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संवैधानिक प्रतिरोध की हुंकार.. नाटक ” मैं भी रोहित वेमुला !” का यलगार..

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कोमल खामकर 
जीवन में ऐसे पल बहुत विशेष होते हैं जो हमें भीतर से झकझोरते हैं । जो हमें अंदर से जीवित कर नई उम्मीद, नए सपने, नई आशा, नई अपेक्षा और जीवन को नई दिशा देने के लिए उत्प्रेरित करते हैं । इस सांसारिक जीवन में जीते हुए, हम संसार के हो जाते हैं परंतु संसार को अपना नहीं बना पाते। संसार के चक्र को भेद कर, जो अपने होने का सार विश्व को प्रदान करते हैं वही सृजनकार कहलाते हैं ! 2022 के नए वर्ष में अपनी पहचान, अपनी सृजन साधना, अपनी कलात्मक यात्रा को सतत बरकरार रखते हुए थिएटर ऑफ रेलेवन्स के प्रयोगकर्ताओं , शुभचिंतकों एवं दर्शकों ने रच दिया एक नया इतिहास ! रंगजगत में संवैधानिक प्रतिरोध की हुंकार देने वाला नया नाटक “मैं भी रोहित वेमुला !” का शुभारंभ 4 जनवरी 2022 को पनवेल के यूसुफ मेहेरअली सेंटर में प्रस्तुत हुआ। 


संजय कुंदन लिखित और मंजुल भारद्वाज निर्देशित एवं अभिनीत यह नाटक जातिवादी शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ एक संवैधानिक प्रतिरोध है, अपने मानवीय हकों, अधिकारों की बुलंद आवाज है। न्याय, समता, समानता और विवेक के बल पर खड़ी चेतना की मशाल है, जिसकी लपटें सामंतशाही, वर्णवादी, दमनकारी व्यवस्था के अंधकार को मिटा देती हैं। 
मंजुल भारद्वाज एक अद्वितीय रंगदृष्टा हैं। साधारण तौर पर नाटक किसी मंच या विशेष नेपथ्य की मौजूदगी में प्रस्तुत होता है, लेकिन मंजुल भारद्वाज के निर्देशन में यह विशेषता है की वे अपने अभिनय द्वारा सृजित स्पंदनों से रंगमंच की गरिमा और सौंदर्य को बढ़ाते हैं। जैसे की 4 जनवरी 2022 को ठीक शाम 5 बजे जब सूर्य का प्रकाश नाटक के ध्येयनुसार उपयुक्त था, तब प्रस्तुति की शुरुआत हुई। प्रस्तुति का स्थल भी बहुत विचारपूर्वक चुना गया था “बापू कुटी”। माटी से लिपी हुई जमीन, एक दरवाजा, दो खिड़कियां और एक झरोखे से आता हुआ सूर्यप्रकाश। हालांकि वहां कोई झरोखा है नही परंतु कला का अर्थ ही है अदृश्य को दृष्टिसम्पन्न प्रस्तुत करना और दृश्य से अदृश्य में विलीन हो जाना। जब दर्शक इस दृश्य को देखते हैं तब मध्यरात्रि के समय का एहसास होता है और वह सूर्य प्रकाश किसी सड़क की लाइट भांति नजर आता है। प्रेक्षकों के बीच बैठे एक श्वान का भौंकना किसी सुनसान रात का एहसास दिलाता है। यहां किसी भी कृत्रिम तकनीकी उपयोगिताओं का प्रयोग न करते हुए प्राकृतिक आयामों को आत्मसात किया गया। 


एक काल कोठरी का जीवंत एहसास निर्माण करने के लिए प्राकृतिक तत्वों के साथ जुड़ना, पेड़-पौधे, माटी, सूर्य, हवा, पशु-पक्षी और अपने अंदर की संवेदनाओं की नमी को एकत्र साधना, और उसे सत्व के साथ प्रस्तुत करना एक अविस्मरणीय कलात्मक अनुभव है । मंजुल भारद्वाज सफेद रंग के वस्त्र पहने कैदी की भूमिका में मंच के बीचोंबीच सोए नजर आते हैं, और अचानक एक बुरा सपना देखकर उठ बैठ जाते हैं। सपने में अपना एनकाउंटर होते देख, भयभीत होकर वह युवा अपनेआप से संवाद करने लगता है। उस 6×6 की चौखट ने केवल उसके शरीर को ही नही, उसके जन्मसिद्ध अधिकारों, मानवीय हकों और उसके नाभि से जुड़े  समुदाय को भी कैद किया है। लेकिन इन सब के बावजूद वह उन्मुक्त है क्योंकि उसके विचार, उसकी चेतना, उसकी आवाज़ और संविधान के प्रति उसकी प्रतिबध्दता आज़ाद है। कलाकार के अभिनय में सहजता और वैचारिक स्पष्टता दर्शकों को नाटक से  अधिक जोड़ती है। मंजुल भारद्वाज अपने दर्शकों के साथ इतने सहज और खुलेपन से बात करते हैं कि दर्शक नाटक में समा जाते हैं, और इस कलात्मक यात्रा में अपनी भूमिका खोजने तथा निर्माण करने लगते हैं। 
18 दिसंबर 2021 को मंजुल भारद्वाज ने धनंजय कुमार लिखित “सम्राट अशोक” नाटक में अशोक की भूमिका बड़ी प्रखरता से निभाई। भव्य रूप, अपने शरीर को प्राकृतिक आकार से भी भव्य दर्शाना, बिना किसी सेट या प्रॉपर्टी के विश्व विजयी सम्राट अशोक के काल को अपने कलात्मक तरंगों से सृजित करना और इतिहास को वर्तमान से जोड़कर नए भविष्य का आरंभ करना। अपनी आवाज़ से अहंकार, क्रूरता तथा संविधान सम्मत, न्याय संगत, धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था की स्थापना करना। “सम्राट अशोक” की इस भव्य प्रस्तुति के बाद मात्र 16 दिनों में अपने आप को “कैदी” के रूप में धारण कर, संजय कुंदन लिखित “मैं भी रोहित वेमुला” नाटक प्रस्तुत करना यह कलाकार के निराकार होने की प्रक्रिया है। कैदी की भूमिका में मंजुल भारद्वाज अपने शरीर को इतना सिकुड़ लेते हैं कि दर्शकों के कल्पनाविश्व में 6×6 की काल कोठरी अपने आप निर्माण होने लगती है। घर हो, गांव हो, स्कूल हो, कॉलेज हो, जेल हो या कोर्ट, कलाकार अपनी रंगदृष्टि से अपने जीवन के जो जो पल देखता है दर्शक वही दृश्य अपनी दृष्टि से देखते हैं। इसीप्रकार थिएटर ऑफ रेलेवन्स नाट्य सिद्धांत विगत 29 सालों से अपने दर्शकों में रंगदृष्टि सृजित कर व्यक्ति की रंगचेतना को जागृत कर रहा है।

 


भारत देश विविधता का विधाता है। प्रकृति, अध्यात्म, संवाद, कला और क्रांतिकारी इतिहास इन पंचतत्वों से संपन्न है। भारत देश के अस्तित्व पर जब जब विपदा आई तब उसे बचाने के लिए हरबार एक मोहनदास, भगत, अम्बेडकर, सावित्रीबाई ऐसे असंख्य क्रांतिकारियों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, और आज भी कर रहें हैं। “मैं भी रोहित वेमुला” एक संविधान प्रेमी युवा की कहानी है जिसमें रोहित सिंह नामक युवा अपने आज़ाद विचारों की मशाल लेकर आज़ाद भारत के सपने को साकार करने के लिए लड़ रहा है। नाम चाहे वेमुला हो या सिंह, व्यवस्था ने हमेशा प्रतिरोध को अपना शत्रु माना है। यह नाटक स्वयं का संविधान के लिए समर्पित हो जाने का प्रण है। और थिएटर ऑफ रेलेवन्स के रंगकर्मी अपनी सृजनशीलता से इसी प्रण को साकार कर रहें हैं। 
जीवन चुनौतीपूर्ण है, जीवन का दूसरा नाम संघर्ष है और थिएटर ऑफ रेलेवन्स के कलासाधक संघर्ष को रचनात्मक प्रक्रिया मानकर जीते हैं क्योंकि प्रक्रिया “सतत” होती है, निरंतर उत्क्रांति की ओर ले जाती है। परिवर्तन तभी संभव है जब हम व्यवस्था द्वारा बनाई जड़ता को अपने चेतना से तोड़ कर उन्मुक्त हों और हमारा भारतीय संविधान हमें उसी जड़ता को तोड़ने की ताकत देता है। हम रंगकर्मी “रंग” याने “विचार” का कर्म करने के लिए प्रतिबध्द हैं और अपनी कलासाधना से मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए सतत विचार और विवेक के मार्ग पर चल कर देश और विश्व को बेहतर और मानवीय बनाने के लिए समर्पित हैं । 
हम हैं !
कोमल खामकर (थिएटर ऑफ रेलेवन्स प्रयोगकर्ता एवं रंगकर्मी)

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