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प्रसंगवश : मार्क्स और तुलसी

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प्रखर अरोड़ा

     मार्क्सवादी नजरिए से प्राचीन साहित्य की यह सार्वभौम विशेषता है कि इसमें मनुष्य के उच्चतर गुणों का सबसे सुंदर वर्णन मिलता है । उच्चतर गुणों के साथ ही साथ मानवीय धूर्तताओं,कांइयापन और वैचारिक कट्टरता के भी दर्शन होते हैं। देवता की सत्ता के बारे में विविधतापूर्ण अभिव्यक्ति मिलती है।

      प्राचीन साहित्य की महान् कालजयी रचनाएं ऐसे समाज में रची गयीं जो विकास की दृष्टि से पिछड़ा हुआ था।

        सवाल यह है कि सामाजिक तौर पर पिछड़े समाज में श्रेष्ठ कृतियों और कला रूपों,दर्शन के बेहतरीन ग्रंथों का जन्म कैसे हुआ ?ये कृतियां आज भी सैंकडों साल बाद हमें आनंद क्यों देती हैं ?

      इस सवाल पर सबसे पहले कार्ल माक्र्स ने 1857-1858 की आर्थिक पांडुलिपियां’ नामक कृति में विचार किया. उसने लिखा, ‘ कठिनाई यह समझना नहीं है कि यूनानी कला और महाकाव्य सामाजिक विकास के कतिपय रूपों से कैसे जुड़े हुए हैं। कठिनाई तो यह है कि वे अब भी हमें सौंदर्यात्मक आनंद प्रदान करते हैं और उन्हें अब भी कुछ मामलों में मानक तथा अलभ्य मॉडल माना जाता है।’

           हिन्दी में जिन मार्क्सवादी या प्रगतिशील आलोचकों के द्वारा तुलसीदास की आलोचना के दौरान समसामयिक समाज को उनकी रचनाओं में खोजने की कोशिश की गई है उन्हें कायदे से प्राचीन साहित्य, खासकर महाकाव्य विधा के संदर्भ में लिखी गयी कार्ल मार्क्स और मिखाइल बाख्तिन की आलोचना को गंभीरता से पढ़ना चाहिए जिससे वे कुछ नया सीख सकें।

कार्ल मार्क्स ने ‘1857-58 की आर्थिक पांडुलिपियां’ कृति की भूमिका में लिखा है ‘ जहां तक कला का संबंध है ,यह सुविदित है कि उसके कुछ शिखरों का समाज के आम विकास के साथ कदापि मेल नहीं है,न उनका इसके भौतिक आधार के,मानो उसके संगठन के अस्थि-पंजर से ही मेल है।’

        मार्क्स ने जब ये बातें कही थीं तो उनके सामने समाज की अपरिपक्व अवस्था थी,वे प्राचीन साहित्य के संदर्भ में ये बातें कह रहे थे।

       प्राचीनकालीन महाकाव्यों के बारे में मार्क्स का कहना था ,ये हमारे सामाजिक बचपन की रचनाएं हैं।जिस तरह बच्चे का भोलापन आनंद देता है,सब समय मोहक लगता है।उसी तरह ये रचनाएं भी प्रत्येक काल में मोहक लगती हैं, आनंद देती हैं।

      मार्क्स ने लिखा कि कुछ बच्चे कुशाग्रबुध्दि होते हैं,कुछ ठस दिमाग के होते हैं। क्या हमारे प्रगतिशील आलोचकों ने भारतीय परंपरा में ठस और कुशाग्रबुध्दि बच्चों के बारे में कभी सोचा ? तुलसीदास ठस बुध्दि का बच्चा है या कुशाग्रबुध्दि का ?

       क्या बाल्मीकि की रामायण, महाभारत, कालिदास के महाकाव्य, तुलसी का रामचरित मानस अपने युग के यथार्थ को व्यक्त करते हैं ?जी नहीं, समसामयिकता के साथ महाकाव्य का विधा के नाते कोई संबंध नहीं होता।

रामचरित मानस महाकाव्य है और महाकाव्य के विधागत,संरचनात्मक तत्व इस पर भी लागू होते हैं। इस संदर्भ में मिखाइल बाख्तिन के नजरिए का काफी महत्व है। बाख्तिन के अनुसार ‘अतीत की आदर्शीकृत स्मृतियों’ के कारण महाकाव्य में लेखक के समय और विषय के बीच महा-अंतराल पाया जाता है।

       यह अंतराल ही कृति एवं समाज में अंतराल पैदा करता है।इस तरह की कृतियों की बुनियाद राष्ट्रीय अनुश्रुति है।

    महाकाव्य की कहानी संपूर्ण कहानी होती है।चरित्र अमूमन वीर होते हैं।यह ऐसी कहानी है जिसमें रद्दोबदल संभव नहीं है।

     मिखाइल बाख्तिन के अनुसार विधागत तौर पर इसके तीन संरचनात्मक लक्षण हैं- 

(1) महाकाव्य का विषय राष्ट्रीय महिमामंडित अतीत होता है,और गेटे और शिलर की शब्दावली में ‘निरपेक्ष अतीत’ ;

(2)महाकाव्य का स्रोत राष्ट्रीय अनुश्रुति होती  है ,न कि निजी अनुभव और उसके आधार पर की गई कल्पना 

(3) महाकाव्य के संसार और समसामयिकता, अर्थात वाचक (रचयिता और उसके श्रोताओं के बीचएक )से विशाल दूरी होती है, महा-अंतराल होता है।

         संक्षेप में, महाकाव्य विधा के रूप में अतीत के बारे में काव्य रूप है।इसमें रचनाकार की दृष्टि के केन्द्र में अलभ्य अतीत होता है जिसे श्रध्दानत होकर स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता।

महाकाव्य का वाचक और श्रोता एक ही काल में,एक मूल्यपरक सोपान क्रमिक स्तर पर स्थित होते हैं जबकि महाकाव्य में चित्रित पात्रों का संसार बिलकुल दूसरे ही मूल्यपरक-कालिक स्तर पर स्थित होता है। इन दोनों के बीच महा-अंतराल होता है।

      महाकाव्यीय मानव किसी भी किस्म की वैचारिक पहल से वंचित होता है,पात्र और रचयिता सभी वंचित होते हैं,महाकाव्यीय संसार में केवल एक समेकित,पूर्णत: निरुपित एकमात्र विश्व दृष्टिकोण होता है,जो नायकों , पात्रों, रचयिता और श्रोताओं सभी के लिए अनिवार्य और निर्विवाद होता है।

        महाकाव्यीय मानव भाषायी पहल से भी वंचित होता है ; महाकाव्यीय संसार एक समेकित और एकमात्र तैयार भाषा जानता है। यह एकभाषी संसार है।

बाख्तिन के नजरिए से यदि रामचरित मानस को देखा जाए तो अनेक रोचक निष्कर्ष सामने आएंगे। बाख्तिन के नजरिए का महत्व इस अर्थ में भी है कि हमारे यहां कृति की अंतर्वस्तु की आलोचना खूब हुई है किंतु हमने कभी महाकाव्य के विधागत वैशिष्टय को केन्द्र में रखकर विस्तार या संक्षेप में विचार नहीं किया है।

       महाकाव्य के बारे में हमारे सभी आलोचकों की राय यही है कि महाकाव्यात्मक कृतियों में सामयिक समाज झांकता है। यह नजरिया महाकाव्य की विधागत संरचनावादी सैध्दान्तिकी के लिहाज से अवैज्ञानिक है।कायदे से महाकाव्य की विधागत विशेषताओं और अंतर्वस्तु का मिलाकर अध्ययन किया जाना चाहिए।

      विधा रूप के साथ मिलाकर यदि महाकाव्य की आलोचना लिखी जाएगी तो उसके परिणाम अंतर्वस्तुवादी आलोचना से अलग आएंगे। महाकाव्य की अंतर्वस्तुवादी आलोचना अधूरी और अवैज्ञानिक आलोचना है. (चेतना विकास मिशन).

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