गौतम चौधरी
नेपाल फिर से अशांति की ओर बढ रहा है। इस अशांति के लिए एक बार फिर नेपाली माओवादियों को ही जिम्मेवार ठहराया जा रहा है। विगत दिनों पार्टी के आंतरिक कलह को दूर करने के लिए नेपाली माओवादी पार्टी के महासचिव रामबहादुर थापा ने केन्द्रीय समिति की बैठक बुलायी थी लेकिन आपसी गुटबन्दी के कारण नेपाल एकीकृत माओवादी दल की ना तो स्थाई समिति ही बैठ सकी और न ही पोलिटब्युरो की ही बैठक हो पायी। खबर है कि आरोप प्रत्यरोप के कारण बीच में ही केन्द्रीय कमेटी की बैठक तीन दिनों तक के लिए रोक दी गयी। बैठक ललितपुर में आयोजित की गयी थी जहां पार्टी के उपाध्यक्ष मोहन वैद्य समर्थकों ने नारेबाजी की और पार्टी अध्यक्ष पुष्पकमल दहाल उपाख्य प्रचंड पर कई आरोप लगाये। यही नहीं वैद्य ने संसदीय दल के नेता पद से प्रचंड को हटाने के लिए २३६ में से १५९ सभसदों के समर्थन का हस्ताक्षर भी पार्टी को सौंपा है। इस प्रकार के विवादों से इतना तो तय माना जा रहा है कि नेपाली माओवादी आपस में लडने वाले हैं। अगर लडाई हुई तो अन्ततोगत्वा नेपाल को घाटा होगा और नेपाल एक बार फिर से अशांत हो जाएगा। वस्तुतः नेपाल में अभी शांति की जरूरत है। नेपाल अभी अभी गणतंत्र में परिवर्तित हुआ है। नेपाल में नया संविधान बनना है जिससे आने वाले समय में देश को चलाया जाएगा। लेकिन जिस प्रकार देश की सबसे बडी पार्टी आपस में लड-भिड रही है उससे तो यही लगता है कि भारत का एक महत्वपूर्ण पडोसी नेपाल भयानक अराजकता की ओर बढ रहा है। नेपाल की अराजकता केवल नेपाल के लिए ही खतरनाक नहीं है, इसका प्रभाव पूरे दक्षिण एशिया पर पडेगा। हालांकि उपर से देखने पर ऐसा लगता है कि माओवादियों में आपसी फूट के पीछे माओवादियों की सत्ता लिप्सा जिम्मेबार है, लेकिन इसके पीछे दुनिया की दो साम्राज्यवादी ताकत अपना खेल खेल रहा है।
पिछले दशक में नेपाली माओवादी दल में सबसे प्रभावशाली नेता के रूप में पुष्पकमल दहाल का उभार हुआ। जब दहाल चुनावी और संसदीय लोकतंत्र में विश्वास करने की घोषणा की और कहा कि हमने बुलेट के साथ बैलेट का फयूजन किया है, तो उन्हें अपने ही दल के कई नेताओं से चुनौती मिलने लगी। हालांकि उस समय दहाल की ताकत के सामने पार्टी के अन्य नेताओं ने हामी भर दी लेकिन अंदर ही अंदर यह आग सुलगती रही। अब पार्टी के दो उपाध्यक्ष मोहन वैद्य तथा डॉ० बाबूराम भटराई, प्रचंड के नेतृत्व तथा उनके सिद्धांतों को खुली चुनौती देने लगे हैं। यह लडाई कहां जाकर समाप्त होगी यह कहना कठिन है लेकिन इतना तो तय है कि या तो पार्टी का विभाजन हो जाएगा या फिर प्रचंड को अपना पद छोडना पडेगा। हालांकि पार्टी अध्यक्ष प्रचंड इस हालिया संकट से उवरने के लिए वैद्य समर्थक दूसरी पंक्ति के कुछ नेताओं को पार्टी से निकालने का मन बना रहे हैं, लेकिन यह समाधान महज अस्थाई समाधान होगा।
हालांकि पार्टी के चिंतक और सिद्धांतकारों ने अपने अपने तरीके से इस कठिन परिस्थिति से पार्टी को निकालने के प्रयास में है लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि नेपाली माओवादी समूह दुनिया के दो साम्राज्यवादी ताकतों के दबाव में होने के कारण आने वाले समय में और अधिक संकटग्रस्त होगा। दुनिया में संयुक्त राज्य अमेरिका और ईसाई चर्च आपस में मिलकर अपने सम्राज्य विस्तार में लगे हैं। इधर चीन इस्लामी दुनिया को अपने साथ रखकर विश्व में एक नया गुट स्थापित करने के फिराक में है। नेपाल इन दोनो विस्तारवादी ताकतों के गिरफत में है। जहां एक ओर प्रचंड पर चीन समर्थक हाने का आरोप लग रहा है वही प्रचंड ने ही अपने सहयोगी डॉ० भट्टराई पर आरोप लगाया है कि भट्टराई दक्षिणपंथी ताकतों के षडयंत्र का शिकार हो रहे हैं। माओवादी संगठन में भट्टराई पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं। उनपर यह भी आरोप लगाया जा रहा है कि वे भारत समर्थक हैं तथा नेपाल में अब भारत की नीतियों को स्थापित करने में लगे हैं। पार्टी के दूसरे उपाध्यक्ष मोहन वैद्य आजकल कुछ ज्यादा ही मुखर हो गये हैं। वे पहले प्रचंड और भट्टराई के कथित समझौतावादी नीतियों से सहमत नहीं थे और जनयुद्ध के माध्यम से ही नेपाल में सत्ता हथियाने की मानसिकता रखते थे लेकिन जब पार्टी, प्रचंड – भट्टराई धारा पर काम करने लगी और संसदीय लोकतंत्र में साथ देने का निर्णय लेकर पार्टी ने चुनाव लड लिया तो वैद्य भी मान गये लेकिन अब पार्टी के अंदर न केवल सिद्धांतों को लेकर हायतोवा मची है अपितु कुर्सी हथियाने की भी लडाई जोर पकड रही है। पार्टी को पिछले चुनाव में जबरदस्त बहुमत मिली। सबसे बडा दल होने के कारण देश के नवनियुक्त राष्ट्रपति ने माओवादियों को ही सरकार बनाने का न्योता दिया। माओवादियों ने कई दलों के साथ मिलकर अपने अध्यक्ष प्रचंड के नेतृत्व में सरकार बना ली, लेकिन सेना अध्यक्ष को पद से हटाने के मामले पर प्रचंड को प्रधानमंत्री का पद गवाना पडा। अब देश की जनता भी समझने लगी है। फिर माओवादियों का दर्प भी कम हुआ है। फिर माओवादी नेता आपस में ही लडने लगे हैं। कारण चाहे जो भी हो लेकिन इससे जहां एक ओर पार्टी लगातार कमजोर हो रही है वही माओवादियों के विभिन्न गुटों में लडाई की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
टूट-फूट केवल माओवादी दल में ही नहीं हुआ है। नेपाल की कांग्रेस पार्टी में भी विभाजन हो चुका है। इधर मधेशी जनाधिकार फोरम विभाजित हुआ और नेपाल की काम्यूनिस्ट पार्टी के अंदर भी कई गुट खडे हो गये हैं। इसके पीछे का कारण नेपाल में साम्राज्यवादी ताकतों को माना जाना चाहिए। चीन नेपाल में अपनी पकड लगातार मजबूत कर रहा है। चीन न केवल नेपाल के माओवादियों पर दव लगाये हुए है अपितु चीन नेपाल के कुछ कांग्रेसी तथा साम्यवादी नेताओं को भी अपने पक्ष में कर चुका है। इसलिए नेपाल की राजनीति पर चीन का प्रभाव परोक्ष तो है ही प्रत्यक्ष भी देखने को मिलता है। इधर नेपाल जैसे देश में संयुक्त राज्य अमेरिका की भी रूचि है। नेपाल में बडी तेजी से लोग ईसाई बन रहे हैं। इसके लिए नेपाल में ईसाइ मिशनरी जबरदस्त तरीके से सकि्रय है। ईसाई संगठनों के साथ संयुक्त राज्य की सांठ-गांठ है। इससे नेपाल में अमेरिका की सकि्रयता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। अमेरिका और ईसाई चर्च दोनों ही नेपाल में भारत जैसा ढीला ढाला लोकतंत्र चाहता है। इससे उनका काम आसान होगा। यही कारण है कि नेपाल में आज तक राजनीतिक स्थिरता नहीं आ पायी है। दो साम्राज्यवादी ताकतों के कारण नेपाल लगातार अस्थिरता की ओर बढ रहा है। अब उसी ताकतों ने नेपाली माओवादी दल को भी विभाजित करने की योजना बनाई है। चीन जहां एक ओर नेपाल को उत्तर कोरिया बनाना चाहता है वही अमेरिका नेपाल में गैरजिम्मेदार लोकतांत्रिक की स्थापना चाहता है। इसमें दोनों साम्राज्यवादी शक्तियों को अपना अपना हित दिख रहा है। चीन नेपाल को दक्षिण एशिया में प्रवेश का द्वारा मानता है तो अमेरिका चीन में नेपाल के रास्ते प्रवेश की योजना बनाने के फिराक में है। नेपाल में ताकतवर सरकार के आने से नेपाल में न तो चीन की दाल गलेगी और न ही संयुक्त राज्य – ईसाई चर्च गठबंधन को कोई सफलता हाथ लगेगी। लेकिन इस बात को नेपाल की कोई पार्टी समझने को तैयार नहीं है। नेपाल को विकट परिस्थिति से बचाने में भारत की भूमिका अहम हो सकती थी लेकिन वर्तमान भारतीय नेतृत्व खुद अमेरिकी – ईसाई गठबंधन के दबाव में है।
अभी नेपाल के राजनेता, बुद्धिजीवी, पत्रकार, कलाकार एवं समाज के सभी वर्गों को एक साथ मिलकर नेपाल के निमार्ण में अपनी भागीदारी निश्चित करनी चाहिए। नेपाल में नया संविधान बनना है। उस संविधान निमार्ण में देश के सभी नेताओं को सहयोग करना चाहिए। नेपाल एक पुरातन संस्कृति का देश है। नेपाली योद्धाओं ने न केवल चीन और तिब्बत को युद्ध में हराया अपितु अपने जमाने के सबसे बडे साम्राज्यवादी देश युनाइटेड किंगडम को भी छक्क छुडा दिया। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर युनियन जेक फहरता था लेकिन नेपाल की धरती पर नेपाल का ही झंडा फहराता रहा। यह नेपाल के इतिहास की झांकी है। नेपाल एक बार फिर इतिहास को दुहराने की ताकत रखता है लेकिन उससे पहले नेपाल को न केवल अपना राजनीतिक भूगोल सुरक्षित करना होगा अपितु अपने सांस्कृतिक भूगोल पर भी गंभीरता से विचार करना होगा। नेपाली कूटनीतिक, किसी के दबाव में न आवें। नेपाल के राजनेता अपने देश के हित का विचार करें। वे वहां न तो अपना हित देखें और न ही अपने सिंद्धांतो के पूर्वाग्रह से बधें। नेपाल को मजबूत करने के लिए सबसे पहले वहां एक मजबूत सरकार की जरूरत है। वह सरकार तभी संभव है जब देश में नया संविधान बनेगा। साम्राज्यवादी ताकत नेपाल को अस्थिर देखना चाहती है, जो नेपाल के लिए तो खतरनाक है ही भारतीय उपमहाद्वीप के लिए भी खतरनाक है। इसलिए भारत को भी अपनी ढुलमुल नीति को बदलने की जरूरत है। नेपाल को बचाने के लिए भारतीय कूटनीति को भी सकि्रयता दिखानी चाहिए। याद रहे नेपाल के साथ भारत का भविष्य जुडा हुआ है। नेपाल की अस्थिरता अंततोगत्वा भारत के लिए बेहद खतरनाक होगा।
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