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मुनाफे की होड़ में कहीं बहुत पीछे छूट गई है मानवता और सभ्यता

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हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

जिस दिन बाजार ने पानी को, चिकित्सा को और शिक्षा को मुनाफे की संस्कृति के हवाले कर दिया उस दिन सभ्यता पर बाजार की निर्णायक जीत हुई थी. सभ्यता आगे बढ़ने की चीज है और जो सभ्यता मानवता के साथ जितना कदमताल करते आगे बढ़ती है, वह उतनी प्रगतिशील मानी जाती है. बाजार और मानवता एक दूसरे के विरुद्ध हैं क्योंकि मुनाफे की संस्कृति में सबसे अधिक उपेक्षित अगर कोई चीज होती है तो वह मानवता ही है. इन अर्थों में देखें तो हमारी सभ्यता नवउदारवाद के चंगुल में फंसने के बाद प्रतिगामी हुई है.

तकनीक के अदभुत अविश्वसनीय विकास ने जो उपलब्धियां हासिल की, बाजार ने उन पर भी कब्जा कर लिया. तो, बाजार के बड़े खिलाड़ी तकनीक के प्रभु बन गए. नतीजा, दुनिया की बड़ी निर्धन आबादी तकनीक के लाभार्थियों में सबसे निचले पायदान पर है. भारत इस मामले में अग्रणी है कि यहां दुनिया की सबसे अधिक आर्थिक और सामाजिक विषमता व्याप्त है. सामाजिक विषमता से तो लड़ाइयां चलती रहती हैं लेकिन आर्थिक विषमता के विरुद्ध कोई दमदार आंदोलन कहीं नजर नहीं आता.

बढ़ती आर्थिक विषमता एक बड़े वर्ग को तकनीकी और आर्थिक विकास की मुख्यधारा से हाशिए पर रखती है. हाशिए पर की आबादी अच्छी चिकित्सा और अच्छी शिक्षा से महरूम है तो यही तो सभ्यता की विफलता है. इतने वैचारिक आंदोलनों, इतने मानवतावादी विचारकों और इतने तकनीकी विकास के बाद भी आज कोई निर्धन बीमार किसी चमकते दमकते डिजाइनर अस्पताल की ओर देख तक नहीं सकता. उसे जरूरी सुविधाओं से महरूम किसी सरकारी चिकित्सालय की गंदी कोठरी ही नसीब है.

इतने दिन की यात्रा के बाद सभ्यता के इस मुकाम पर हम जहां पहुंचे हैं वहां आज कोई प्यासा राहगीर किसी होटल वाले या ढाबा वाले से पानी नहीं मांग सकता. अगर मांगा तो तुरंत बीस रुपए की प्लास्टिक पानी बोतल हाजिर, जो अधिकतर मामलों में विशुद्ध नकली होगा. पानी पीना है तो बीस रुपए की बोतल खरीदो. असली या नकली, इसकी कोई गारंटी नहीं.

बचपन में हमलोग चापाकल का पानी पीते रहे, हमारे बुजुर्ग तो कुओं का पानी भी पीते थे. अब भी गांवों में चापाकल सर्वत्र है. लेकिन, विगत ढाई तीन दशकों से पानी के प्रदूषण को लेकर इतनी चिन्ता व्यक्त की गई और ‘मिनरल वाटर’ का इतना महिमा मंडन किया गया कि अब प्लास्टिक में बंद पानी की बीस रुपए वाली बोतल हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी है. किसी ढाबे में खाने बैठो, बिना पूछे वेटर पानी की एक बोतल लाकर रख देगा. बिल में पानी की कीमत भी जोड़ ली जाएगी.

पानी का बाजार निर्मित करने के लिए न जाने कितने जतन किए हैं बाजार के खिलाड़ियों ने. अब वे सारे जतन रंग दिखा रहे हैं. वही जतन चिकित्सा व्यवसायी और शिक्षा व्यवसायी भी कर रहे हैं. बड़े बड़े अखबारों के पहले पन्ने पर पूरे के पूरे पेज में डिजाइनर निजी अस्पतालों के विज्ञापन, निजी विश्वविद्यालयों के विज्ञापन. फोटो देख कर समझ में नहीं आता कि फाइव स्टार होटल है या कोई हॉस्पिटल.

पटना युनिवर्सिटी जैसे संस्थान जहां नैक ग्रेडेशन में बी ग्रेड पा रहे हैं वहीं विज्ञापन के ऊपर में बड़े बड़े हर्फों में निजी विश्वविद्यालय छापते हैं कि उन्हें ए प्लस ग्रेड मिला है. निजी हॉस्पिटल न किसी बीमार की अवस्था देखते हैं, न निजी विश्वविद्यालय किसी छात्र की प्रतिभा. दोनों के दोनों पहले हमारी जेब टटोलते हैं और उनमें घुसने की सबसे पहली शर्त हमारी जेब ही है. तो, कैसा चिकित्सालय, कैसा शिक्षालय ?

हमने अपनी सभ्यता की विकास यात्रा में यही मुकाम हासिल किया. जबकि, होना यह चाहिए था कि चाहे कोई भी अस्पताल हो, कोई भी स्कूल या युनिवर्सिटी हो, उसे जरूरतमंदों के लिए सदैव उपलब्ध रहना था. मुनाफे की होड़ में ऐसे न जाने कितने अस्पताल और शिक्षालय नैतिक रूप से पतित होने का सबूत पेश कर चुके हैं. लेकिन, जमाना उनका है. हजारों करोड़ रुपयों का बाजार निर्मित कर चुके पानी के वैध अवैध व्यापारियों की तो पौ बारह है ही. मानवता इस होड़ में कहीं बहुत पीछे छूट गई है, उसी अनुपात में सभ्यता भी.

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