अग्नि आलोक
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मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

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मुनेश त्यागी

जो काटे है शम्बूक का सर,
जो चुराए है गोपियों के वसन,
जो करे है सीता का निष्कासन,
जो कराये है कुरुक्षेत्र में अपनों के सर कलम
ऐसे भगवान को, ऐसे कृष्ण राज को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

करता है जो निर्दोषों के कत्ल,
भरता है जो जहनों में जहर ,
जलाता है जो बेगुनाहों के घर ,
ढहाता है जो बेकसूरों पै कहर,
ऐसे तालिबां राज को, ऐसे रामराज को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता ।

जो करता है इजाफा अदावत में ,
जो घोले हैं रिश्वत अदालत में,
जो मनाए हैं खुशियां गिरावट में,
जो घोले हैं जहर मुस्कुराहट में,
ऐसे दुष्कर्म को ,ऐसे पाप कर्म को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

हडपती है जो दूसरों के हक ,
करती है जो अपनों पर ही शक,
जहां इंसान में हो शैतान की झलक,
जो पाले है सितम, करती है जुलम,
ऐसी विकृति को, ऐसी संस्कृति को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

नारों में जिनके दहशत है,
कामों में जिनके वहशत है ,
मक्कारी में जिनकी नफासत है,
छल कपट ही जिनकी सियासत है,
ऐसी सियासत को, ऐसी विरासत को,
मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

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