एच.एल. दुसाध
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का अंतिम पूर्ण बजट पेश हो चुका है। इसके पेश होने के एक दिन पूर्व पीएम नरेंद्र मोदी ने दावा किया था कि वित्त मंत्री सीतारमण की ओर से एक फ़रवरी, 2023 को पेश होने वाले बजट पर सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की नजर है। इसके जरिये डांवाडोल वैश्विक आर्थिक हालात में जिस तरह से भारत से उम्मीद लगायी गयी है, उसे पूरा करने की कोशिश की जाएगी। मोदी के इस बयान के कुछ देर बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संसद के संयुक्त सत्र को पहली बार संबोधित करते हुए बजट को लेकर संकेत देते हुए कहा था- ‘हमें वर्ष 2047 तक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना है, जो अतीत के गौरव से जुड़ा हो और जिसमें आधुनिकता का स्वर्णिम अध्याय हो। ऐसा भारत जो आत्मनिर्भर हो और जो मानवीय दायित्वों को पूरा करने में समर्थ हो।’ तो 2047 तक राष्ट्रपति के सपनो के भारत निर्माण वाला बजट निर्धारित तिथि पर पेश हो गया जिस पर संतोष व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है- ‘अमृतकाल का पहला बजट विकसित भारत के लिए सशक्त आधारशिला का निर्माण करेगा। यह गरीबों, मध्यम वर्ग और किसानों सहित एक महत्वाकांक्षी समाज के स्वपनों को पूरा करेगा। मैं ऐतिहासिक बजट के निर्मला सीतारमण और उनकी टीम को बधाई देता हूँ।’ प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाते हुए देश में नंबर दो की हैसियत रखने वाले अमित शाह ने भी दावा किया है- ‘यह सर्वसमावेशी और दूरदर्शी है, जो अमृतकाल की मजबूत आधारशिला रखेगा।’ भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इसे अमृतकाल का पहला आम बजट बताते हुए दावा किया है कि ‘प्रधानमंत्री द्वारा देश के नागरिकों को सामाजिक न्याय, समानता और समान अवसर प्राप्त करने वाला बजट है।’
किन्तु 2024 में प्रधानमन्त्री पद के संभावित दावेदार राहुल गाँधी का कहना है कि ‘मित्र काल’ बजट में नौकरियों पैदा करने के लिए कोई विजन नहीं, मंहगाई से निपटने का कोई योजना नहीं, असमानता को दूर करने का कोई इरादा नहीं है। यह बजट साबित करता है भारत के भविष्य के निर्माण के लिए कोई रोड मैप नहीं है।’ वहीं वंचितों की सबसे बड़ी आवाज बसपाध्यक्ष मायावती के अनुसार, ‘पहले की तरह पिछले नौ वर्षों में भी बजट आते-जाते रहे जिसमें घोषणाओं, वादों, दावों की बरसात की जाती रही। लेकिन, वे सब बेमानी हो गए जब मध्यम वर्ग मंहगाई, गरीबी व बेरोजगारी की मार के कारण निम्न मध्यम वर्ग बन गया। इस वर्ष का बजट भी अलग नहीं है।’ बहरहाल, जिस बजट को अमृतकाल का बजट करार दिया जा रहा है, जिससे 2047 तक राष्ट्रपति के सपनों के भारत निर्माण की उम्मीद लगायी जा रही है, जिस पर प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री के संतोष का अंत नहीं है, उस बजट को भारत की वर्तमान अप्रिय स्थिति के नजरिये देखा जाय तो विपक्ष के नेता राहुल गाँधी और मायावती के दावे में काफी दम नजर आयेगा।
2024 को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार जब विनिवेश के मुद्दे पर रणनीतिक बदलाव ला सकती है, तब विपक्ष को भी इस पर अपनी नई रणनीति अख्तियार करने का मन बनाना चाहिए। इसके तहत विपक्ष को दो संदेश देना चाहिए। पहला, सत्ता में आने पर बेची गई सरकारी परिसंपत्तियों और कंपनियों की समीक्षा कराएंगे और यदि प्रायोजन पड़ा तो हम फिर से इनका राष्ट्रीयकरण करेंगे। दूसरा, यदि सरकारी संपत्तियों और कंपनियों को बेचने की जरूरत पड़ी तो हम हिंदू-जैनियों के बजाय उन्हें पारसी, सिख, ईसाई, मुसलमान उद्यमियों को बेचेंगे। क्योंकि इनमें परोपकार की भावना ज्यादा है इसलिए ये दुर्दिन में अपनी कमाई दौलत का इस्तेमाल जनहित में करते हैं।
क्या है भारत की वर्तमान अप्रिय स्थिति?
ऑक्सफैम की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार जहाँ टॉप की 10 प्रतिशत आबादी का 72 प्रतिशत धन-दौलत पर कब्ज़ा हो चुका है, वहीं नीचे की 50% आबादी महज 3% धन पर जीवन निर्वाह करने के लिए विवश है। 2006 से वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम की ओर से प्रकाशित हो रही ग्लोबल जेंडर गैप की 2021 की रिपोर्ट के हिसाब से भारत महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर अपने प्रतिवेशी मुल्कों : बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका इत्यादि से पीछे चला गया है तथा यहाँ की आधी आबादी अर्थात 65 करोड़ से अधिक महिलाओ को आर्थिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगने हैं। जुलाई 2022 के तीसरे सप्ताह में वर्ल्ड पावर्टी क्लॉक से पता चल चुका है कि भारत नाइजेरिया के 8,30,05,482 के मुकाबले 8,30,68,597 गरीब पैदा कर वर्ल्ड पावर्टी कैपिटल अर्थात विश्व गरीबी की राजधानी बन चुका है। पिछले वर्ष जब मोदी 15 अगस्त को देश को आजादी का अमृत महोत्सव में डूबोने का उपक्रम चला रहे थे, उन्ही दिनों शिक्षा के क्षेत्र में एक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिससे पता चला था कि भारत घटिया शिक्षा के मामले में मलावी नामक एक छोटे से देश के बाद विश्व में दूसरे स्थान पर काबिज हो गया है। इस अप्रिय स्थिति के आईने में यदि बजट का आंकलन किया जाय तो मोदी, शाह, नड्डा, सीतारमण के दावे पर करुणा ही होगी। लेकिन इस बजट पर मोदी- शाह की हाँ में हाँ मिलाते हुए प्रभुवर्ग के आर्थिक विश्लेषक नाच रहे हैं। मोदी सरकार का भोंपू बन चुके ये बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री बजट का तो जयगान कर ही रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वे बहुत दावे से एक स्वर में कहे जा रहे हैं कि ‘बहुत दिनों से अटकलें लगायी जा रही थीं कि सामने नौ राज्यों का चुनाव है और फिर अगले साल लोकसभा का चुनाव है, अतः अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम बजट को मोदी विकास के बजाय बजट को लोक लुभावन बनायेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री की सोच अटल है और वे बजट को लोकलुभावन के बजाय विकास केन्द्रित बना दिए हैं।’ लेकिन सब समय मोदी की छवि बनाने में मशगूल इन दानिशमंद लोगों ने आयकर और विनिवेश पर सरकार की सोच में आये बदलाव को ठीक से समझने का प्रयास ही नहीं किया। अगर करते तो पता चलता मोदी जनता के ताकत की अनदेखी न कर सरेंडर की मुद्रा में आ गए हैं। जनता की ताकत का कोई जवाब नहीं, इसलिए हर शासक को उसकी भावना का आदर करना पड़ता है। चाहे वह मोदी जैसा क्रूर व देश विरोधी तानाशाह ही क्यों न हो! और लोकतंत्र में जनता को अपनी ताकत दिखाने का अवसर मिलता है चुनावों में। खासकर आम चुनावों में! मोदी सरकार ने आगामी दिनों होने वाले नौ राज्यों और लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखा है इसलिए 2023- 24 का जो आम बजट पेश हुआ है, उसमें आगामी चुनावों में जनाक्रोश से बचनेका भाव ही परिलक्षित हुआ है, जिसका सबसे बड़ा असर आयकर और खासकर विनिवेश के क्षेत्र में पड़ा है। सात लाख तक के आय पर कोई टैक्स नहीं, यह बजट के लोक लुभावन होने का बड़ा प्रमाण है। नयी आयकर नीति के फलस्वरूप सरकार पर 37,000 करोड़ का आर्थिक बोझ पड़ेगा, सरकार कर्मचारी वर्ग अर्थात बहुजनों को प्लीज करने के लिए यह बोझ उठाएगी। किन्तु सबसे बड़ा सरेंडर सरकार ने विनिवेश के मोर्चे पर किया है। वाया निजी क्षेत्र सारा कुछ सवर्णों के हाथों में सौपने पर आमादा मोदी सरकार 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही विनिवेश का बड़ा-बड़ा लक्ष्य निर्धारित करती रही। यह बात और है कि वह हर साल अपने लक्ष्य से खासा दूर रह गयी। बावजूद इसके 2019-20 में 105,000 करोड़ रुपये, 2020-21 में 210,000 करोड़ रुपये और 2021-22 में 175,000 करोड़ रुपये के विनिवेश का लक्ष्य रखा। किन्तु उसके बाद 2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए अपना लक्ष्य छोटा करना शुरू किया किया, जिसका असर पिछले साल के बजट से दिखना शुरू हुआ। 2022-23 में मोदी सरकार छः अंकों के बजाय पांच अंको में लक्ष्य निर्धारित करते हुए 65,000 करोड़ रखा। अब उसने वित्त वर्ष 2023- 24 के लिए विनिवेश का लक्ष्य सिर्फ 51,000 करोड़ रखा है।
विनिवेश पर यह सारा खेल आगामी चुनावों, खासकर लोकसभा चुनाव में बहुजन मतदाताओं को ध्यान में रखते हुए खेला गया है। लेकिन बहुजन मतदाताओं को इसके भुलावे में नहीं आना चाहिए। 2024 का चुनाव जीतते ही मोदी सरकार पिछले दो वित्त वर्ष में हुए विनिवेश के कम लक्ष्य की भरपाई के लिए सीधे लक्ष्य को छः अंकों में पहुंचाते हुए 2 लाख करोड़ कर सकती है। क्योंकि इसे 2025 में संघ 100 जयंती वर्ष में हिन्दू राष्ट्र घोषित करते हुए गैर-सवर्णों को उस स्टेज में पहुँचाना है, जिसका निर्देश हिन्दू धर्म-शास्त्र देते हैं। ऐसे में हिन्दू राष्ट्र का सपना तभी पूरा हो सकता है, जब देश के अर्थोपार्जन के समस्त अवसर और सपदा- संसाधन शत प्रतिशत सवर्णों के हाथ में में जाए। इसके लिए सर्वोत्तम उपाय है विनिवेश के लक्ष्य को एक्सट्रीम पर पहुचाना! इस बात को ध्यान में रखते हुए संघ प्रशिक्षित पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बाकायदे विनिवेश मंत्रालय खोलकर देश बेचना शुरू किया। बाद में डॉ. मनमोहन सरकार (2004-2014) ने 2004 से 2014 के दौरान विनिवेश के जरिये देश की संपत्ति-कंपनियों को निजी हाथ में देने के वाजपेयी सरकार के एजेंडे पर काफी हद तक विराम लगा दिया। इस प्रक्रिया में विनिवेश की गाड़ी थम सी गयी। लेकिन उसके बाद सत्ता में आई मोदी सरकार ने 2015 में नीति के तौर पर खुले तौर पर निजीकरण की घोषणा की। सरकार ने खुले आम घोषणा कर दी कि सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है। उसके बाद सरकार युद्ध पर विनिवेश के जरिये देश निजी क्षेत्र के हाथों में देने में मुस्तैद हो गयी! बहरहाल, विनिवेश के जरिये सारा कुछ सवर्णों के हाथ में देने जुनून के साथ जुटी मोदी सरकार भले ही आगामी चुनावों को देखते हुए नए बजट में विनिवेश का लक्ष्य न्यूनतम स्तर पर पहुचाने की घोषणा कर दी हो, पर 2024 में सत्ता में वापसी के बाद यह लक्ष्य सालाना दो लाख करोड़ से उपर जा सकता है। ऐसे में बहुजनों को मोदी सरकार के कार्यकाल में विनिवेश के न्यूनतम लक्ष्य के भुलावे में नहीं आना चाहिए!
बहरहाल, 2024 को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार जब विनिवेश के मुद्दे पर रणनीतिक बदलाव ला सकती है, तब विपक्ष को भी इस पर अपनी नई रणनीति अख्तियार करने का मन बनाना चाहिए। इसके तहत विपक्ष को दो संदेश देना चाहिए। पहला, सत्ता में आने पर बेची गई सरकारी परिसंपत्तियों और कंपनियों की समीक्षा कराएंगे और यदि प्रायोजन पड़ा तो हम फिर से इनका राष्ट्रीयकरण करेंगे। दूसरा, यदि सरकारी संपत्तियों और कंपनियों को बेचने की जरूरत पड़ी तो हम हिंदू-जैनियों के बजाय उन्हें पारसी, सिख, ईसाई, मुसलमान उद्यमियों को बेचेंगे। क्योंकि इनमें परोपकार की भावना ज्यादा है इसलिए ये दुर्दिन में अपनी कमाई दौलत का इस्तेमाल जनहित में करते हैं। जबकि हिंदू- जैनी इस मामले में काफ़ी पीछे हैं। ये अपनी कमाई दौलत का इस्तेमाल अपने मिल/ फैक्टरियों के परिसर में मंदिर और तीर्थस्थलों पर धर्मशाला बनाने में खर्च करते हैं। इनका मानना है कि गंगा में डुबकी लगा लेने और गो माता को भोजन करा देने से सारे पाप धूल जाते हैं और स्वर्ग का रास्ता मुक्त हो जाता है। इस सोच के कारण ही हिंदू-जैनी हिन्दुत्ववादी भाजपा को खुलकर दान करते हैं। अगर देश का सांप्रदायिक वातावरण विषाक्त हुआ है तो उसमें अन्यतम खास कारण इनका भाजपा को अर्थ-दान देना रहा है। इससे उपकृत होकर ही मोदी सरकार हिंदू-जैनियों के हाथ में देश बेच रही है! यदि विपक्ष विनिवेश के मुद्दे पर यह संदेश राष्ट्रमय प्रसारित कर दे, इसी मुद्दे पर बहुजन 2024 में देश बेचवा मोदी सरकार को सत्ता से बाहर कर देंगे!
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।