डॉ. विकास मानव
भीड़ कहती है कि जीवन में सत्य को पाने की क्या जरूरत है? जीवन इतना छोटा है कि उसमें सत्य को पाने का श्रम क्यों उठाया जाए? जब दुनियादारी के सुखों से आनंद उपलब्ध होता है, तो ऐसे ही जीवन को बिता देने में क्या भूल है?
महत्वपूर्ण मुद्दा है। अनेक लोगों के मन में यह विचार उठता है कि सत्य को पाने की जरूरत क्या है? यह प्रश्न इसीलिए उठता है कि उन्हें इस बात का पता नहीं है कि सत्य और भौतिक आनंद दो बातें नहीं हैं।
सत्य उपलब्ध हो तो ही जीवन में वास्तविक आनंद उपलब्ध होता है। परमात्मा उपलब्ध हो तो ही जीवन में आनंद उपलब्ध होता है। आनंद, परमात्मा या सत्य एक ही बात को कहने के अलग-अलग तरीके हैं।
तो इसको इस भांति न सोचें कि सत्य की क्या जरूरत है? इस भांति सोचें कि आनंद की क्या जरूरत है?
आनंद की जरूरत तो पूछने वाले को भी मालूम पड़ती है। लूट खसोट ऐयासी में लोगों को आनंद दिखाई पड़ता है। यहां एक और दूसरी बात समझ लेनी जरूरी हैः दुख को भूल जाना आनंद नहीं है।
संगीत, सिनेमा, नशा, समारोह या उस तरह की और सारी व्यवस्थाएं केवल दुख को भुलाती हैं, आनंद को देती नहीं। ड्रग्स भी दुख को भुला देती है और सेक्स भी।
दुख को भूल जाना एक बात है, और आनंद को उपलब्ध कर लेना बिलकुल दूसरी बात। एक आदमी दरिद्र है और अपनी दरिद्रता को भूल जाए, यह एक बात है; और वह समृद्ध हो जाए, यह बिलकुल दूसरी।
दुख को भूलने से सुख का भान पैदा होता है। सुख और आनंद इसीलिए अलग-अलग बातें हैं। सुख केवल दुख का विस्मरण है, फाॅरगेटफुलनेस है। आनंद, आनंद किसी चीज की उपलब्धि है, किसी चीज का स्मरण है। आनंद पाजिटिव है, सुख निगेटिव है।
एक आदमी दुखी है तो इस दुख से हटने के दो उपाय हैं। एक तो उपाय यह है कि वह किसी चीज में इस भांति भूल जाए कि इस दुख की उसे याद न रहे। वह गीत संगीत सेक्स वेगैरह में इतना तन्मय हो जाए कि उसका चित्त दुख की तरफ न जाए, तो उतनी देर को दुख उसे भूला रहेगा। लेकिन इससे दुख मिटता नहीं है। जैसे ही चित्त वापस लौटेगा, दुख अपनी पूरी ताकत से पुनः खड़ा हो जाएगा।
जितनी देर व्यक्ति अपने को भूले था, उतनी देर भी भीतर दुख बढ़ता जा रहा था। भीतर सरक रहा था, दुख और बड़ा हो रहा था। जैसे ही बाहरी इंतजाम से मन हटेगा, दुख और भी दुगने वेग से सामने खड़ा हो जाएगा।
फिर उसे भूलने की जरूरत पड़ेगी। तो शराब है,और दूसरे रास्ते हैं जिनसे हम अपने चित्त को बेहोश कर लें। ये बेहोशी आनंद नहीं है।
सच्चाई तो यह है जो आदमी जितना ज्यादा दुखी होता है, उतना ही स्वयं को भूलने के रास्ते खोजता है। दुख से ही यह एस्केप और पलायन निकालता हैै।
दुख से ही भागने की और कहीं डूब जाने की , मूच्र्छित हो जाने की आकांक्षा पैदा होती है। आपको पता है, सुख से कभी कोई भागता है?
दुख से लोग भागते हैं। अगर आप यह कहते हैं कि भौतिकता में बहुत सुख मिलता है, तो जब आप इसके नशे में नहीं होते होंगे तब क्या मिलता होगा? तब निश्चित ही दुख मिलता है।
बाहरी नौटंकी से दुख की धारा तो भीतर सरकती रहेगी। जितने ज्यादा दुखी होंगे, उतना ही ज्यादा भौतिकता में सुख मिलेगा। जो सच में आनंदित है उसे इन सबसे तो शायद कोई सुख नहीं मिलेगा।
यह जो हमारी दृष्टि है कि इसी तरह हम अपना पूरा जीवन क्यों न बिता दें मूच्र्छित होकर, भूल कर! तब तो उचित है : एक आदमी सोया रहे जीवन भर।
जीवन भर सोना कठिन है तो जीने की जरूरत ही क्या है? एक आदमी मर जाए और कब्र में सो जाए तो सारे दुख भूल जाएंगे। इसी प्रवृत्ति से सुसाइड की भावना पैदा होती है।
इसी प्रवृत्ति से आदमी अगर अपने तर्क की अंतिम सीमा तक पहुचं जाए तो वह कहेगाः जीने की जरूरत क्या है? जीने में दुख है तो मैं मरे जाता हूं। मैं मर जाता हूं। तो फिर उस मृत्यु से वापस लौटने की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती।
यह सब सुसाइडल वृत्तियां हैं। जब भी हम जीवन को भूलना चाहते हैं, तब हम आत्मघाती हो जाते हैं।
जीवन का आनंद उसे भूलने में नहीं, उसे उसकी परिपूर्णता में जान लेने में हैं।
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