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खुश रहना है तो खोलें अपनी मनोग्रंथियां 

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       डॉ. विकास मानव 

    मन में बैठी हुई परेशानी यदि बाहर आ जाए तो मन हलका हो जाता है, लेकिन यदि वही परेशानी मन की चहारदीवारी में कैद होकर रह जाए तो उसका मन पर कैसा असर होगा ? उसका क्या परिणाम होगा? किस तरह का मनोरोग उससे पनपेगा ? उसके घाव मन पर कितने गहरे होंगे ? कहा नहीं जा सकता।

    मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो मन की स्मृतियों के तहखाने में न जाने कितनी कड़ुई बातें, गांठें और पीड़ाएं कैद रहती हैं। अगर कोई बात खुशी की होती है, तो वह दूसरों के साथ साझा हो जाती है, मन में उभरकर आती है, लेकिन मन का दरद, तिरस्कार, उपेक्षा जैसी बातें संकोचवश न तो उभरती हैं और न ही इन्हें उभरने का मौका दिया जाता। 

      ये सब बरसों तक मन के तहखाने में जमी रहती हैं और इनके कारण हमें पता ही नहीं चल पाता कि कब हमारी स्वाभाविक हँसी-खुशी छिन गई और हमारा मन बीमार हो गया। अतः यह जरूरी है कि समय-समय पर अपने मन की बातों को, मन की गाँठों को खोला जाए।

    जिस तरह से खाना यदि बासी हो जाए, पुराना हो जाए, तो वह रखे रखे यों ही खराब हो जाता है, उसी तरह से यदि हमारे मन में, दिल में किसी के प्रति कोई गिला- शिकवा है, किसी तरह की कोई मनोग्रंथि है, मन में कोई ऐसी बात दबी हुई है, कोई ऐसी गाँठ मन में पड़ गई है, जिससे हम बाहर नहीं निकल पा रहे हैं, तो धीरे-धीरे मन में दबी हुई वह गाँठ नासूर बन जाती है। 

     तब यह हमें निरंतर पीड़ा देती है और फिर इसका इलाज करना भी बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए हमें यह जानना जरूरी है कि हमारे मन में जो गाँठें बसी हुई हैं, वे किस तरह की हैं? वे क्या हैं? गुस्सा, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, बैर, अपमान, अवहेलना, उपेक्षा, आत्महीनता, असुरक्षा आदि में से उन गाँठों की प्रकृति क्या है?

    मनोविशेषज्ञों का कहना है कि अपने अंदर गुस्सा रखना बेहद खतरनाक होता है। इसलिए जब-जब आप कुंठित हों, गुस्से में हों, तो शांत रहें। आप ठंढा पानी पिएँ। अपने अंदर की पीड़ा को मुक्त करने के बाद आप पाएँगे कि आपकी कई बीमारियों का असर कम हो गया है।

    मन को हलका करने के लिए अपने मन की पीड़ा को आवाज देना और गुस्से को अभिव्यक्त करना जरूरी है। ‘हील योर इनर वुंड्स’ पुस्तक के लेखक एबी वाइन जो कि एक मनोचिकित्सक और एनर्जी हीलर हैं, इस क्षेत्र में लंबे समय से काम कर रहे हैं, उनका कहना है कि आप अगर अंदर से हलके और साफ नहीं होंगे तो बाहर चाहे कितना भी साफ-सफाई से रहने का प्रयास क्यों न कर लें, लेकिन मानसिक और शारीरिक तौर पर आप बीमार रहेंगे।

    अपने मन को साफ करने का उदाहरण देते हुए उनका कहना है कि जब आप बच्चे होते हैं, तो बिना संकोच रोते हैं, गुस्सा निकालते हैं, लेकिन जैसे-जैसे आप बड़े होते जाते हैं; वैसे-वैसे आप अपनी भावनाओं की स्वतः अभिव्यक्ति करने में रोक लगा देते हैं और उन्हें दबाकर मन के किसी कोने में रख लेते हैं। धीरे-धीरे मन की स्वतः अभिव्यक्ति को दबाने की कला में, अपने जज्बातों को अपने अंदर ही रखने की कला में पारंगत हो जाते हैं, उन्हें किसी से साझा नहीं करते, जिसका परिणाम अच्छा नहीं होता।

    पिछले ही दिनों कनाडा के ओटेरियो यूनिवर्सिटी में हुए एक अध्ययन के अनुसार- कुंठा व तनाव के लगभग 64 प्रतिशत मरीजों का यह मानना था कि उन्हें इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि उनकी खास बीमारी की वजह उनके अंदर दबा गुस्सा हो सकता है। । यह गुस्सा दूसरों की वजह से शुरू होता है और अंततः इसे व्यक्ति अपने ही ऊपर निकालने लगता है, इसके प्रमाण भी वहाँ मौजूद थे। जिसमें कुछ मामलों में मरीजों ने इस गुस्से के कारण अपने आप को नुकसान भी पहुँचाया था।

    मनोविशेषज्ञों के अनुसार लोगों को यह पता ही नहीं होता कि उन्होंने अपने मन में क्या-क्या भर रखा है। इसलिए यह जरूरी है कि अपने आप को जानें। अगर कोई पुरानी बात मन में बार-बार उभरकर आ रही है, तो उसे अन्यथा न लें, बल्कि उस घटना से संबंधित व्यक्ति को माफ करें, स्वयं को भी माफ करें और अपने मन को उस मनोग्रंथि के बोझ से हलका करें।

    अपने मन की मनोग्रंथियों को खोलने के कई व्यावहारिक तरीके भी हैं, जैसे- अपने परिवारवालों, दोस्तों या विश्वसनीय लोगों से खुलकर बात करना। ऐसा करने मात्र से लोग यह पाएँगे कि उनका मन हलका हुआ, बहुत दिनों से मन में जो बात दबी हुई थी, वह किसी-न-किसी माध्यम से बाहर निकली। बातचीत के दौरान यह भी पता चलता है कि मन में जो गाँठें बनी हुई हैं, उनका कोई अर्थ नहीं है। जिंदगी में सबके साथ अच्छा या बुरा होता है। इसे नकारात्मक दृष्टि से नहीं, बल्कि सकारात्मक दृष्टि से देखने की जरूरत है।

    अपने आप से बातें करना भी मन को हलका करने में सहायक होता है। इसके लिए अकेले ही कहीं घूमने चले जाएँ और एकांत में उन दिनों व स्थितियों के बारे में सोचें, जिनकी वजह से खुद को पीड़ा हुई। फिर जिनके कारण मन दुःखी और मन को पीड़ा हुई, उन्हें माफ करते हुए इन मनोग्रंथियों से मुक्त हो जाएँ।

    मन को मनोग्रंथियों से मुक्त करने के लिए अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति जरूरी है। यदि यह व्यावहारिक तौर पर नहीं हो सकती, तो इसे कागज पर लिखा जा सकता है और इनसे अपना पीछा छुड़ाया जा सकता है। अतीत की बातें हमारा पीछा नहीं छोड़तीं, लेकिन हमें यह समझना भी जरूरी है कि कुछ चीजों को बदलना हमारे हाथ में नहीं है। वर्तमान समय हमारे साथ है और भविष्य सामने। इसे ही सुधारने व सँवारने की जरूरत है।

    जिन वजहों से व जिन लोगों से व जिन परिस्थितियों से मन में गुस्सा व तनाव आता है, मन को परेशानियों का सामना करना पड़ता है, उनसे दूरी बनाना भी मन को मनोग्रंथियों से बचाने का एक उपाय है और यदि यह दूरी बनाना संभव न हो, तो अपनी सहनशीलता व सामंजस्यता को विकसित करना भी मन को उन दबावों व पीड़ाओं से उबारने में मदद करता है, जो मन में मनोग्रंथियाँ पैदा करते हैं।

    मन में यदि पीड़ा हो, कसक हो, तो वह किसी-न- किसी रूप में उभरती जरूर है, चाहे वह सपनों के माध्यम से हो या आक्रोशित व्यवहार के माध्यम से या कठोर शब्दों के माध्यम से। मन की यह पीड़ा तो किसी भी माध्यम से बाहर निकल जाती है, लेकिन अचानक किसी भीषण रूप में इसका बाहर निकलना अन्य लोगों के लिए नुकसानदेह हो सकता है या उनके मन को बहुत दुःखी कर सकता है।

      इसलिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारे मन की मनोग्रंथियाँ धीरे-धीरे खुलें न कि अचानक से ही किसी बड़े फोड़े की तरह फूट पड़ें।

    हमारी भारतीय साधनापद्धति में ऐसी कई विधाएँ हैं, जिनसे हम अपने अंदर की मनोग्रंथियों को बाहर निकाल सकते हैं, उन्हें विरेचित कर सकते हैं जैसे- प्रायश्चित साधना- इसके अंतर्गत विशेष तरह के व्रत-उपवास, मंत्रजप, प्राणायाम, ध्यान आदि आते हैं, जो मन की मनोग्रंथियों को खोलने में हमारी मदद करते हैं और मन को हलका करते हैं।

       इसके अलावा साधकों द्वारा की जाने वाली योग-साधना के प्रथम चरण का उद्देश्य ही है- मन की गाँठों को खोलना और उनका उपचार करना; क्योंकि जब मन मनोग्रंथियों से मुक्त होगा, तभी वह योग साधना के मार्ग पर आगे बढ़ सकेगा।

    महर्षि पतंजलि द्वारा दिए गए अष्टांग योग में से प्रथम दो चरण – (1) यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), (2) नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) यदि जीवनशैली में शामिल किए जाएँ, तो इनके माध्यम से ही हमारी मनोग्रंथियों को पनपने का अवसर नहीं मिलता और यदि मन में मनोग्रंथियाँ भी हैं, तो इस यौगिक जीवनशैली से वे मन से विलीन भी हो जाती हैं।

    मनोग्रंथियाँ मन की वो गाँठें हैं, जिनके कारण हमारी जीवन-ऊर्जा इनमें ही अटककर रह जाती है और हम इनके कारण आगे नहीं बढ़ पाते, अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते। इसलिए यदि हमें अपने जीवन में आगे बढ़ना है, तो मन की राहों में बिछे हुए इन काँटों के समान मनोग्रंथियों को हटाना होगा, अन्यथा ये हमें इतने चुभेंगे कि इनके कारण हमें वहीं रुकना होगा, वहीं ठहरना होगा और फिर हम अपनी मंजिल तक नहीं पहुँच पाएँगे। 

     मन की राह के इन काँटों को हटाना ही अपने आगे बढ़ने का रास्ता साफ करना है। साधना के पथ पर चल रहे साधकों के लिए मन को मनोग्रंथियों से मुक्त करना ही आध्यात्मिक पथ का पहला कदम कहा जा सकता है।

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