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बादल सरोज
इन दिनों की ख़ास बात “क्या हो रहा है” नहीं है, इन दिनों की विशिष्ट पहचान या प्रभावी सिंड्रोम “अब कुछ नहीं हो सकता” का अहसास है। बड़े जतन, बड़े भारी खर्चे और योजनाबद्ध तरीके से इसे समाज के बड़े हिस्से पर तारी कर दिया गया है। यह भान पैदा कर दिया गया है कि जैसे अब उजाला सिर्फ स्मृतियों में रहेगा, कि अब कभी सूर्योदय नहीं होगा, कि अब सिर्फ भेड़ियों की गश्त हुआ करेगी – इंसान दड़बों में कैद रहा करेंगे, कि जैसे ये और जैसे वो, जैसे हैन और जैसे तैन, जैसे आदि और इत्यादि !!
ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ आम लोगों तक सीमित बात है। इन दिनों ये तकरीबन सबकी बात है, दो-चार-दस की बात नहीं। उनकी भी, जिन्हे समाज के प्रभु-वर्ग ने हमेशा दबाकर रखा, असहमति जताना तो दूर की बात थी, सवाल उठाने तक की इजाजत नहीं दी। इनकी बात समझ आती है। मगर इन दिनों उनकी भी यह दशा है, जिन्होंने खुद अपने जीवन में अनगिनत जुझारू लड़ाइयां लड़ीं, अक्सर तेवर दिखाए और कुर्बानियां दीं। उनकी भी नजर आती है, जो अन्धेरा चीरने के लिए खुद शमा भी बने और लौ सुलगाये रखने के लिए उसी में भस्म हो जाने वाले परवाने भी बन गए, जिन्होंने सोते हुयों को जगाया, लोगों को लड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्हें भी, उनमे से अनेक को, लगने लगा है कि अब हालात बड़े मुश्किल हैं, कि अब कुछ नहीं हो सकता। यह पूरी तरह अनैतिहासिक है। लेकिन सवाल यह है कि है तो क्यों है ?
यह अचानक नहीं हुआ – इसे सायास किया गया है। हुक्मरानों ने अपने सारे घोड़े, गधे और खच्चर काम पर लगाकर अपने लिए, अपने अनुकूल, अपने लायक जनता और उसकी मानसिकता तैयार की है। हुक्मरानी की असली कलाकारी यही है। जैसा कि कार्ल मार्क्स कह गए हैं : “पूँजीवाद सिर्फ लोगों के लिए माल नहीं पैदा करता, वह अपने माल के लिए लोग भी पैदा करता है।” उसने अपना वैचारिक वर्चस्व मजबूत किया है ; टीना (अब कोई विकल्प नहीं है) के सिंड्रोम को “अब यही नियति है” की नई नीचाई तक पहुंचाया है। यह मनुष्यता को उसके स्वाभाविक गुण – सवाल उठाने, असहमति जताने, प्रतिरोध करने, सुधार और बदलाव करने से वंचित करने का उपक्रम है। व्यक्ति को अधिकार सम्पन्न सजग नागरिक बनाने की जगह दास और गुलाम बनाने की कोशिश है।
ऐसा नहीं है कि यह अपने आप हो गया। इसके लिए ढेर सारे जाल बिछाये गए। इस शताब्दी की शुरुआत जिस धमाकेदार दिलचस्प उपन्यास “हैरी पॉटर” की सीरीज से हुयी थी, उसमें इस तरह के द्वन्द की बहुत जबरदस्त गाथा है। इसमें डिमेंटर्स (दमपिशाच) हुआ करते थे, जो जैसे ही परिदृश्य में आते थे, माहौल में अजीब सी नकारात्मकता और मुर्दगी छा जाया करती थी। वे व्यक्ति का उत्साह, जिजीविषा छीन लिया करते थे, उसे हताश बना देते थे। जिसे आलिंगन में ले लेते थे या चूम लेते थे, उसकी आत्मा चूस लिये करते थे ; व्यक्ति एक अनुभूति हीन, संवेदनाविहीन निढाल देह बनकर रह जाया करता था। ठीक वैसे ही दमपिशाच आज चहुंओर हैं। वे सुबह-सुबह अखबार की शक्ल में आ धमकते हैं, दिन भर, यहां तक कि रात में भी टीवी के रूप में बैडरूम में विराजे होते हैं। मोबाइल में भरे जेब में बैठे रहते हैं और दिन-रात हिन्दू-मुस्लिम करते हुए कान भरते रहते हैं, परिवार में नीची-ऊंची जाति और आदमी-औरत के फर्क के रूप में विद्यमान होते हैं। वे एक साथ डराते भी हैं, भड़काते भी हैं, सुलाते भी हैं, भटकाते भी हैं।
मगर मनुष्य सोचने समझने वाला प्राणी है – अक्सर वह कसमसा उठता है और इस मायाजाल को तोड़ देता है। मध्यप्रदेश में चम्बल किसानों की चम्बल, उसके बीहड़, गाँव और खेती बचाने की लड़ाई ऐसी ही कसमसाहट का ताजा उदाहरण है। केंद्र सरकार को इस विनाशकारी परियोजना को वापस लेने के लिए मजबूर कर देना एक बड़ी कामयाबी है ; इसी के साथ यह “अब कुछ नहीं हो सकता” सिंड्रोम का नकार भी है, इस सत्य का स्वीकार भी है कि संघर्ष अभी भी नतीजा पाने का सबसे कारगर तरीका है।
*क्या था चंबल आंदोलन*
अटेर से लेकर श्योपुर तक के किसानो के जोरदार आक्रोश और आंदोलन, उसे मिले समर्थन तथा अब ज्यादा बड़े आंदोलन की तैयारी से सहमी सरकार ने चंबल के बीहड़ में 404 किलोमीटर लंबा अटल एक्सप्रेस हाईवे बनाने की योजना फिलहाल रोक दी है। इस योजना के तहत भिंड जिले के पास इटावा उत्तर प्रदेश से कोटा राजस्थान तक 404 किलोमीटर लंबी सड़क “अटल प्रोग्रेस वे” चंबल के बीहड़ों से होकर बनाया जाना प्रस्तावित किया गया था। अभी हाल ही में जमीन अधिग्रहण के नाम पर 10 हजार किसान परिवारों, जिनके पास भूमि स्वामी स्वत्व है, को भिंड, मुरैना, श्योपुर कलां जिलों से विस्थापित किया जा रहा था। जिन्हें नाम के वास्ते जमीन या कुछ मुआवजा दिया जाना प्रस्तावित किया गया था।
इनके अलावा पीढ़ियों से बीहड़ की जमीन को समतल बनाकर खेती कर रहे लगभग 30 हजार किसान परिवारों को भी उजाड़ने की योजना प्रदेश सरकार द्वारा बनाई गई। इन किसान परिवारों को किसी तरह की कोई जमीन या मुआवजा भी नहीं दिया जा रहा था। कुल मिलाकर थोड़ा-बहुत, कम, नगण्य मुआवजा देकर किसानों को विस्थापित कर हाईवे का निर्माण कराने के उपरांत, चंबल के बीहड़ की बेशकीमती लाखों एकड़ जमीन को कॉरपोरेट्स को सौंपने की योजना प्रदेश सरकार द्वारा बनाई गई। यह जमीन कारपोरेट्स को सड़क के दोनों ओर एक-एक किलोमीटर के कॉरिडोर में दी जानी थी। जिसमें न तो किसानों का हित देखा गया और न हीं पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र के नुकसान का मूल्यांकन किया गया। जल्दबाजी में योजना स्वीकृत कर जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया की शुरुआत की गई। इसके खिलाफ मध्यप्रदेश किसान सभा (एआईकेएस) ने पूरी तैयारी के साथ आंदोलन और अभियान छेड़ा।
*जीत के सबक*
मप्र किसान सभा द्वारा छेड़ी गयी यह मुहिम यूं तो अपने आप में ही एक नजीर है, इसकी विस्तृत केस स्टडी कर दस्तावेजीकरण किया जाना जरूरी है। मगर फिलहाल इसके तीन पहलू अभी रेखांकित किये जाने की जरूरत है। एक : किसी भी मुद्दे पर संघर्ष की अच्छी शुरुआत वही होती है, जो उस विषय से जुड़े सारे तथ्यों को इकट्ठा करने और उसके आगामी, फौरी तथा दूरगामी प्रभावों का अध्ययन करने से की जाती है। दूसरा : जब नीयत, इरादे और आशंकाओं को सरल तरीके से रखने के लिए कष्ट और जोखिम उठाकर, जनता के बीच में जाया जाता है, तो वह अपनी राजनीतिक-जातिगत संकीर्ण चेतना से बाहर निकलती है और उस मुद्दे के गिर्द एकजुट होती है। तीसरा : यह कि उसकी यह जाग्रति और बेचैनी हर तरह से अभिव्यक्त होती है ; चम्बल और उससे जुड़े जिलों में हाल के चुनावों में सत्ता पार्टी की पराजय इसका एक उदाहरण है।
चम्बल के किसानो की यह पहली जीत नहीं है। इसके पहले दो बार सत्ता पोषित-संरक्षित मगरमच्छों के जबड़ों से उसने अपनी बीसियों हजार हैक्टेयर जमीन वापस निकाली है, जौरा नगर के 3000 घरों पर बुलडोजर चलाने की मंशा नाकाम की है। ऐसा ऐंवेई नहीं हुआ, इन सभी लड़ाईयों के नायकों और सैनिकों का श्रम, पाँव-पाँव गाँव-गाँव जागरण इसके पीछे है। जाहिर है कि सिर्फ जीतना भर काफी नहीं होता। इसकी एक क्रोनोलॉजी होती है ; अभियान सूखे मिट्टी के टीलों को भुरभुरा बनाता है, आन्दोलन उसे गीला करता है, संघर्ष उस गीली माटी को ईंटों का आकार देता है, जीत इन ईंटों को पकाती है। मगर फिर वही बात कि सिर्फ इतना भर काफी नहीं होता। इन ईंटों को व्यवस्थित तरीके से चिनकर भविष्य के लिए मजबूत दुर्ग, किले बनाने होते हैं, क्योंकि एक बार रगेद दिए गए भेड़िये दोबारा हमला बोल सकते हैं, ये किले उनसे बचाव और उनके मुकाबले के लिए जरूरी हैं।
उम्मीद है, चम्बल किसानों ने अपने अभियान, आंदोलन, संघर्ष और जीत से जो ईंटे बनाई हैं वे तार्किक परिणाम तक पहुंचेगी ; किसान और मेहनतकश जनता के संगठन के मजबूत किलों में बदलेंगी।
*(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*