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 हिमांशु कुमार पर 5 लाख का जुर्माना और भारत का सिस्टम

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अजय असुर

 सर्वोच्च न्यायालय ने 2009 के एक मामले में हिमांशु कुमार और बारह अन्य लोगों द्वारा दायर एक रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले (दंतेवाड़ा) के गांवों में आदिवासियों की गैर-न्यायिक हत्याओं की स्वतंत्र जांच के लिये रिट याचिका डाली गई थी। जिसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द करते हुवे कहा कि “याचिकाकर्ता पुलिस और सुरक्षा बलों के खिलाफ अपने आरोपों को साबित करने में असमर्थ थे, इसलिए पूरी याचिका में दुर्भावनापूर्ण इरादा है, और यहां तक कि एक आपराधिक साजिश भी हो सकती है।” और याचिकर्ता हिमांशु कुमार पर पाँच लाख रुपये का जुर्माना लगाया है। ये जुर्माना अदा ना कर पाने की स्तिथि में जेल जाना पड़ेगा। साथ ही फैसले में राज्य को सुझाव दिया है कि छत्तीसगढ़ राज्य/सीबीआई द्वारा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की आपराधिक साजिश रचने की धारा और पुलिस और सुरक्षा बलों पर झूठा आरोप लगाने के लिए आगे की कार्रवाई कर सकते हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 211 को जोड़कर साथ में सीबीआई मावोवदी होने का जाँच भी कर सकती है।

इस पर हिमांशु जी कहते हैं कि “कोर्ट ने मुझसे कहा पांच लाख जुर्माना दो, तुम्हारा जुर्म यह है तुमने आदिवासियों के लिए इंसाफ मांगा। मेरा जवाब है कि “मैं जुर्माना नहीं दूंगा। जुर्माना देने का अर्थ होगा मैं अपनी गलती कबूल कर रहा हूं। मैं दिल की गहराई से मानता हूं कि इंसाफ के लिए आवाज उठाना कोई जुर्म नहीं है। यदि इंसाफ मांगना जुर्म है तो यह जुर्म हम बार-बार करेंगे।”

2009 की घटना इस प्रकार थी

17 सितंबर और 1 अक्टूबर 2009 की दो घटनाओं में दंतेवाड़ा के गच्चनपल्ली, गोम्पाड, नुलकाटोंग और सिंगनमडगु के जंगल और आसपास के अन्य गांवों के 16 आदिवासी लोगों को गोली से मार दिया गया और कई निर्दोष आदिवासियों पर इन हमलों के दौरान जघन्य बर्बरता के साथ प्रताड़ना हुई। मारे गये लोगों में महिलाएं बच्चे और बुजुर्ग लोग थे। एक डेढ़ साल के बच्चे की उंगलियाँ भी काट दी गई थीं। इस हत्याकांड को गोम्पाड नरसंहार के रूप में जाना जाता है। सबसे दिलचस्प बात कि रिट याचिका डालने वाले 12 आदिवासी जो कि पेटिशनर थे, हिमांशु कुमार को छोड़कर सारे के सारे गायब कर दिये जाते हैं। यानी इन 12 याचिकाकर्ता का अपहरण कर लिया जाता है। हिमांशु कुमार को छोड़कर अन्य बारह याचिकाकर्ता गोम्पाड नरसंहार में मारे गए लोगों के परिवार के सदस्य हैं।

माननीय सर्वोच्य न्यायालय के इस फैसले पर हिमांशु कुमार जी का कहना है कि “मामला झूठा होने का फैसला गलत है। क्योंकि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई जांच ही नहीं कराई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मैंने यह मुकदमा माओवादियों की मदद करने के लिए किया है। लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आ रहा कि अगर सुप्रीम कोर्ट पीड़ित लोगों को न्याय देगा तो उससे माओवादियों को क्या फायदा हो जाएगा? और अगर न्याय ना दिया जाय तथा मुझ जैसे न्याय मांगने वाले व्यक्ति पर ही जुर्माना लगा दिया जाय तो उससे देश का क्या फायदा हो जाएगा? मेरे द्वारा यह कोई अकेला मामला कोर्ट में नहीं ले जाया गया है। मैंने 519 मामले सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं जिनमें पुलिस द्वारा की गई हत्याएं बलात्कार अपहरण और लूट के मामले शामिल हैं।

हिमांशु कुमार जी आगे एक अन्य घटना के बारे में बताते हैं कि “2009 में सिंगारम गाँव में 19 आदिवासियों को लाइन में खड़ा करके पुलिस द्वारा अंधाधुंध गोलियां चलायी जाती है पर किसी पुलिसवाले को नही लगती। पुलिस 25 गोलियां चलाती है, 19 आदिवासी मर जाते है। जिनमें चार लडकियां थीं जिनके साथ पहले बलात्कार किया गया था। इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने अपनी रिपोर्ट में इसे फर्जी मुठभेड़ माना है। आदिवासियों से 5 बंदूके बरामद होती है जो सड़ी हुई थी, जिनसे गोली चल ही नही सकती थी और जब कोर्ट में बलात्कार के खिलाफ शिकायत की याचिका डाली जाती है तो बलात्कारी पुलिसवालो को भगोड़ा दिखाया जाता है, जबकि वो रेगुलर सैलरी ले रहे होते हैं। ‘Absconding but on duty’ की हेडलाइंस से अखबार में खबर छपी। फिर उन्ही बलात्कारियो से दोबारा उन्ही लड़कियों का बलात्कार करवाया लगातार 5 दिन थाने में।”

“इसी तरह 2008 में माटवाड़ा में सलवा जुडूम कैम्प में रहने वाले तीन आदिवासियों की पुलिस ने चाकू से आँखें निकाल ली थीं और उन्हें मार कर दफना दिया था और इलज़ाम माओवादियों पर लगा दिया था। उस मामले को लेकर मैं हाई कोर्ट गया और मानवाधिकार आयोग ने इस मामले की जाँच की और स्वीकार किया कि हत्या पुलिस ने की थी इस मामले में थानेदार और दो सिपाही जेल गए। 2012 में सारकेगुडा गाँव में सत्रह आदिवासियों की हत्या सीआरपीएफ ने की। सरकार ने कहा यह लोग माओवादी थे। हम लोगों से गाँव वालों ने मिलकर बताया कि मारे गये लोग निर्दोष थे जिसमें नौ बच्चे थे। अंत में न्यायिक आयोग की जांच रिपोर्ट में पाया गया कि मारे गये लोग निहत्थे निर्दोष आदिवासी थे। 2013 में एडसमेट्टा गाँव में सात आदिवासियों की पुलिस ने हत्या की। सरकार द्वारा दावा किया गया कि यह लोग माओवादी थे। बाद में न्याययिक आयोग की रिपोर्ट आई कि यह लोग निर्दोष आदिवासी थे। हमारे द्वारा सुरक्षा बलों के सिपाहियों द्वारा आदिवासी महिलाओं से बलात्कार की शिकायतें दर्ज कराई गई। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम ने जांच की और रिपोर्ट दी कि सोलह आदिवासी महिलाओं के पास प्राथमिक साक्ष्य मौजूद हैं जिससे पता चलता है कि उनके साथ सुरक्षा बलों के सिपाहियों ने बलात्कार किये हैं।”

“2011 में सरकार ने मेरी छात्रा और आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी को माओवादी कहा और उन पर सात मुकदमें लगा कर उन्हें जेल में डाल दिया। हमने कहा कि सोनी सोरी निर्दोष है। अंत में अदालत ने भी माना कि सोनी सोरी निर्दोष हैं उन्हें सातों मामलों में बरी कर दिया।”

“मेरे द्वारा शिकायत की गई कि छत्तीसगढ़ की जेलों में ऐसी आदिवासी लडकियां बंद हैं जिन्हें पहले पुलिस थाने में बिजली के झटके देकर जलाया गया यौन प्रताड़ना दी गयीं और उसके बाद उन्हें फर्जी मामलों में फंसा कर जेल में डाल दिया गया है। मेरे इस इलज़ाम के समर्थन में महिला उप जेलर वर्षा डोंगरे ने कमेन्ट किया और लिखा कि हिमांशु कुमार बिलकुल सच कह रहे हैं मैं जब बस्तर जेल में पदस्थ थी तो मैंने खुद ऐसी नाबालिग आदिवासी लड़कियों को देखा था जिनके शरीर पर बिजली से जलाए जाने के निशान थे जिसे देख कर मैं काँप गई। इस कमेन्ट के बाद सरकार ने वर्षा डोंगरे को सच बोलने के जुर्म में सस्पेंड कर दिया था, बाद में उन्हें फिर से बहाल किया गया।”

“न्यायालय ने कहा है कि इस मामले में पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर ली थी और चार्जशीट भी फ़ाइल कर दी थी इसलिए हमें पुलिस की कार्यवाही पर भरोसा करना चाहिए था और सर्वोच्च न्यायालय नहीं आना चाहिए था, लेकिन जो पुलिस हत्या करने वाले गिरोह में शामिल थी उसकी जांच पर पीड़ित कैसे भरोसा कर सकते थे। पीड़ित आदिवासी इसीलिये सुप्रीम कोर्ट आये थे क्योंकि उन्हें पुलिस के खिलाफ ही न्याय चाहिए था। इसलिए उन्होंने मांग करी कि सीबीआई या एसआईटी से जांच कराई जाय क्योंकि पुलिस ही हत्याकांड में शामिल थी।”

“इसके अलावा पीड़ित ग्रामीणों ने पहले दंतेवाडा के पुलिस अधीक्षक को पूरी घटना की शिकायत लिख कर भेजी थी लेकिन उन्होंने कोई मदद नहीं करी। एसपी को भेजे गये इन शिकायती पत्रों की प्रतिलिपि सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई थी। सुप्रीम कोर्ट जानता था कि लोकल पुलिस ने कोई मदद नहीं की थी। कहा गया है कि बारह में से छह आवेदकों ने दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में मजिस्ट्रेट के सामने दिए गये बयान में हमलावरों को ना पहचानने का बयान दिया जबकि पेटीशन में उन्होंने हमलावरों को पुलिस के रूप में बताया था। इस बाबत तथ्य यह है कि इन छह लोगों का पुलिस ने अपहरण किया था ताकि खुद को बचने के लिए फर्जी सबूत गढे जा सकें। इस अपहरण का विडिओ भी हमारे पास मौजूद है जिसे वहाँ मौजूद पत्रकारों ने बनाया था। अपहरण के बाद अवैध हिरासत में रख कर पुलिस ने इन पीड़ित आदिवासियों को जान से मारने की धमकी देकर बयान दिलवाया। जिसमें आदिवासियों ने कहा कि जंगल से वर्दीधारी लोग आये और उन्होंने हमारे परिवार के सदस्यों की हत्या की। इन लोगों ने यह नहीं कहा कि हिमांशु झूठ बोल रहा है या मुकदमा उन्होंने किसी दबाव में डाला है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट की यह जिम्मेदारी बनती थी कि वह यह जांच करवाता कि हत्यारे कौन थे। आखिर सुप्रीम कोर्ट हत्या में आरोपी पुलिस को बिना जांच के कैसे क्लीन चिट दे सकता है और बिना जांच के हमें कैसे दोषी कह सकता है।”

मेरे ऊपर जुर्माना लगाकर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी कायरता और कमजोरी दिखाई है। हमें एक हिम्मतवाला सुप्रीम कोर्ट चाहिए जो भारत के लोकतंत्र की रक्षा कर सके लोगों की जान की हिफाजत कर सके। हम ऐसे सुप्रीम कोर्ट के लिए लगातार लड़ेंगे। मेरी लड़ाई खुद को बचाने की लड़ाई नहीं है। यह भारत की न्याय व्यवस्था को लोकतंत्र को और लोगों के मानव अधिकारों को बचाने की लड़ाई है।

*शेस आगे अगले भाग में….*

*अजय असुर*

*रास्ट्रीय जनवादी मोर्चा*

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