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आपाताकाल के पक्ष में: क्या जेपी ने अपनी रिहाई के लिए इंदिरा गांधी से संपर्क किया था?

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एल. एस. हरदेनिया 

आपाताकाल के 50 वर्ष मनाते समय हम इस बात का ख्याल नहीं रखते हैं कि आपातकाल लागू करने का अधिकार संविधान में सरकार को दिया हुआ है। सरकार को तीन प्रकार के आपातकाल लागू करने का अधिकार है-पहला बाहरी, दूसरा आंतरिक और तीसरा वित्तीय। यदि हमारे ऊपर हमला हुआ है या हमने किसी पर हमला किया है तो उस स्थिति में जरूरत पड़ने पर सरकार आपातकाल घोषित कर सकती है। देश के भीतर यदि अराजक स्थिति है, कानून और व्यवस्था पर नियंत्रण नहीं है, विद्रोह की स्थिति है तो भी केन्द्रीय सरकार को देश में आपातकाल लागू करने का अधिकार है। इसी तरह यदि वित्तीय स्थिति बहुत खराब है तो उस हालत में भी सरकार आपातकाल घोषित कर सकती है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सोच समझकर देश की आंतरिक स्थिति का मूल्यांकन कर आपाताकाल लागू किया था।

इस बात में संदेह नहीं कि उस समय देश अत्यधिक गंभीर स्थिति से गुज़र रहा था। बांग्लादेश से संबंधित युद्ध जैसी स्थिति से निपटने के लिए हमारे देश के सभी प्रकार के साधन खतरे में पड़ गये थे। कीमतें बढ़ रही थीं, बेकारी चरम पर थी। यहां तक कि सरकार अपने वित्तीय उत्तरदायित्व को भी नहीं निभा पा रही थी। इस तरह की स्थितियों के बीच में सारी गड़बड़ी के लिए विरोधी लोग इंदिरा गांधी को दोषी मान रहे थे। इसके अतिरिक्त देश के प्रतिपक्ष के नेता पुलिस और आर्मी को यह परामर्श दे रहे थे कि वे इंदिरा गांधी द्वारा जारी किये गये आदेशों का पालन न करें, खासकर कि यदि आदेश अनैतिक है। इस तरह का आह्वान जयप्रकाश नारायण ने स्वयं किया। इस घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए एक विदेशी पत्रकार ने कहा था कि सच पूछा जाये तो आपातकाल की इबारत जयप्रकाश और श्रीमती गांधी ने लिखी थी।

इसके पूर्व जयप्रकाश नारायण और उनके अनुयायियों ने सम्पूर्ण क्रांति की घोषण की थी कि यह प्रयास किया गया था कि जयप्रकाश और इंदिरा गांधी के बीच समझौता हो जाये। इस प्रयास में जयप्रकाश के सहयोगी थे- चन्द्रशेखर, कृष्णकांत और प्रोफेसर पी.एन. धर। दूसरी तरफ कम्युनिस्ट पार्टी, नंदिनी सत्पथी, के.पी. गणेश, अरुणा आसिफ अली और एदत्य नारायण इस राय के थे कि किसी भी हालत में समझौता संभव नहीं है और श्रीमती गांधी को आपातकाल लगाने में देर नहीं करना चाहिए क्योंकि कुछ लोग सम्पूर्ण क्रांति के माध्यम से देश में अराजकता फैलाना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में ही श्रीमती गांधी ने सम्पूर्ण क्रांति का मुकाबला करने का फैसला कर लिया।

सबसे पहला मुकाबला बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी ने किया। इस बीच नई दिल्ली तक खबरें पहुंचने लगीं कि कुछ तत्व भारतीय महाद्वीप के नेताओं को खत्म करना चाहते हैं क्योंकि वे पाकिस्तान के टूटने से और बांग्लादेश के निर्माण से काफी नाराज़ हैं। जिन नेताओं को शारीरिक रूप से खत्म करना चाहते थे उनमें इंदिरा गांधी, शेख मुजिबुररहमान और पाकिस्तान के जुल्फिकार अली भुट्टो आदि शामिल थे। इसी बीच इस तरह की खबर क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति से भी आई। इस संदेश पर वहां के राष्ट्रपति फिडेल क्रेस्ट्रो ने स्वयं अपने हस्ताक्षर करके भेजा था। वे और फिलिस्तीन के यासर अराफात ने इंदिरा गांधी को उनके विरूद्ध चल रहे षड़यंत्र से अवगत कराया।

इसी बीच इलाहाबाद हाइकोर्ट का इंदिरा गांधी की लोकसभा की सदस्यता को रद्द करते हुए फैसला आ गया। इस फैसले ने इंदिरा गांधी के विरोधियों को उनका त्यागपत्र मांगने का स्वर्ण अवसर दे दिया। एक समय ऐसा भी आया जब इंदिरा गांधी स्वयं त्यागपत्र देने का सोच रही थीं। परंतु ऐसे अनेक लोग थे जिन्होंने उनको चेतावनी दी कि यदि वे ऐसा करती हैं तो इससे भारत के स्थायित्व पर प्रभाव पड़ेगा और ऐसे लोगों की हिम्मत बढ़ जायेगी जो भारत राष्ट्र का खात्मा करना चाहते हैं। इस तरह की खबरों पर अपनी राय प्रगट करते हुए इंदिरा गाँधी ने कहा कि मुझे इस बात की कतई चिंता नहीं है कि कुछ लोग व्यक्तिगत रूप्प से मुझे हानि पहुंचाना चाहते हैं परंतु मुझे इस बात की चिंता जरूर है कि वे भारत को ही खत्म करना चाहते हैं। वह भारत जिसका निर्माण हमने बड़ी मुश्किलों के बीच किया है।

चारों तरफ के दबाव के बीच अंततः इंदिरा जी ने पूरे देश पर आपातकाल लागू कर दिया। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां होने लगीं। जो लोग गिरफ्तार किये गये उनमें जयप्रकाश नारायण, एल.के. आडवाणी, मोरार जी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, राजमाता विजयाराजे सिंधिया और जयपुर की महारानी। हर राज्य में हजारों लोग गिरफ्तार किये गये। राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच में एक तरह की प्रतियोगिता थी कि कौन ज्यादा से ज्यादा गिरफ्तारियां करवा रहा है। इस तरह के मुख्यमंत्रियों में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पी.सी. सेठी शामिल थे। वे कलेक्टरों को ऐसी लोगों की लंबी सूचियां भेज रहे थे जिन्हें वे गिरफ्तार करवाना जरूरी मानते थे। लगभग सभी कलेक्टर उनके आदेश का पालन कर रहे थे। परंतु दो कलेक्टर ऐसे थे जिन्होंने उन्हें यह सूचित किया कि उनकी सूची में जो व्यक्ति शामिल हैं उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसे गिरफ्तार करना उचित होगा। ये दो कलेक्टर थे सतना के केके चक्रवर्ती और रीवा के चतुर्वेदी (उनका पूरा नाम याद नहीं है)। दोनों को सेठी जी के गुस्से का सामना करना पड़ा।

इन गिरफ्तारियों के प्रति समाज में किसी तरह का आक्रोश नहीं था। सच पूछा जाये तो नेताओं की गिरफ्तारी के बाद संपूर्ण क्रांति का आंदोलन एक तरह से ठप्प हो गया। इसी बीच यह भी सुना गया कि जयप्रकाश ने इंदिरा गांधी से संपर्क करने का प्रयास किया। उन्होंने यह इच्छा प्रगट की कि उन्हें रिहा कर दिया जाये ताकि वे रचनात्मक काम कर सकें।

इसी तरह आरएसएस प्रमुख बाला साहेब देवरस ने इंदिरा जी को एक लंबी चिट्ठी लिखी। इस चिट्ठी के माध्यम से उन्होंने लगभग क्षमा मांगी और इस बात से इंकार किया कि उनका जयप्रकाश जी के आंदोलन से कुछ लेना-देना है। इस तरह की स्थितियों के बीच यह अनुभव किया जाने लगा कि आपातकाल की जरूरत नहीं है (इस तरह का दावा कम्युनिस्ट नेता मोहित सेन की किताब में किया गया है, सेन की पुस्तक के 352 पृष्ठ पर इसका उल्लेख है और उसके साथ ही डी.आर. गोयल की किताब में भी इसका उल्लेख है)।

आपातकाल के कुछ सकारात्मक नतीजे भी निकले जैसे-ट्रेनें समय पर चलने लगीं, कर्मचारी समय पर दफ्तरों में आने लगे, कीमतें नियंत्रण में आ गईं और कानून व्यवस्था की स्थिति भी नियंत्रण में आ गई। परतु इसी बीच इंदिरा गांधी के दूसरे बेटे संजय गांधी का प्रभाव बढ़ने लगा। वो लगभग एक अत्यधिक संवैधानिक दबदबे के रूप में प्रकट हुए। वे समय-समय पर केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों को आदेश जारी करने लगे और ऐसा लगने लगा कि उनके आदेश का अर्थ इंदिरा जी द्वारा जारी किया गया आदेश है। यह कितना सच है और कितना झूठ परंतु यह बात स्पष्ट थी कि उनके गलत आदेशों का इंदिरा जी ने सार्वजनिक विरोध नहीं किया।

संजय गांधी की सत्ता में जबरदस्त इजाफा होने लगा। कांग्रेस के नेताओं के साथ उनका व्यवहारसम्मान पूर्वक नहीं रहा। इस संबंध में मैं दो उदाहरण देना चाहूंगा। जानी-मानी नेत्री सुभद्रा जोशी जो इंदिरा गांधी की मित्र थीं और जिन्हें एक समय महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू का स्नेह प्राप्त था। श्रीमती जोशी ने इंदिरा जी को सलाह दी कि जो प्रचार सामग्री देश में भेजी जा रही हैं वे प्रधानमंत्री निवास से न भेजी जाये। ऐसा उचित प्रतीत नहीं हो रहा है। इंदिरा जी ने सुभद्रा जी को सलाह दी कि वह यह बात संजय गांधी को बता दें। जब सुभद्रा जी ने संजय को यह परामर्श दिया तो उन्होंने सुभद्रा जी से कहा कि ‘‘आप इन मामलों से दूर रहिये और दखल न दें।’’ जब सुभद्रा जी ने संजय गांधी के उत्तर से इंदिरा जी को अवगत कराया तो इंदिरा जी ने कुछ नहीं कहा। उसके बाद सुभद्रा जी ने इंदिरा जी से मुलाकातें बंद कर दीं।

एक और घटना जो मुझे याद आ रही है-संजय मध्यप्रदेश के दौरे पर आए हुए थे। इसी दरम्यान वे मंदसौर जाना चाहते थे। मंदसौर के एक बहुत ही सम्मानीय नेता जाजू उस समय भोपाल में थे। संजय से कहा गया कि वे उन्हें अपने साथ ले जायें। संजय बहुत ज्यादा स्पीड से वाहन चला रहे थे। इस पर जाजू जी ने संजय को सलाह दी कि वे ज़रा कम स्पीड से वाहन चलायें। यह बात संजय को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने वाहन रोककर जाजू को उतर जाने को कहा। जहां जाजू को उतारा गया वह सुनसान जंगल का इलाका था।

भोपाल में उनकी यात्रा के दौरान वे एक मुसलमान बुद्धिजीवियों की सभा में गये। अपने भाषण के पूर्व उन्होंने टिप्पणी की कि आप मुसलमान लोग दाढ़ी क्यां बढ़ाते हैं? इस पर यह सवाल मुस्लिम भाईयों को अच्छा नहीं लगा। उनका जबरदस्त परिवार नियोजन का कार्यक्रम लोगों को अच्छा नहीं लगा। इसी तरह झुग्गी बस्ती की सफाई के आदेश में इंदिरा जी के कार्यक्रम की लोकप्रियता कम करने में बहुत सहायक हुआ।

एक दूसरा आदेश जिसने अत्यधिक आपातकाल को बदनाम किया था मीडिया के ऊपर सेंसर लगाना। जिन्हें सेंसर लगाने का अधिकार दिया गया था वे मीडिया से लगभग दुर्व्यवहार करते थे। छोटी-छोटी से बातों में सेंसर लगाया जाता था। जैसे-एक दिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के हवाई जहाज को तकनीकी खामियों के कारण उतारना पड़ा। अखबारों को बोला गया कि यह खबर नहीं छापना।

एक दिन मुझे केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री वीसी शुक्ला का फोन आया। वे चाहते थे कि मैं शीघ्र दिल्ली पहुंचूं, किसलिए उन्होंने मुझे नहीं बताया। उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि दिल्ली हवाई अड्डे से मैं सीधे उनके निवास स्थान पर पहुंचू। पहुंचते ही उन्होंने मुझसे जानना चाहा कि ‘‘क्या तुम मैनस्ट्रीम में लिखते हो मैंने कहा कि हां।’’ इस पर उन्होंने कहा कि मैं उसके संपादक से मिलना चाहता हूं तुम निखिल चक्रवर्त से संपर्क करो। इस पर मैंने निखिल जी को फोन लगाया और उनको बताया कि शुक्ला जी आपसे मिलना चाहते हैं। क्या आप आयेंगे हम कार भेज रहे हैं? उनका जवाब था कि क्या वो मुझसे मिलना चाहते हैं मुझे तो उनसे मिलने की कोई इच्छा नहीं है।

इसके बाद मंत्री ने तय किया कि हम ही उनके दफ्तर जायें। ज्योंहि उनके दफ्तर पहुंचे निखिल दादा ने उनसे पूछा कि शुक्ला जी आप किस उद्देश्य से यहां आये हैं। शुक्ला जी ने उन्हें बताया कि आप अपने मासिक मैग्जीन में एक कार्टून छाप रहे हैं। इस कार्टून में बाप और बेटे की बातचीत प्रकाशित हुई है। ऐसे ही एक कार्टून में बेटा बाप से पूछता है कि ‘‘जब इंदिरा जी ने 20-सूत्रीय कार्यक्रम चालू किया है। ऐसे में संजय गांधी को पांच सूची कार्यक्रम जारी करने की क्या आवश्यकता थी? इस पर पिता जवाब देते हैं क्योंकि संजय को पांच से ज्यादा गिनती नहीं आती है।’’ जब संजय ने इस कार्टून को पढ़ा तो उसे बहुत गुस्सा आया और उसने मुझसे कहा कि मैं आपके विरूद्ध कुछ कार्यवाही करूं।

इस पर निखिल दादा ने कहा कि यदि आपको कोई कार्रवाई करनी है तो आप करें, और मैं वही करता रहूंगा जो मेरा विवेक कहेगा। यहां तक कि जो पत्रकार आपातकाल का समर्थन कर रहे थे वे भी सेन्सरशिप के विरोधी थे।

शनैः शनैः आपातकाल का विरोध कम होता गया। इसे देख इंदिरा जी ने आपातकाल हटाने का फैसला किया। मैं मास्को में था। मंत्री बसंत साठे के साथ एक डेलीगेशन में गया हुआ था। मास्को में प्रवास के दौरान एक दिन मैं एक वरिष्ठ भारतीय डिप्लोमेट के निवास पर गया हुआ था वहां वे खाना खा रहे थे। उस दरम्यान डिपलोमेट की पत्नी आयीं और उन्होंने बताया कि इंदिरा जी ने आपातकाल उठा लिया है और चुनाव का कार्यक्रम घोषित कर दिया है। इस पर हमने डिप्लोमेट से जानना चाहा कि क्या इंदिरा जी यह मान कर चल रही हैं कि वे चुनाव जीत जायेंगी? उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है। दरअसल इंदिरा जी को पूरा विश्वास है कि वे चुनाव हार रही हैं। फिर भी उन्होंने चुनाव घोषित किया है। यह इसलिये कि उनकी रगों में प्रजातंत्र का खून बहता है। वो ज्यादा दिनों तक अपने देश को तानाशाही तंत्र के अन्तर्गत नहीं रखना चाहतीं। आखिर वे जवाहरलाल की बेटी हैं जो दुनिया के सबसे महान डेमोक्रेट हैं।

चुनाव में कांग्रेस को बुरी हार का सामना करना पड़ा। चुनाव के बाद यह प्रश्न विवादग्रस्त हो गया कि पार्टी का नेतृत्व कौन करे अर्थात् प्रधानमंत्री कौन बने? चरण सिंह यह मान रहे थे कि चूंकि इंदिरा जी के विरोधियों की जीत उŸार-भारत विशेषकर उत्तरप्रदेश में हुई थी इसीलिये चरण सिंह को ही प्रधानमंत्री बनना चाहिये। जगजीवन राम के समर्थकों का तर्क था कि चूँकि उनके कांग्रेस छोड़ने का जबरदस्त असर हुआ है इसलिये प्रधानमंत्री का ताज उन्हें ही पहनने का हक है। बचे मोरार जी भाई जो पहले 1964 और 1966 में प्रधानमंत्री बनते-बनते रहे गये थे, तो उन्हें प्रधानमंत्री बनना चाहिये।

अंततः यह निर्णय हुआ कि जनता पार्टी के दो वरिष्ठतम बुजुर्ग नेता जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी को प्रधानमंत्री चुनने का दायित्व सौंप दिया जाये। उन दोनों ने मोरार जी देसाई को चुना जिन्हें अपार प्रशासनिक अनुभव है और जिनका व्यक्तित्व पूरी तरह से दाग रहित है। उन्हें यह जिम्मेदारी दी जाये। विभागों के वितरण में जगजीवन राम को रक्षा मंत्रालय दिया गया। चरण सिंह को गृह, वित्त अनुभवी, क्षमतावान नौकरशाह एम.एम. पटेल को एवं विदेश मंत्रालय जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपा गया। मंत्रिपरिषद तो बन गई परन्तु मंत्रियों के बीच मतभेद बने रहे। ये मतभेद इतने उलझनपूर्ण हो गये कि अंततः सरकार ही धराशायी हो गयी। इस तरह संपूर्ण क्रांति असफल हो गई।

जनता सरकार का विघटन जयप्रकाश के लंबे पत्रों के साथ हुआ जिनमें वे अपनी भावनाओं को प्रगट करते थे। ये पत्र अपने शुभचिंतकों और समर्थकों को लिखते थे। अक्टूबर 1979 में उनका देहावसान हो गया। उनकी मृत्यु एक घोर निराश व्यक्ति के रूप में हुई। इतिहासज्ञ रामचन्द्र गुहा प्रसिद्ध संपादक ए.डी. गोरावाला के विचारों को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कि जयप्रकाश एक अद्भुत नैतिक व्यक्ति थे, जो उचित और अनुचित बातों में अंतर करने की शक्ति रखते थे।

जनता पार्टी के विघटन में आर.एस.एस. की बहुत ही महत्वूपूर्ण भूमिका रही है। प्रसिद्ध समाजवादी नेता मधु लिमये यह राय रखते थे कि जनता दल और आर.एस.एस. एक साथ नहीं रह सकते हैं। जनसंघ के वे सदस्य जो जनता पार्टी में रहना चाहते हैं उन्हें आरएसएस छोड़ देना चाहिए। वे स्वयं आरएसएस दकियानूसी कांग्रेसी, संकुचित समाजवादी और अन्य इसी तरह के लोगों के साथ नहीं रहना चाहते थे। दरअसल उनका इरादा जनता पार्टी पर नियंत्रण स्थापित करना था। आरएसएस यह कार्य घुसपैठ व ब्लैकमैल से हासिल करना चाहते थे। वे इस उद्देश्य की पूर्ति में बाहरी ताकतों के सहयोग हासिल करना चाहते थे। इनका इरादा भारतीय राष्ट्र को ही नष्ट करना था। वैसे मधु लिमये ने सार्वजनिक रूप में ऐसा नहीं कहा परन्तु वे यह मानते थे कि जनता सरकार को धराशायी करने का पूरा श्रेय श्रीमती इंदिरा जी को जाता है।

इसी बीच जनता पार्टी में गुटबंदी ने गंभीर रूप ले लिया। ऐसा समय आया जब अपनी प्रधानमंत्री बनने की महत्वकांक्षा पूरी करने के लिये चरण सिंह ने उन्होंने इंदिरा जी का समर्थन स्वीकार कर लिया। जनता सरकार के पतन के कारण इंदिरा जी उसका पूरी हिम्मत के साथ विरोध करती रहीं। जब भी अवसर आता उन्होंने जनता का साथ दिया जिन्हें साम्प्रदायिक जाति के आधार पर सताया जाता था। अत्यधिक खतरनाक परिस्थितियों में उनकी बेलची भेंट इसी आधार पर थी। वे हाथी पर बैठकर बिहार के बेलची नामक स्थान पर गईं। बेलची वह जगह थी जहां निर्दोष दलितों की हत्या उच्च जाति के लोगों ने की थी। उनकी इस भेंट का प्रचार सारी दुनिया में हुआ था। विदेश नीति में भी उन्होंने उन देशों का साथ दिया जिन्हें साम्राज्यवादी देश सताते थे।

श्रीमती गांधी ने हमेशा ऐसे मौकों की भर्त्सना की है जब साम्राज्यवादियों द्वारा कमज़ोर देशों पर हमला किया हो। उदाहरणार्थ जब अमरीका ने कम्बोडिया पर हमला किया तब श्रीमती गांधी ने उसकी जोरदार शब्दों में उसकी भर्त्सना की।

कम्युनिस्ट नेता मोहित सेन अपनी आत्मकथा में लिखते हैं ‘‘जब मैं श्रीमती गांधी से मिला और उन्हें मोरारजी देसाई की सरकार के अधोपतन पर बधाई दी तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि चरण सिंह सरकार को किसी भी हालत में स्थायित्व प्रदान नहीं करना है।

जनता सरकार ने आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों की जांच के लिए न्यायमूर्ति शाह की अध्यक्षता में एक जांच आयोग बनाया था। जांच के शुरू के दिनों में आयोग ने अनेक गवाहों का परीक्षण किया। इन गवाहों में नौकरशाह, उच्च पुलिस अधिकारी, स्थानीय संस्थाओं के अधिकारी और स्वयं श्रीमती गांधी की कैबिनेट के सदस्य भी शामिल थे। इंदिरा जी ने गवाही देने से इंकार किया। आयोग ने उन्हें तीन बार बुलाया। वे तीनों बार आईं परन्तु तीनों बार उन्होंने कहा कि मैं गवाही नहीं दूंगी क्योंकि मैं सभी मामले गुप्त रखने की शपथ ले चुकी हूँ। मैं उस शपथ को किसी भी स्थिति में तोड़ने को तैयार नहीं हूँ।’’ एक पत्रकार के अनुसार उनका यह बयान आयोग का लगभग मखौल उड़ाने के समान था।

एक और पत्रकार के अनुसार उन्होंने इस आयोग की तुलना नूरेम्बर्ग जांच से की थी। परंतु यह जांच एक तमाशा ही बनकर रह गई, क्योंकि जांच आयोग की सबसे बड़ी पात्र लगातार गवाही देने से बचती रहीं और छोटे-मोटे लोग ही गवाही देते रहे। (यह विवरण रामचन्द्र गुहा कि पुस्तक से लिया गया हैं।)

इस दरम्यान इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करने के कई प्रयास किए गए। परंतु उनकी गिरफ्तारी स्वयं जनता सरकार में विरोधाभासों का मुख्य कारण बन गई और अंततः जनता पार्टी की सरकार दिन प्रतिदिन बड़ते हुए मतभेद, दलबदल, आरोप और प्रत्यारोप और भ्रष्टाचार की हरकतों के कारण ज्यादा दिन नहीं चल पाई।

अंततः सम्पूर्ण क्रांति वाली सरकार संवैधानिक 5 वर्ष की टर्म पूरी नहीं कर पाई। गुटबंदी के चलते वह 3 वर्ष से ज्यादा नहीं टिक पाई। इन 3 वर्षों के बीत जाने के बाद श्रीमती गांधी फिर सत्ता में आ गईं। उनके कांग्रेस दल ने 1980 में संपन्न चुनाव में लोकसभा की 353 सीटों पर कब्जा किया। उनकी पार्टी ने जनता दल में व्याप्त गुटबंदी के कारण विभाजित मतों का पूरा लाभ उठाया। इस दरम्यान यह नारा लोकप्रिय हुआ कि ‘‘जनता हो गई फेल, खा गई चीनी और मिट्टी का तेल’’।

1980 में विजय के बाद अपनी किसी मित्र मंडली के बीच श्रीमती गांधी ने कहा था कि ये सम्पूर्ण क्रांतिकारी दरअसल एक कायरों का समूह था। वे एक के बाद एक समर्पण करते रहे। उनकी यह मनोःस्थिति का पता मुझे पहले होता तो मैं आपातकाल लागू नहीं करती।

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