शशिकांत गुप्ते
चुनाव की नाव में सवार होने के लिए नाव की क्षमता से यात्री कतार में हैं।
एक अनार सौ बीमार वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।
दाल उसी की गलेगी जिसका चयन देश की राजधानी से होगा।
राजनैतिक दलों की स्थिति समाज जैसी हो गई है। जिस तरह समाज को विभिन्न जातियों में बांट कर जाति के भी उपजाति में भी उन्नीसा बीसा तक पहुँच गई है। राजनीति में एक ही दल में विभिन्न गुट सक्रिय हो गए हैं।
आम कार्यकर्ता की स्थिति इस गीत की पैरोडी जैसी हो गई है।
हम प्यार में जलनेवालों को
चैन कहाँ, हाय, आराम कहाँ
सन 1958 में प्रदर्शित फ़िल्म जेलर गीतकार राजेन्द्र कृष्ण
हम झंडा उठाने वालों को
चैन कहाँ आराम कहाँ
पहले हम बिछाते थे दरियां
अब लगवाते है ठेकेदार से कुर्सियां
बहलाये जब दिल ना बहले तो ऐसे बहलाये
गम ही तो है प्यार की दौलत ये कहकर समझायें
चुनाव की नाव में जो सवार होगा उसकी जय जय कार करना है।
दल की नीतियां कितनी भी लोकलुभावन हो, लेकिन आम कार्यकर्ता की नियति यही है।
राजनीति की अंधियारी मंज़िल में,
चारो ओर सिहायी
आधी राह में रुक जाए इस मंज़िल का राही
कांटो पर चलने वालों को चैन कहाँ आराम कहाँ
चुनाव की नाव में सवार होने के लिए देश की राजधानी स्थित हाई कमान से स्नेहाशीष प्राप्त करने का सामर्थ्य हो। बहुत से तात्काल टिकिट प्राप्त करने में समर्थ होतें हैं। तात्काल टिकिट में टिकिट के तय शुल्क के अतिरिक्त अति शुल्क देने पर सहर्ष टिकिट प्राप्त हो जाता है।
यदि इतना सामर्थ्य हो तो देश राजधानी से सीधे उड़नखटोले पर सवार होकर चुनाव की नाव में सवार हो सकतें हैं।
संत तुलसीबाबा ने रामचरितमानस में लिखा है।
समरथ को नहिं दोष गोसाई ।रवि. पावक सुरसरि की नाईं ।।
जो सामर्थ्य वान ,सशक्त है उनका हर काम सही होता है, उनका दोष नहीं माना जाता।जैसे सूर्य ,अग्नि और गंगा का दोष नहीं माना जाता है ।इस चौपाई को निम्नलिखित के संदर्भ मे देखिए ।
भानु ,कृशानु सर्व रस खाँहीं
तिन कँह मन्द कहत कोउ नाँहीं
सूर्य और अग्नि सब प्रकार के रस को ग्रहण करते हैं अर्थात मैँला का रस (नमी)भी ग्रहण कर लेते हुए भी हीन नहीं कहे जातें हैं और पूजनीय हैं ।इसलिए समर्थ का दोष नहीं गिना जाता ।गंगा के संदर्भ मे भी यही लागू होता है ।सारे कूड़े कचरे के ग्रहण करने के बाद भी गंगा को पवित्र और पूजनीय माना जाता है।
यह सामर्थ्यवान का कोई दोष नहीं है। इसे सियासी भाषा में इसतरह कह सकतें हैं। सामर्थ्यवान कभी भी दोषी हो ही नहीं सकता है।
बेचारा आम कार्यकर्ता भावनाओं में बहतें हुए। चुनाव के नाव में सवार को चुनावी वैतरणी पार करने के लिए प्रचार सामग्री और नारों की पतवार थाम खेवनहार बनने के लिए अभिषप्त है।
आम आदमी भगवान भरोसे होता है, और खास ऐनकेनप्रकारेण भरोसा जीतने सक्षम होता है। कारण आम तो बेचारा प्रदेश की राजधानी तक जाने की क़ूवत नहीं रखता है। खास आए दिन वायुयान से देश की राजधानी के चक्कर लगाने में समर्थ होता है।
इतना लिखा हुआ पढ़कर सीतारामजी ने पूछा यह तो राजनैतिक दलों की कार्य प्रणाली का विश्लेषण है।
मुख्य मुद्दा है। चुनाव के नतीज़ों के बाद आमजन को क्या मिलेगा? सिर्फ विज्ञापनों में प्रकाशित और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रसारित प्रलोभन युक्त वादों के झुनझुने जिनका सियासी नाम जुमला है।
सीतारामजी ने अंत में कहा प्रख्यात समाजवादी,गांधीजी के सच्चे अनुयायी आदिवासियों के मसीहा, स्वतन्त्रता सैनानी स्व.मामा बलेश्वरदयाल कहतें थे। सिर्फ लोकलुभावन नीति से प्रभावित नहीं होना चाहिए। नीतियों को लागू करने की नीयत है या नहीं इस पर बहस करना चाहिए। नहीं तो हर बार की तरह अबकी बार अबकी बार के चक्कर में निम्न कहावत चरितार्थ न हो?
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत
शशिकांत गुप्ते इंदौर