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आखिर किस दिशा में जा रही है भारत की राजनीति

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राम पुनियानी

गत 15 अगस्त को भारत ने अपना 77वां स्वाधीनता दिवस मनाया। यह एक मौका है जब हमें इस मुद्दे पर आत्मचिंतन करना चाहिए कि हमारी राजनीति आखिर किस दिशा में जा रही है। आज से 76 साल पहले हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली के लालकिले की प्राचीर से अपना ऐतिहासिक भाषण दिया था। उस समय देश बंटवारे से जनित भयावह हिंसा की गिरफ्त में था और ब्रिटिश शासकों की लूट के चलते आर्थिक दृष्टि से बदहाल था। हमारे स्वाधीनता संग्राम ने केवल ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता की खिलाफत ही नहीं की वरन भारत के लोगों को एक भी किया। उन्हें भारतीय की एक साझा पहचान के धागे से एक सूत्र में बांधा।

संविधान सभा ने एक अभूतपूर्व ज़िम्मेदारी का निर्वहन किया। उसने भारत के लोगों की महत्वाकांक्षाओं और भावनाओं को समझा और उन्हें देश के संविधान का हिस्सा बनाया। हमारा संविधान एक शानदार दस्तावेज है। उसकी उद्देशिका न केवल स्वाधीनता आन्दोलन के मूल्यों का सार है वरन वह आधुनिक भारत के निर्माण की नींव भी है।

नेहरू की नीतियों का लक्ष्य था आधुनिक उद्यमों और संस्थानों की स्थापना। भाखड़ा नंगल बांध के निर्माण की शुरुआत करते हुए नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद देश में स्थापित किए जा रहे वैज्ञानिक शोध संस्थानों, इस्पात और बिजली के कारखानों और बांधों को “आधुनिक भारत के मंदिर बताया” था। इनका लक्ष्य भारत को वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति की राह पर अग्रसर करना था। 

भारत आधुनिक देश बनने की राह पर चल पड़ा। औद्योगिकरण हुआ, आधुनिक शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित की गईं, स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रगति हुई, दूध और कृषि उत्पादन बढ़ा और परमाणु व अंतरिक्ष सहित विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों में शोध कार्य प्रारंभ हुआ। इसके साथ ही संवैधानिक प्रावधानों के चलते दलितों का उत्थान हुआ और शिक्षा व अन्य क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित किया गया जिससे वे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकीं। यह एक बेजोड़ और कठिन यात्रा थी जो 1980 के दशक तक जारी रही।

सन् 1980 के दशक में देश को प्रतिगामी ताकतों ने अपनी गिरफ्त में ले लिया और साम्प्रदायिकता, राजनीति के केन्द्र में आ गई। शाहबानो के बहाने लोगों के दिमाग में यह बैठा दिया गया कि भारत की सरकारें अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करती रही हैं। मंडल आयोग की रपट को लागू करने से भी साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला।

‘आधुनिक भारत के मंदिर’ निर्मित करने की बजाए हम मस्जिदों के नीचे मंदिर खोजने लगे। मस्जिदों को गिराना और उन्हें नुकसान पहुंचाना एक बड़ा मकसद बन गया। इससे सामाजिक विकास की प्रक्रिया बाधित हुई और आम लोगों को न्याय सुलभ करवाने और उनके जीवन को समृद्ध बनाने का सिलसिला रुक गया। महात्मा गांधी का “आखिरी पंक्ति का आखिरी आदमी” राजनैतिक सरोकारों से ओझल हो गया।

मंदिर की राजनीति के कारण जो हिंसा हुई उससे समाज ध्रुवीकृत हुआ और राजनीति में साम्प्रदायिक ताकतों का दबदबा बढ़ने लगा। मुसलमानों के अलावा ईसाईयों के खिलाफ भी हिंसा शुरू हो गई और जैसे-जैसे साम्प्रदायिक हिंसा बढ़ती गई वैसे-वैसे साम्प्रदायिक ताकतें भी ताकतवर होती गईं।

मंदिर के बाद गाय राजनीतिक परिदृश्य पर उभरी। मुसलमानों और दलितों की लिंचिंग होने लगी। घर वापसी का सिलसिला शुरू हुआ और लव जिहाद के मिथक का उपयोग मुस्लिम युवकों को निशाना बनाने के साथ-साथ लड़कियों और महिलाओं के अपने निर्णय स्वयं लेने के अधिकार को सीमित करने के लिए भी किया गया।

सामाजिक विकास की दिशा पलट गई। आर्थिक सूचकांकों में गिरावट आने लगी, भुखमरी का सूचकांक बढ़ने लगा और धर्म, अभिव्यक्ति और प्रेस की स्वतंत्रता को सीमित किया जाने लगा। सार्वजनिक क्षेत्र के बेशकीमती उद्यमों को सत्ताधारियों के चहेतों को मिट्टी के मोल बेचा जाने लगा। सत्ता के करीबी कई अरबपति जनता के पैसे चुराकर विदेश भाग गए। गरीबों और अमीरों के बीच की खाई और चौड़ी होने लगी।

वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बजाए प्रधानमंत्री हमें यह बताने लगे की प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी इतनी उन्नत थी कि हाथी का सिर मनुष्य के शरीर पर फिट किया जा सकता था। और यह तो केवल शुरूआत थी। सभी ज्ञानी हमें यह बताने लगे कि संपूर्ण आधुनिक विज्ञान हमारे प्राचीन ग्रंथों में मौजूद हैं।

इसके साथ ही भारतीय संविधान को बदलने की मांग, जो कुछ धीमी पड़ गई थी, फिर से जोर-शोर से उठाई जाने लगी। साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के चिंतक यह तर्क देने लगे कि भारत के सभ्यतागत मूल्यों (अर्थात ब्राम्हणवादी मूल्यों) को संवैधानिक मूल्यों से ऊंचे पायदान पर रखा जाना चाहिए। यह सामंती, पूर्व-औद्योगिक समाज की तरफ लौटने की यात्रा थी। न्याय के नाम पर बुलडोजरों का इस्तेमाल किया जाने लगा।

मणिपुर, नूह और मेवात में हिंसा की पृठभूमि में हम अपने गणतंत्र के भविष्य को किस तरह देखें? समस्या केवल राजनीति के क्षेत्र तक सीमित नहीं है। समाज में नफरत का बोलबाला है। बिलकिस बानो सहित हिंसा के अनेकानेक पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पा रहा है। हिंसा करने वाले और नफरत फैलाने वाले बेखौफ हैं। ‘सभ्यतागत मूल्यों’ का हवाला देते हुए नए संविधान के निर्माण की वकालत की जा रही है। कुल मिलाकर हम पीछे जा रहे हैं।

ऐसे समय में आशा की एकमात्र किरण वे सामाजिक संगठन और समूह हैं जो हिंसा पीड़ितों के अधिकारों की रक्षा कर रहे हैं। इनमें शामिल हैं तीस्ता सीतलवाड़ के नेतृत्व वाला सिटिजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस जैसे संगठन। कई जाने-माने वकील पूरी हिम्मत से सरकार की मनमानी की खिलाफत कर रहे हैं। हर्षमंदर के कारवां-ए-मोहब्बत जैसे संगठन भी आशा जगाते हैं। वे नफरत जनित हिंसा के पीड़ित परिवारों को सांत्वना और मदद उपलब्ध करवा रहे हैं। अनहद की शबनम हाशमी द्वारा शुरू किया गया ‘मेरे घर आकर तो देखो’ अभियान साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक बुलंद आवाज है।

हम आज एक चौराहे पर खड़े हैं। राजनैतिक पार्टियों को भी यह एहसास हो गया है कि नफरत की नींव पर खड़ी साम्प्रदायिक विचारधारा कितनी खतरनाक है। वे संविधान और प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए साझा मंच बनाने को तैयार हो गए हैं। भारत जोड़ो अभियान की तरह की कई पहल हुई हैं जो शांति और सद्भाव का संदेश फैला रही हैं।

कर्नाटक में जो हुआ उससे यह साबित होता है कि प्रजातंत्र को बचाया जा सकता है और जो लोग हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के सपनों को जिंदा रखना चाहते हैं, उन्हें अवसाद में डूबने की जरूरत नहीं है। इस समय विभिन्न विघटनकारी ताकतें ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ पर हमलावर हैं। वे भारत के संविधान को अपने रास्ते में बाधा मानते हैं। उनका एजेंडा एक ऐसे देश का निर्माण करना है जिसमें आम आदमी की आवाज अनसुनी ही रह जाएगी।

हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले समय में मानवीय मूल्यों को बढ़ावा मिलेगा और हर व्यक्ति चाहे उसका धर्म, जाति या लिंग कुछ भी हो, सम्मान और गरिमा के साथ अपना जीवन जी सकेगा। और सभी की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी होंगी।

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

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