाग (तत्कालीन इलाहाबाद) विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रवक्ता रहे और आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र से जुड़कर भी अपना योगदान देते रहे। फिर अध्ययन के लिए कैम्ब्रजि चले गए और कैम्ब्रजि विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्ल्यू बी यीट्स की कविताओं पर शोध कार्य पूरा कर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 1955 में भारत लौटने के बाद विदेश मंत्रालय में हिंदी के विशेषज्ञ नियुक्त किए गए।

साहित्य शिल्पी बच्चन जी के  लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने बिल्कुल सीधी, सरल भाषा में साहित्यिक रचनाएं लिखीं। ‘आत्म परिचय’ और ‘दिन जल्दी−जल्दी ढलता है’ उनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं। देखा जाए तो ‘दिन जल्दी जल्दी ढलता है’ शीर्षक कविता में उन्होंने मानव जीवन की नश्वरता को स्वर देते हुए अपने व्यक्तित्व के दार्शिनक पक्ष को उद्घाटित करने का सार्थक प्रयास किया है। वैसे, बच्चन जी मुख्यतरू मनुष्य के मन, अनुभूति, प्राण तथा जीवन संघर्ष के उद्घोषक कवि हैं। एक ओर उनकी कविताओं में भावुकता के साथ−साथ रस और आनंद भरपूर मात्रा में विद्यमान है तो दूसरी ओर उनके गीतों में बौद्धिक संवेदना के साथ−साथ गहरी अनुभूतियां भी समाहित हैं। यह अकारण नहीं कहा जाता था कि कवि सम्मेलनों में कविवर बच्चन की कविताएं सुनकर श्रोता झूमने लगते थे। वैसे, देखा जाए तो विषय और शैली की दृष्टि से भी बच्चन जी की कविताएं विशेष हैं। दरअसल, उनकी कविताओं में समाहित स्वाभाविकता, रूमानियत, कसक, गेयता, सरलता और सरसता पाठकों को बांधकर रखने में सक्षम रही हैं। सच कहा जाए तो इन्हीं विशेषताओं के कारण बच्चन जी की रचनाओं को पाठकों के बीच काफी सराहा और पसंद किया गया। वैसे, बच्चन जी श्रोताओं और पाठकों के लिए सहृदय होना जरूरी मानते थे। जाहिर है कि एक लेखक के रूप में वे अत्यंत भाग्यशाली रहे कि उन्हें हमेशा उनके मनोनुकूल सहृदय श्रोताओं और पाठकों का साथ मिला।

कविवर ‘बच्चन’ की लोकप्रियता में उनकी सुमधुर भावनाओं से ओत−प्रोत काव्य कृति ‘मधुशाला’ का सबसे बड़ा योगदान रहा है। हालांकि, बच्चन जी की लोकप्रियता से ईर्ष्या रखने वाले भी कम लोग नहीं थे, जिनमें से कुछ ने तो एक कवि सम्मेलन में कविता पाठ करने से रोकने के लिए गांधी जी से उनके विरूद्ध यह शिकायत कर दी थी कि आयोजकों ने एक ऐसे कवि को भी बुलाया है, जिसने मदिरा के गुणगान वाली पुस्तक ‘मधुशाला’ की रचना की है। उसके बाद गांधी जी ने बच्चन जी को बुलाकर ‘मधुशाला’ की कुछ पंक्तियां सुनाने के लिए कहा था। बच्चन जी ने तब ‘मधुशाला’ की कुछ पंक्तियां पढीं, जो इस प्रकार हैं− ‘मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला/ किस पथ से जाऊं असमंजस में है वह भोला−भाला/ अलग−अलग पथ बतलाते सब/ पर मैं ये बतलाता हूं−/ राह पकड़ तू एक चला चल/ पा जाएगा मधुशाला…’ फिर बच्चन जी ने कुछ और पंक्तियां पढीं− ‘मुसलमान औ हिंदू हैं दो/ एक मगर उनका प्याला/ एक मगर उनका मदिरालय/ एक मगर उनकी हाला/ दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद−मंदिर में जाते/ बैर बढ़ाते मस्जिद−मंदिर मेल कराती मधुशाला…’ मधुशाला की इन पंक्तियों को सुन कर गांधी जी ने बच्चन जी को आरोपों से लगभग मुक्त करते हुए तब कहा था− ‘यह तो सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने वाली कविता है। जाइए, बेधड़क इसे सुनाइए।’ हालांकि, गांधी जी से प्रमाण−पत्र मिल जाने के बावजूद बच्चन जी अपने ईर्ष्यालु आलोचकों के बाणों से कभी मुक्त नहीं हुए।

हालांकि, उनके समकालीन साहित्य के अधिकतर आलोचक उनकी मधुशाला की लोकप्रियता से दंग थे। उनका तो मानना यह था कि ‘मधुशाला’ के बाद यदि बच्चन जी कुछ और नहीं भी लिखें, तो भी उन्हें भुलाया नहीं जा सकेगा, किंतु यह हमारा सौभाग्य ही है कि वे 95 वर्ष से भी अधिक आयु तक जीवित रहे और लगातार प्रतिबद्ध होकर अपनी सृजन यात्रा करते रहे। यहां तक कि वर्ष 1966 में राज्यसभा का सदस्य मनोनीत होने के बाद भी उन्होंने  लेखन से अवकाश नहीं लिया। मधुशाला की लोकप्रियता से जुड़ी कई वर्ष पहले की एक घटना याद आती है। एक बार साहित्य के कुछ विद्यार्थियों से मधुशाला के कुछ छंदों को सुनाकर उसके रचनाकार का नाम पूछने पर अधिकतर विद्यार्थियों ने कविता की पंक्तिया ंतो पहचान लीं, किंतु उसके रचनाकार का नाम अलग−अलग बताया था− रामधारी सिंह ‘दिनकर’, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा और हरिवंश राय ‘बच्चन’। आश्चर्य, कि उनमें से एक−दो ने तो केवल इसलिए कविता की उन पंक्तियों को भी पहचानने से इंकार कर दिया था, क्योंकि उक्त कविता उनके पाठ्यक्रम में शामिल नहीं थी। इसे विडंबना नही ंतो और क्या कहें कि साहित्य के विद्यार्थी केवल इसलिए बच्चन जी जैसे नामचीन कवि और उनकी लोकप्रिय रचना मधुशाला से अपरिचित रह जाते हैं, क्योंकि ये उनके पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं।

गौरतलब है कि कविवर बच्चन फारसी के प्रसिद्ध कवि उमर खय्याम की रुबाइयों के हिंदी अनुवाद करने के लिए भी जाने जाते हैं। कुछ आलोचकों का यह भी मानना रहा है कि उनकी सर्वािधक लोकप्रिय रचना ‘मधुशाला’ पर उमर खय्याम की रुबाइयों का व्यापक प्रभाव पड़ा है। बहरहाल, मधुशाला की लोकप्रियता को देश और काल की सीमाएं भी बांधकर नहीं रख सकीं और देखते−ही−देखते बच्चन जी भारत भर के साहित्य प्रेमियों के दिलो−दिमाग पर ऐसे चढ़े कि फिर कभी उतरे ही नहीं। इसलिए यदि कहा जाए कि मधुशाला को लिखकर वे हिंदी की दुनिया में अमर हो गए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

−चेतनादित्य आलोक

वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं राजनीतिक विश्लेषक, रांची, झारखंड

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