मगर कुछ सवालों के जवाब अभी बाकी
अभिषेक कुमार सिंह
पिछली दो सदियों के अरसे में मानव सभ्यता ने जिस तरह तरक्की की, उसके आधार पर कहा जाने लगा था कि अगर इनसान खुद को ही खत्म करना चाहे तो बात और है, लेकिन कम से कम इस पृथ्वी पर मौजूद कोई चीज ऐसी नहीं है जो उसके वजूद को चुनौती दे सके। लेकिन कोविड-19 नामक महामारी पैदा करने वाले एक सूक्ष्म कोरोना वायरस ने कैसी तबाही मचाई कि उसकी चपेट में आकर न केवल 19 लाख मौतें साल भर के अंदर हो गईं, बल्कि उसने पूरी दुनिया की चाल को एक झटके में रोककर साबित कर दिया कि खुद को सुरक्षित मानकर हम कितनी बड़ी गलती कर रहे थे। हालांकि अब कह सकते हैं कि ब्रिटेन, भारत, रूस, चीन, अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में वैज्ञानिकों ने अंततः वैक्सीन रूपी जो हथियार बना लिए हैं, उनसे फिलहाल कोरोना पर तो अंकुश लगाया ही जा सकेगा।
पर क्या वास्तव में ये टीके इस कायनात में हमारे टिके रहने की गारंटी हो सकते हैं और इसके सिवा हमें कुछ और करने की जरूरत नहीं है। आज 16 जनवरी, 2021 को हमारे देश में कोविड-19 से बचाव के लिए संभवतः अब तक के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान की शुरुआत हो रही है। वहीं इससे जुड़े कई सवाल भी हैं।
चेचक, प्लेग, फ्लू और पोलियो जैसी बीमारियों ने पूरी दुनिया पर कहर बरपा रखा था। लेकिन जब एक फ्रांसीसी जैवविज्ञानी लुई पाश्चर ने चिकन हैजा रोग के टीके का विकास किया तो दुनिया को बीमारियों की रोकथाम का एक रास्ता मिल गया। पाश्चर ने मुर्गियों को होने वाले हैजा के अलावा एंथ्रेक्स और रेबीज आदि के टीके भी विकसित किए थे। लुई पाश्चर के बाद एक उल्लेखनीय काम एडवर्ड जेनर ने 1796 में किया था, जिन्होंने चेचक के टीके का विकास किया था। अमेरिका की पीट्सबर्ग यूनिवर्सिटी में साइंटिस्ट जोनास सॉल्क ने 1952 में पहले प्रभावी पोलियो टीके के विकास का दावा किया था।
असल में किसी संक्रमण का टीका बनाने की शुरुआत उस वायरस के जेनेटिक कोड का पता लगाने से होती है। जेनेटिक कोड बताता है कि इस बीमारी का उद्भव क्या है, किन हालात में यह संक्रमण बढ़ सकता है और जीवित रख सकता है और इसका खात्मा कैसे मुमकिन है। याद रहे कि आज से ठीक एक साल पहले 10 जनवरी, 2020 को चीन ने कोरोना वायरस का जेनेटिक कोड (2019-nCoV) दुनिया के साथ साझा कर दिया था, जिसके बाद से ही कोरोना की वैक्सीन के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हो गई थी।
इसके बावजूद किसी महामारी की रोकथाम और बचाव के लिए उसका टीका या वैक्सीन बनाना आसान नहीं है। इस काम में दशकों का वक्त, भारी पूंजी और मेहनत लगती है। पर टीकों से जुड़ी कुछ मुश्किलें और हैं। जैसे, टीका बना रही भारतीय कंपनियों के साथ-साथ कई नामी कंपनियां दावा कर रही हैं कि उनकी वैक्सीनें कोविड-19 महामारी के खिलाफ 90-95 फीसदी तक सुरक्षा दे सकती हैं। रूस-ब्रिटेन समेत कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष ये वैक्सीनें खुद लगवाकर अपनी जनता और दुनिया को यह संदेश दे रहे हैं कि ये टीके सुरक्षित हैं। टीकों के ह्यूमन ट्रायल (मानव परीक्षण) के इतिहास को देखें तो साफ है कि कोविड-वैक्सीनों के ऐसे ट्रायल अपनी जरूरी मियाद से पहले जारी किए जा रहे हैं।
पर शायद ही कोई इसका सौ फीसदी दावा कर पाए कि इन टीकों के कोई साइड इफेक्ट नहीं होंगे। यानी इन्हें लगवाने के बाद हो सकता है कि कोई व्यक्ति कोरोना वायरस के प्रभाव से बच जाए, लेकिन थकान, सिरदर्द, चक्कर, पेट खराब होने जैसे सामान्य लक्षणों के अलावा कोई अन्य बीमारी होने की आशंका से वह मुक्त नहीं कहा जा सकता। इसी तरह टीका लगवाने के कितने समय तक उस पर कोरोना वायरस हमला नहीं कर सकता है, इसकी भी एक निश्चित मियाद बताना कंपनियों के लिए फिलहाल संभव नहीं है। जैसे, फाइज़र की वैक्सीन के ट्रायल में शामिल कई स्वयंसेवकों (वॉलंटियर्स) ने टीका लगवाने के बाद सिरदर्द, बुखार और हैंगओवर जैसे साइड इफेक्ट्स की शिकायत की है।
ज्यादातर वैक्सीनों को असरदार बनाए रखने के लिए उनका बेहद ठंडे माहौल (सुपर कोल्ड स्टोरेज या अल्ट्रा लो स्टोरेज टेंपरेचर) में भंडारण करना जरूरी है। जैसे भारत ने रूस से स्पूतनिक-5 नामक जो टीका मंगाया है, उसमें ऐसी ही सावधानी की जरूरत है। अभी के अनुमान के मुताबिक हमारे देश में कोरोना टीकाकरण के लिए न्यूनतम 16 हजार कोल्ड चेन स्टोरेज की जरूरत पड़ेगी। पर हमें इसकी सराहना करनी होगी कि हमारी सरकार (स्वास्थ्य मंत्रालय) ने जुलाई, 2021 तक 30 करोड़ लोगों को टीका लगाने की योजना बना ली है, इससे इस आशा को बल मिलता है कि भले ही कुछ देर हो जाए, लेकिन उम्मीद जगाने वाला यह टीका देश की पूरी आबादी को मिल सकेगा।