विजय विनीत
उत्तर प्रदेश के ज्ञानवापी मस्जिद में मिले कथित शिवलिंग के मामले को जिस तरह से तूल दिया जा रहा है उससे बनारस ही नहीं, समूचे देश में खतरनाक वितंडा खड़ा हो गया है। बड़ा सवाल यह खड़ा हुआ है कि ज्ञानवापी मस्जिद में मिला कथित शिवलिंग अगर असली है तो पिछले ढाई सौ साल से जिस शिवलिंग की पूजा की जा रही है आखिर वह क्या है?
बड़े जोर-शोर से दावा किया जा रहा है कि मुगल शासक औरंगज़ेब आतातायी था। उसने ही काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर उसके ऊपर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण कराया। अगर यह तथ्य सही है तो बनारस के ऐतिहासिक कला भवन की गैलरी में बनारस के मंदिरों और पुजारियों के संरक्षण के बाबत औरंगज़ेब के फरमान का जो दस्तावेज मौजूद है वह जाली है, फर्जी है ?
ज्ञानवापी मस्जिद से जुड़े सवालों का जवाब ढूंढने के लिए ‘न्यूज़क्लिक’ के लिए बनारस में ऐसे लोगों से सीधी बात की, जिन्होंने अपना बचपन इसी धार्मिक स्थल पर गुजारा। कभी पतंग उड़ाते तो कभी गुल्ली डंडा खेलते। इन्हीं में एक हैं पौराणिक महत्व वाले काशी करवत मंदिर के महंत गणेश शंकर उपाध्याय। काशी करवत मंदिर ज्ञानवापी मस्जिद से चंद कदम ही दूर है। मस्जिद के पश्चिमी दिशा में महंत का आवास है। 50 वर्षीय गणेश शंकर का बचपन इसी ज्ञानवापी मस्जिद में खेलते-कूदते गुजरा है।
काशी करवत मंदिर के महंत पं.गणेश शंकर उपाध्याय कहते हैं, “मस्जिद में आने वाले मुसलमानों के वजू करने के लिए जिस छोटे तालाब में भगवान विश्वेश्वर का कथित शिवलिंग बताया जा रहा है वह बात सरासर झूठी है। श्रृंगार गौरी के पूजा-प्रार्थना के बहाने इसे योजनाबद्ध ढंग से मंदिर-मस्जिद का मुद्दा बनाया जा रहा है और इस मुद्दे को बेवजह तूल दिया जा रहा है। हम बचपन से देखते आ रहे हैं कि यहां कभी कोई शिवलिंग नहीं था। वैसे भी वजू के स्थान पर शिवलिंग होने का कोई औचित्य नहीं है।
हालांकि महंत गणेश शंकर का मानना है कि मस्जिद के स्थापत्य को देखकर कोई भी कह सकता है कि ज्ञानवापी पहले मंदिर रहा होगा। मस्जिद में मंदिर शैली के खंभे लगे हैं, जिससे यह माना जा सकता है कि कालांतर में यह भगवान विश्वेश्वर का मंदिर रहा होगा। लेकिन हमें यहां न कभी कोई शिवलिंग दिखा और न ही तहखाना। मस्जिद के आगे के हिस्से के पहली मंजिल पर किसी देवी-देवता का विग्रह होना अविश्वनीय है।”
शिवराज बनाम फव्वारा !
बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब का हवाला देते हुए महंत पंडित गणेश शंकर उपाध्याय बताते हैं, "आजाद भारत में साल 1992 के पहले यहां मंदिर-मस्जिद का कोई विवाद नहीं था। मुझे आज भी याद है कि हम लोग बड़े आराम से ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में खेलने के लिए जाया करते थे। हमारे दादा गुरुजी के यहां अक्सर ज्ञानवापी मस्जिद के मौलवी भी आते रहे हैं। हमारे आवास का हिस्सा भी मस्जिद के चंद फासले पर है। ज्ञानवापी का मुद्दा तब उठा जब आयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी गई। हमें अपना बचपन आज भी याद आता है। हमारे पूर्वज बताते थे कि ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर विवाद और मुकदमें के बावजूद दोनों संप्रदायों के बीच बहुत गहरा सामंजस्य था। मस्जिद के कुछ ऐसे हिस्से थे, जिसे मुसलमानों ने हिन्दू पुजारियों को रहने के लिए दिया था। "
"अनगिनत मर्तबा हम ज्ञानवापी मस्जिद में गए हैं। हमने तालाब में मछलियों को चारा भी खिलाया है। जिस जगह भगवान विश्वेश्वर का शिवलिंग होने का दावा किया जा रहा है, वह तालाब के बीचो-बीच बना एक मामूली, मगर पुराना फव्वारा है। इस फव्वारे को हम ऐतिहासिक कह सकते हैं, लेकिन शिवलिंग नहीं। फव्वारे को जो लोग शिवलिंग बताकर वितंडा खड़ा कर रहे हैं वह बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब के हिमायती नहीं, सिर्फ स्वार्थी हैं। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां कभी ऐसा विवाद खड़ा होगा। पहले कितना भाई-चारा और अच्छा माहौल था, जो अब सपना हो गया है। "
औरंगजेब का फरमान !
हिन्दूवादी नेता और तमाम इतिहासकार इन दिनों यह दावा करते घूम रहे हैं कि मुगल शासक औरंगज़ेब आततायी था। अगर यह सच है तो इतिहास के पन्नों से उन भ्रांतियों को भी दूर किया जाना जरूरी है जो बनारस के काशी हिन्दू विश्व विद्यालय परिसर के कला भवन की गैलरी में सनद के तौर पर मौजूद है। औरंगज़ेब का एक दुर्लभ फरमान बीएचयू भारत कला भवन के पास आज भी मौजूद है। इस आर्ट गैलरी की निदेशक डा. जसविंदर कौर के मुताबिक, "औरंगज़ेब द्वारा जारी फ़ारसी भाषा का फरमान इस बात का संकेत करता है कि औरंगज़ेब को ब्राह्मणों के प्रति काफी लगाव था। उस समय बनारस का दीवान अबुल हसन था, जिसको औरंगज़ेब ने मंदिर और पुजारियों की हिफाजत के बाबत फरमान जारी किया था, जिस पर मुगल शासन की शाही मुहर भी लगी हुई है। कला भवन में इसका हिन्दी रुपांतरण भी मौजूद है। "
औरंगज़ेब ने वाराणसी में तैनात अपने सिपहसलार को संबोधित करते हुए फारसी भाषा में जो फरमान जारी किया था इस प्रकार है, "अब्दुल हसन को यह जानकारी हो...हमारे धार्मिक कानून द्वारा यह निर्णय किया गया है कि पुराने मंदिर न तोड़े जाएं एवं नए मंदिर भी न बनाए जाएं। इन दिनों हमारे आदर्श और पवित्र दरबार में यह खबर पहुंची है कि कुछ लोग द्वेष एवं वैमनस्यता के कारण बनारस और उसके आसपास के क्षेत्रों में कुछ ब्राह्मणों को परेशान कर रहे हैं। साथ ही मंदिर की देखभाल करने वाले ब्राह्मणों को उनके पदों से हटाना चाहते हैं, जिससे उस संप्रदाय में असंतोष पैदा हो सकता है। इसलिए हमारा शाही आदेश है कि फरमान के पहुंचते ही तुम्हें यह चेतावनी दी जाती है कि भविष्य में ब्राह्मणों और अन्य हिन्दुओं को किसी तरह के अन्याय का सामना न करना पड़े। इस प्रकार से सभी शांतिपूर्वक अपने व्यवसायों में लगे रहें एवं हमारे अल्लाह द्वारा दिए गए साम्राज्य जो हमेशा बरकरार रहेगा ,में पूजा-पाठ करते रहें। इस पर शीघ्रातिशीघ्र विचार होना चाहिए। "
औरंगजेब की हुकूमत के दस्तावेजों के मुताबिक बनारस के मंदिरों और पुजारियों को लेकर मुगल शासक औरंगज़ेब का शाही फरमान 15 जुम्द-स-सनिया हिजरी 1069 मतलब 1658-59 ईसवी में जारी किया गया था । भारत कला भवन में सिर्फ औरंगज़ेब का ऐतिहासिक दस्तावेज ही नहीं, जेम्स प्रिन्सेप द्वारा 1822 ईस्वी में बनाया गया दुर्लभ नक्शा भी मौजूद है, जो उस समय के बनारस के स्थिति को दर्शाता है। यहां बनारस की कंपनी शैली में बनी तमाम ऐसी पेंटिंग्स भी मौजूद हैं जो दुनिया भर में मशहूर हैं। मुगल शासन में भारतीय कलाकार राजाओं को पेंटिंग बनाने का हुनर भी सिखाया करते थे। मुग़ल स्कूल घराने के चित्रकार मूलचंद की दुर्लभ पेंटिंग भारत कला भवन में ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में मौजूद है। "
बनारस के महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के इतिहास विभाग के अध्यक्ष रहे प्रोफेसर परमानंद सिंह ने 17 सितंबर 2005 को ‘दैनिक जागरण ’ के वाराणसी संस्करण में औरंगज़ेब के फरमान पर एक आलेख में कहते हैं, "औरंगज़ेब ईमानदार शासक था, लेकिन उसके बारे में अनेक गलतफहमियां हैं, क्योंकि वह जिद्दी स्वभाव का था। वह शाही खजाने से अपने व्यक्तिगत खर्च और भोजन के लिए धन नहीं लेता था। औरंगज़ेब एक अच्छा कलाकार भी था। वह टोपी बनाता था और उसे बेचने पर जो आमदनी होती थी उसी से अपना खर्च चलाता था। "
बनारस के कई इतिहासविद तो यह भी बताते हैं कि औरंगज़ेब कुरान की आयतों को कागज पर लिखता था और उससे होने वाली आय से भी वह अपनी निजी जरूरतों को पूरा करता था। वह मंदिरों के रख-रखाव के साथ उनके पुजारियों के लिए अपने पास से वेतन भी देता था।
औरंगज़ेब का जन्म 03 नवंबर, 1618 को दोहाद में अपने दादा जहांगीर के शासनकाल में हुआ था। उसने 15 करोड़ लोगों पर करीब 49 साल तक राज किया। उसके शासन के दौरान मुग़ल साम्राज्य इतना फैला कि पहली बार उसने करीब पूरे उपमहाद्वीप को अपने साम्राज्य का हिस्सा बना लिया। यह ग़लतफ़हमी है कि औरंगज़ेब ने हज़ारों हिंदू मंदिरों को तोड़ा। ज्यादा से ज़्यादा कुछ दर्जन मंदिर ही उनके सीधे आदेश से तोड़े गए। उसके शासनकाल में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे हिंदुओं का नरसंहार कहा जा सके। वास्तव में औरंगज़ेब ने अपनी सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों पर हिंदुओं को आसीन किया। औरंगज़ेब का भाई दारा शिकोह मुग़ल साम्राज्य को चलाने अथवा जीतने की क्षमता नहीं रखता था। भारत के ताज के लिए चारों भाइयों में संघर्ष के दौरान बीमार सम्राट के समर्थन के बावजूद दारा शिकोह अपने भाई औरंगज़ेब की राजनीतिक समझ और तेज़तर्रारी का मुकाबला नहीं कर पाया। "
पत्रकार राजकुमार सोनकर कुंवर कहते हैं, "अगर सभी मुस्लिम शासक आततायी होते तो 800 बरस में सिर्फ मस्जिदें ही रह जातीं ! फिर तो कोई मंदिर बचता ही नहीं ! अगर मुगल गलत मानसिकता के होते और गलत तरीके शासन किए होते तो अपना सेनापति हमेशा हिन्दू ही क्यों रखते ? राजनीति के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों को हमेशा लड़ाया जाता रहा, क्योंकि नफरत की आड़ में कोई भी आसानी से आस्था और ईमान की चादर ओढ़ सकता है। नीयत साफ होती और मामला सिर्फ श्रृंगार गौरी के दर्शन-पूजन तक सीमित होता तो इस मामले को सुनियोजित तरीके से ज्ञानवापी मस्जिद-मंदिर के विवाद में नहीं बदला गया होता। सच तो यही है कि आरएसएस,भाजपा और उसके अनुसांगिक संगठनों ने मीडिया के साथ मिलकर इस मामले को सनसनीखेज बना दिया है। जिस तरह के उपासना कानून का माखौल उड़ाया जा रहा है उससे कुछ न्यायविदों की भूमिका भी सवालों के घेरे में आ गई है। आज जरूरत इस बात की है हम मोहब्बत पैदा करें और अच्छा इनसान बनने कोशिश करें। "
नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित चिंतक एवं जाने-माने लेखक डाक्टर राम पुनियानी के मुताबिक, "इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन से हमें यह पता चलता है कि राजाओं का लक्ष्य सत्ता और संपत्ति था। अंग्रेजों ने सांप्रदायिक इतिहास लेखन के जरिए राजाओं को उनके धर्म से जोड़ा। इस कुटिल चाल के जरिए मुस्लिम शासकों की हरकतों के लिए आज के मुसलमानों को दोषी ठहराया जा रहा है। ब्रिटिश काल से जारी अनवरत प्रचार का ही यह नतीजा है कि आम लोगों की निगाह में मुस्लिम राजा मंदिरों के ध्वंस और इस्लाम में धर्म परिवर्तन के प्रतीक बन गए हैं। यह दावा कि मुस्लिम शासकों ने देश में अनेक मंदिर ढहाए थे। इस बात को इतनी मर्तबा दुहराया गया कि लोग उसे ध्रुव सत्य मानने लगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुस्लिम राजाओं ने मंदिर गिराए, लेकिन हिन्दू राजा भी मंदिर गिराने में पीछे नहीं थे। सोमनाथ मंदिर के ध्वंस को महमूद गजनी से जोड़ा जाता है, लेकिन उसने धार्मिक कारणों से सोमनाथ पर हमला नहीं किया था। उसका उद्देश्य मंदिर की अथाह संपत्ति लूटना था ! "
डाक्टर राम पुनियानी के मुताबिक, "मुस्लिम राजाओं का दानवीकरण और उनके प्रति नफरत ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और हिंसा का आधार है। यही नफरत और ध्रुवीकरण अब संघ परिवार का प्रमुख हथियार हैं। आज स्थिति यह बन गई है कि शाखाओं, स्कूलों और मीडिया संस्थानों के अपने जाल के जरिए सांप्रदायिक संगठनों ने मुस्लिम राजाओं पर मंदिरों के विध्वंसक होने का ठप्पा लगा दिया है। हालात यह हो गई है कि तर्क और तथ्यों की बात करने वालों को अजीब निगाहों से देखा जाने लगा है ! "
‘स्क्रिप्टेड प्लान ‘ है ज्ञानवापी मुद्दा !
ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि व शाही ईदगाह का एक-दूसरे के अगल-बगल में होना हमारी वास्तविक संस्कृति को दर्शाता है। भारत में हिन्दू और मुसलमान सदियों से मिल-जुलकर रहते आए हैं और एक-दूसरे के त्योहारों पर खुशियां मनाना उनके जीवन का अंग रहा है। बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "ज्ञानवापी का मुद्दा अयोध्या की तरह ही ‘स्क्रिप्टिड प्लान ’ है। जिस तरह से अयोध्या में रामलला मिल गए थे,उसी तरह फव्वारे के रूप में इन्हें भगवान विश्वेश्वर भी मिल गए हैं ! कोर्ट के आदेश पर विवादित हिस्से को सील कर दिया गया है और मौके पर फोर्स तैनात कर दी गई है। अब मुकदमा चलता रहेगा और सियासत अपना सफर तय करती रहेगी। अगर किसी को नुकसान होगा तो उन गरीबों और मजलूमों का होगा जो रोज कमाते हैं, तभी उनके घरों का चूल्हा जलता है !
ज्ञानवापी विवाद का जलजला उठेगा तो नुकसान बनारस के पर्यटन उद्योग और अम्नो-अमान का होगा। कोरोनाकाल के बाद बनारस के पर्यटन ने अभी सांस लेना शुरू किया था। स्थितियां ऐसी बनती जा रही हैं कि पर्यटन और बनारसी साड़ी उद्योग का दम ही घुट जाएगा। अयोध्या कांड ने देश को जिस जलजले में डाल दिया था, लगता है कि उसे फिर दोहराने के लिए जाहिलाना कवायद शुरू हो गई है। "
प्रदीप कहते हैं, "ज्ञानवापी मस्जिद के फव्वारे पर शिवलिंग होने का मुल्ल्मा चढ़ाने वालों को इस सवाल का जवाब तो देना ही पड़ेगा कि अगर ज्ञानवापी के वजूखाने में फव्वारा और उसकी हौदी ही असली विश्वेश्वर भगवान का शिवलिंग है तो जिस शिवलिंग की पूजा सालों से हो रही है वह क्या नकली है ? आखिर यह कैसा दौर चल रहा है कि जो जितना जोर से बोलेगा वही सच माना जाएगा, बाकी सब मिथ्या। आखिर यह जानने कि किसे फुर्सत है कि असली शिवलिंग कहां है ? हमें लगता है कि बनारस की हर गली में ऐसे फर्जी वैज्ञानिकों की भरमार हो गई है जो चिल्ला-चिल्लाकर मिल गया-मिल गया... का शोर मचा रहे हैं। हैरत की बात यह है कि नव इतिहासकार, मीडिया और अदालतें भी जाने-अनजाने इसी शोर का हिस्सा बनती जा रही हैं। देश महंगाई और बेरोजगारी के भीषण संकट से जूझ रहा है, जिसका निदान ढूंढने की कोशिश नहीं की जा रही है। ढूंढा जा रहा है तो शिवलिंग, जिसके चक्रव्यूह में उलझकर देश खतरे की कगार पर खड़ा होता जा रहा है। "
- बनारस के वरिष्ठ पत्रकार श्री विजय विनीत जी, संपर्क - अनुपलब्ध
संकलन -निर्मल कुमार शर्मा, 'गौरैया एवम पर्यावरण संरक्षण तथा पत्र-पत्रिकाओं में वैज्ञानिक, सामाजिक, पर्यावरण तथा राजनैतिक विषयों पर सशक्त व निष्पृह लेखन ',प्रताप विहार,गाजियाबाद, उप्र,पि