“अहंकाररूपिणी” (अहंकार का प्रतीक)… “पापी”… … “वेश्या”… “घृणित स्त्री जिसने मनुस्मृति के नियमों को तोड़ा” – ये शब्द मलयालम कवि कुरीपुज़ा श्रीकुमार की कविता नडियुडे रात्रि (अभिनेत्री की रात) में दर्ज हैं.ये वही भाव थे जो लगभग सौ साल पहले मलयालम सिनेमा की पहली महिला अभिनेत्री पी.के. रोज़ी के ख़िलाफ़ जातिवादी समाज ने प्रकट की थीं, जब उनकी पहली और आख़िरी फिल्म विगतकुमारन (खोया हुआ बच्चा) का प्रीमियर हुआ.
पी.के. रोज़ी दलित समाज से थीं और उन्होंने इस मूक फिल्म में नायिका की भूमिका निभाई थी.यह फिल्म 1928 में (हालांकि इस वर्ष को लेकर कुछ मतभेद हैं) तिरुवनंतपुरम में प्रदर्शित हुई थी. फिल्म निर्माता जे.सी. डेनियल ने इसे निर्देशित किया था. वो मलयालम सिनेमा के जन्मदाता माने जाते हैं.

जब इस फिल्म में एक दलित महिला को एक नायर पात्र के रूप में देखा गया, तो ऊँची जाति के दर्शक भड़क उठे. उन्होंने थिएटर में तोड़फोड़ की और डेनियल व रोज़ी को वहां से भगाया. इसके बाद भी हिंसा नहीं रुकी – भीड़ ने रोज़ी के घर को आग के हवाले कर दिया.
साल 2003 में प्रकाशित श्रीकुमार की मार्मिक कविता ने उस घटना को फिर से उजागर किया, जिसने रोज़ी को हमेशा के लिए गुमनाम कर दिया.
उनके जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है. गूगल ने 2023 में उनके 120वें जन्मदिन पर एक डूडल समर्पित किया, लेकिन उनकी वास्तविक जन्मतिथि की पुष्टि आज भी नहीं हो सकी है.
लेखक वीनू अब्राहम ने नष्टनायिका (खोई हुई नायिका) नामक उपन्यास लिखा है. वो बताते हैं कि रोज़ी के जन्म और मृत्यु की कोई पुख़्ता जानकारी नहीं है. यहाँ तक कि उनका प्रचलित चित्र भी प्रमाणिक नहीं माना जाता.
रोज़ी का जन्म 1900 के शुरुआती दशक में तिरुवनंतपुरम के पुलया समुदाय में हुआ था, जिन्हें समाज में ‘अछूत’ समझा जाता था. वह आजीविका के लिए घास काटने का काम करती थीं. लेकिन अभिनय के प्रति उनके झुकाव ने उन्हें कक्कारासी नाटक (एक लोक नाट्य शैली) में क़दम रखने का मौका दिया.
माना जाता है कि रोज़ी कक्कारासी नाटकों में अभिनय करने वाली पहली महिला थीं. यह वही समय था जब उनकी मुलाकात डेनियल से हुई और उन्होंने विगतकुमारन में काम किया.
इस फिल्म के प्रीमियर के बाद हुए हंगामे के कारण, रोज़ी को जान बचाने के लिए तिरुवनंतपुरम से भागना पड़ा. कहा जाता है कि वह नागरकोइल के लिए एक ट्रक में छिपकर निकल गईं, जिसे केशव पिल्लई नामक व्यक्ति चला रहा था.
बाद में, उन्होंने उसी केशव पिल्लई से शादी कर ली, जो नायर जाति से थे. अपनी असली पहचान छिपाकर, उन्होंने अपनी बाक़ी ज़िंदगी उसी समाज में बिता दी, जिसने कभी उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर दिया था. बताया जाता है कि उनकी मृत्यु 1980 के दशक में हुई थी. हालांकि, इसकी भी स्पष्ट जानकारी अभी उपलब्ध नहीं है.
डेनियल एक समृद्ध व्यक्ति थे, लेकिन विगतकुमारन की विफलता और उसके बाद भी फिल्में बनाने की उनकी कोशिशों ने उन्हें आर्थिक रूप से तबाह कर दिया. 1960 के दशक में इतिहासकार और पत्रकार चेलंगाट्ट गोपालकृष्णन ने उनके योगदान को पुनर्जीवित किया और उन्हें मलयालम सिनेमा के पिता के रूप में मान्यता दिलाई. 1975 में डेनियल की मृत्यु हो गई.
1970 के दशक से, इतिहासकार कुन्नुकुज़ि एस. मणि ने रोज़ी के बारे में लिखना शुरू किया. 21वीं सदी में रोज़ी को पहचान दिलाने के कई प्रयास किए गए. वीनू अब्राहम ने पहली बार 2005 में केरल अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के दौरान दलित लेखकों के एक संगठन द्वारा जारी एक विरोध पत्र के माध्यम से उनके बारे में जाना. इसके बाद उनके शोध के आधार पर उन्होंने नष्टनायिका लिखी.
इसके बाद, 2013 में निर्देशक कमल ने मलयालम फिल्म सेल्युलॉइड बनाई, जिसमें पृथ्वीराज सुकुमारन ने डेनियल की भूमिका निभाई और नवोदित अभिनेत्री चांदनी गीता ने रोज़ी का किरदार निभाया.
हालांकि फ़िल्म की आलोचना भी हुई कि इसमें रोज़ी को एक ऊँची जाति के नज़रिए से प्रस्तुत किया गया. फिर भी, यह फिल्म रोज़ी के जीवन पर बनी अब तक की सबसे चर्चित प्रस्तुति बनी.
2019 में वीमेन इन सिनेमा कलेक्टिव (WCC) ने पी.के. रोज़ी फिल्म सोसाइटी की स्थापना की ताकि सिनेमा में महिलाओं और नारीवाद को बढ़ावा दिया जा सके. डब्लूसीसी की संस्थापक सदस्य बीना पॉल कहती हैं, “रोज़ी की कहानी भले ही पूरी तरह से दर्ज नहीं है, लेकिन उनका अस्तित्व जाति और लिंग के संघर्ष का प्रतीक बन चुका है.”
तमिलनाडु में, फिल्म निर्माता पा. रंजीत के नीलम कल्चरल सेंटर ने पी.के. रोज़ी फिल्म महोत्सव शुरू किया, जिसमें दलित थीम पर बनी फिल्मों को प्रस्तुत किया जाता है. 2024 में केरल अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के सिग्नेचर वीडियो में भी रोज़ी को श्रद्धांजलि दी गई.

यह सब सराहनीय है, लेकिन सच्चा न्याय वही होगा जब भारतीय सिनेमा में दलित और महिला कलाकारों को लगातार उचित स्थान मिलेगा और ऐसी फ़िल्में आम हो जाएंगी जिनमें दलित व महिला प्रमुख पात्र हैं.
आज भी मुख्यधारा की फिल्मों में दलित नायक-नायिकाएँ कम ही दिखते हैं, और जिनकी दलित जातीय पहचान सार्वजनिक रूप से जानी जाती है, ऐसे फ़िल्मी सितारे दुर्लभ हैं. निर्देशक कमल मानते हैं कि अगर रोज़ी आज जीवित होतीं, तो उन्हें मुख्य नायिका के बजाय सहायक भूमिकाएँ निभाने को ही मिलता.
भारत में दलित-विषयक सिनेमा मुख्य रूप से मराठी और तमिल इंडस्ट्री में देखने को मिलता है, लेकिन वहाँ भी यह अधिकतर पुरुष-केंद्रित होता है. एक सदी बाद भी, रोज़ी नाम की बहादुर दलित महिला ने जो राह बनाई, उस पर भारत का सिनेमा अभी तक पूरी तरह चल नहीं पाया है.
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