अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

 अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस:*आज के दौर में ट्रेड यूनियन आंदोलन और चुनौतियां* 

Share

 संजय पराते)*

आजादी के आंदोलन में ट्रेड यूनियनों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है| वैसे तो वर्ष 1920 में आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) की स्थापना के साथ हमारे देश में संगठित ट्रेड यूनियन आंदोलन की शुरूआत मानी जा सकती है, लेकिन इससे पहले 1908 की जुलाई में बाल गंगाधर तिलक को राजद्रोह के मुकदमे में 6 साल की सजा सुनाये जाने के बाद बंबई के चार लाख मजदूरों ने 6 दिनों की ऐतिहासिक हड़ताल करके आजादी के आंदोलन में सड़कों पर उतरने का ऐलान कर दिया था| यह मजदूर वर्ग की पहली राजनैतिक लड़ाई थी, जिसने उपनिवेशवादी शोषण और आर्थिक बदहाली के खिलाफ आम जनता के असंतोष को अभिव्यक्त किया| 1936 में किसान सभा की स्थापना के साथ साम्राज्यवाद के खिलाफ मजदूर-किसान एकता की वर्गीय भावना तेज हुई| 1946 में नौसेना का विद्रोह, जिसमें एक साथ कांगेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे फहराए गए थे, इसकी चरम अभिव्यक्ति थी, क्योंकि हर वर्दी के नीचे एक किसान छुपा हुआ था| इस विद्रोह ने देश से अंग्रेजों की विदाई को अंतिम रूप दे दिया| 

आजादी के बाद ट्रेड यूनियनों की भूमिका देश के नव-निर्माण के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गई| हालांकि ट्रेड यूनियनें बनती हैं मजदूरों की आर्थिक समस्याओं को केंद्र में रखकर, लेकिन हमारे देश में ट्रेड यूनियनों की भूमिका सामूहिक सौदेबाजी की ताकत पर मजदूरों के केवल वेतन-भत्तों/मजदूरी बढ़ाने तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि उसे व्यापक राजनैतिक सवालों से भी जूझना पड़ा है| इस ट्रेड यूनियन आंदोलन ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का समर्थन किया, तो आपातकाल के खिलाफ भी उसे जूझना पड़ा| महंगाई और बेरोजगारी के सवाल को उसने हमेशा केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों से जोड़कर देखा| मजदूर वर्ग की व्यापक एकता बनाए रखने के लिए उसे सांप्रदायिक-उन्मादी ताकतों से भी लड़ना पड़ा है| वह वैश्वीकरण-उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों से पैदा हो रहे संकट के खिलाफ संघर्ष करने के प्रति भी सचेत है और इन नीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए व्यापक मजदूर-किसान एकता का निर्माण करने की जरूरत को भी शिद्दत से महसूस कर रहा है| वह समझ रहा है कि इस एकता के बल पर ही आम जनता के लोकतांत्रिक आंदोलनों का निर्माण किया जा सकता है| इस प्रकार, आजादी के आंदोलन के दौरान और उसके बाद भी ट्रेड यूनियनों की भूमिका केवल मजदूरी बढ़ाने जैसे आर्थिक मुद्दों तक ही सीमित नहीं रही है, बल्कि हमारी मानव सभ्यता को आगे बढ़ाने, समूचे समाज को संस्कारित करने और लोकतंत्र को बचाने-बढ़ाने और उसे मजबूत करने की रही है|

लेकिन यूरोप के ट्रेड यूनियन आंदोलन और हमारे देश के ट्रेड यूनियन आंदोलन में एक बुनियादी अंतर है| यूरोपीयन समाज सामंतवाद की राख से पैदा हुआ पूंजीवादी समाज है| हमारे देश में सामंती समाज को ध्वस्त करके पूंजीवाद की स्थापना नहीं हुई है, बल्कि पूंजीवाद को सामंतवाद पर रोपा गया है| इसलिए यूरोप के पूंजीवाद ने भूमि के जिन सामंती संबंधों को बेहिचक नष्ट किया, भारत में ये संबंध बने रहे| यह पूंजीवाद का सामंतवाद के साथ गठजोड़ था, जिसके कारण पूंजीवादी संविधान के बुनियादी लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति हमारे देश का शासक वर्ग और सत्ताधारी पार्टियां कभी ईमानदार नहीं रही| नतीजन, धर्म-जाति-भाषा-क्षेत्र के आधार पर सामंती मूल्यों को बढ़ावा मिला, वैज्ञानिक सोच को दरकिनार करके अंधविश्वास और पोंगापंथ को पाला-पोसा गया, धर्मनिरपेक्षता पर सांप्रदायिक राजनीति को हावी होने दिया गया और धनबल और पहचान की राजनीति केंद्र में लाई गई| यह सब काम सुनियोजित तरीके से किया गया, ताकि पूंजीपतियों के मुनाफे पर कोई आंच न आने पाए और पूंजी के खिलाफ विकसित हो रहे संघर्ष को हर स्तर पर कमजोर किया जा सके| इस प्रक्रिया का हमारे समाज पर काफी बुरा प्रभाव पड़ा| जनवादी-प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष ताकतें कमजोर हुई और इसका उतना ही बुरा असर हमारे देश के ट्रेड यूनियन आंदोलन पर भी पड़ा, क्योंकि सार रूप में ट्रेड यूनियनें हमारे समाज और सामाजिक संगठन का ही एक हिस्सा है| परंपरागत वामपंथी ट्रेड यूनियनें कमजोर हुई हैं| वामपंथी ट्रेड यूनियनों के कमजोर होने का अर्थ है, मजदूरों की वर्गीय एकता का कमजोर पड़ना| अब धर्म और जाति के आधार पर काम करने वाली ट्रेड यूनियनों का भी उदय हुआ| ये ऐसी ट्रेड यूनियनें हैं, जो मजदूरों को एक ‘वर्ग’ के रूप में संगठित होने और उनमें मजदूरवर्गीय एकता की भावना विकसित होने से रोकती हैं|

नवउदारीकरण के दौर ने समूचे परिदृश्य को बदल दिया है और ट्रेड यूनियनों के सामने नई चुनौतियां पेश हुई हैं| मुनाफे अधिकतम करने की कोशिश में वित्तीय पूंजी और ज्यादा खूंखार और आक्रामक हुई है और आदिम संचय की प्रक्रिया ने परजीवी पूंजीवाद को जन्म दिया है| इस तरह लोकतंत्र, वैज्ञानिक चेतना और एक विकसित व सभ्य समाज के निर्माण के काम को पूंजीवाद ने त्याग दिया है| पूंजीवादी लोकतंत्र ने आम जनता और विशेषकर मजदूर वर्ग को जो अधिकार दिए हैं, उसे छीनने की प्रक्रिया तेज हो गई है और समूचे मजदूर वर्ग को बंधुआ दासता के युग में ढकेलने की कोशिश हो रही है| इसी का परिणाम है : श्रम कानूनों का निरस्तीकरण और श्रम संहिताओं को उन पर थोपा जाना| इस पूंजी ने वैचारिक वर्चस्व कायम करने के लिए मीडिया सहित अपने सारे संसाधनों को झोंक दिया है| जो कुछ आज तक संघर्षों से हासिल हुआ है, उसे बचाने की लड़ाई आज ट्रेड यूनियनों की मुख्य चिंता बन गई है। आज ट्रेड यूनियन आंदोलन का जोर चार श्रम संहिताओं की वापसी और पुराने श्रम कानूनों की बहाली पर है ; क्योंकि जो हासिल है, उसे बचाकर ही, और जो खो गया है, उसे फिर से पाकर ही आप आगे की लड़ाई लड़ सकते हैं| 

उदारीकरण के इन तीन-चार दशकों में भारत को विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ा गया है| इससे उच्चतर वर्ग खुशहाल हुआ है तथा उनकी आय और क्रय-शक्ति बढ़ी है| वही दूसरी ओर, मेहनतकश वर्ग का शोषण और तेज हुआ है और वे जिंदा रहने लायक मजदूरी भी नहीं कमा पा रहे हैं। संगठित क्षेत्र में रोजगार घटा है और असंगठित क्षेत्र में मजदूरों की संख्या कुल श्रम-शक्ति का 93% तक पहुंच गई है| स्थायी नियमित मजदूरों की जगह ठेका मजदूर ले रहे हैं, जो सेवा अवधि और सामाजिक सुरक्षा के लाभ से वंचित होकर घोर दरिद्रता का जीवन जी रहे हैं| संगठित क्षेत्र के विनिर्माण उद्योग में 1980 के दशक में यदि 100 रूपये का सामान तैयार किया जाता था, तो इसमें मजदूरी का हिस्सा 30 रूपये होता था, जबकि कच्चे माल की लागत 50 रूपये होती थी और पूंजीपति को मुनाफा 20 रूपये होता था| पिछले 40-45 सालों में यह स्थिति उलट गई है| आज मजदूरी का हिस्सा घटकर 10 रूपये से भी कम रह गया है और पूंजीपति का मुनाफा बढ़कर 60 रूपये से अधिक हो गया है| यह मेहनतकशों के बढ़ते शोषण को ही दिखाता है| 

इसका नतीजा है कि आज गरीब तबका बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच बनाने में असमर्थ हैं। बेरोजगारी नई ऊंचाई पर पहुंच गई है और आज पिछले 50 सालों के सर्वोच्च स्तर पर है| सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण बेरोजगारी दर 7.44% है, जबकि शहरी बेरोजगारी दर 10.09% (दिसंबर 2022 की स्थिति में) है। सार्वजनिक क्षेत्र को कमजोर करने की दिशा में जो कदम सरकार उठा रही है, उससे सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार पाने की युवाओं की आशा ख़त्म हो रही है और उन पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। 

भारतीय राजनीति के उदारीकरण के बाद के चरण की एक उल्लेखनीय विशेषता है – नीति निर्माण और क्रियान्वयन पर कॉर्पोरेटों द्वारा अत्यधिक नियंत्रण प्राप्त करना। मोदी राज में इस नियंत्रण ने सारी हदें तोड़ दी हैं। सार्वजनिक संसाधनों का बड़े पैमाने पर निजीकरण कॉर्पोरेट तुष्टिकरण का मुख्य तरीका है। यहां तक कि लाभ कमाने वाले सार्वजनिक उपक्रमों का भी निजीकरण किया जा रहा है और कॉर्पोरेट एकाधिकार को आगे बढ़ाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा है। देश की विशाल ढांचागत संपत्ति निजी कॉर्पोरेट कंपनियों और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों सहित बड़े व्यावसायिक घरानों को सौंपी जा रही है। यह पूरी अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा और रोजगार के नुकसान और बेरोजगारी की खतरनाक स्थिति को और खराब करेगा। ऐसा अनुमान है कि लॉकडाउन के दौरान लगभग 12 से 20 करोड़ मजदूरों को अपना रोजगार गंवाना पड़ा है। इस प्रकार, उदारीकरण की प्रक्रिया ‘रोजगारहीन विकास’ से आगे बढ़कर ‘रोजगार-हानि’ से जुड़ गई है| 

भारतीय अर्थव्यवस्था की यह स्थिति इसके बावजूद है कि देश की विकास दर (सकल घरेलू उत्पाद – जीडीपी में) बढ़ रही है| इसके बावजूद भारत को संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक 2021-22 में 191 देशों में 132वां स्थान मिला है। वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की रैंकिंग वर्ष 2021 में 121 देशों में से 101 से गिरकर वर्ष 2022 में 107 हो गई है। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट, 2022 की रैंकिंग में भारत को 146 देशों की सूची में 135वां स्थान मिला है। इसका अर्थ है कि जीडीपी विकास दर में वृद्धि आम जनता की समृद्धि और संपन्नता की सूचक होने के बजाये, भारतीय समाज में आर्थिक असमानता बढ़ने की और मानव विकास सूचकांक में और ज्यादा गिरावट आने की सूचक हो गई है| 

इन्हीं नीतियों का नतीजा है कि भारत में अरबपतियों की कुल संख्या वर्ष 2020 के 102 से बढ़कर वर्ष 2022 में 166 हो गई है। इसके विपरीत लगभग 23 करोड़ लोग — दुनिया में सबसे ज्यादा – अति-गरीबी में रहते हैं। ऑक्सफैम की रिपोर्ट ‘सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट : द इंडिया सप्लीमेंट’ से पता चलता है कि भारत की 40 प्रतिशत से अधिक संपत्ति का स्वामित्व इसकी जनसंख्या के मात्र 1 प्रतिशत के पास है। 10 सबसे अमीर भारतीयों की कुल संपत्ति वर्ष 2022 में 27.52 लाख करोड़ रूपये थी और वर्ष 2021 की तुलना में इसमें 32.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास कुल संपत्ति का केवल 3 प्रतिशत हिस्सा है। इसका अर्थ है कि विकास की पूरी प्रक्रिया में मेहनतकश जो संपत्ति पैदा कर रहे हैं, उसे हडपने की प्रक्रिया अश्लीलता की हद तक पहुंच गई है| भारत का ट्रेड यूनियन आंदोलन आम जनता और मेहनतकशों पर उदारीकरण जनित इन दुष्प्रभावों से लड़ रहा है|

उदारीकरण की इस प्रक्रिया ने न केवल देश की अर्थव्यवस्था और आम जनता के जीवन-अस्तित्व को सर्वनाश की ओर धकेला है, इसने एकजुट मजदूर वर्ग की अवधारणा को भी खंडित किया है| इसने मजदूर वर्ग के भीतर ही विभिन्न संस्तरों को भी जन्म दिया है, जिससे मेहनतकशों में वर्गीय एकता की भावना कमजोर हुई है| कुल श्रम-शक्ति में संगठित क्षेत्र के मजदूरों की हिस्सेदारी घटी है और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का प्रतिशत बढ़ा है और दोनों के बीच में आय/मजदूरी की असमानता भयावह रूप से बढ़ी है| आज देश के असंगठित क्षेत्र का मजदूर अपने जीवन-अस्तित्व की रक्षा के लिए ठीक उसी प्रकार संघर्ष कर रहा है, जैसे कि संकटग्रस्त किसान समुदाय| 

नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष में इन विभिन्न संस्तर के मजदूरों को एकजुट करना – विशेषकर निजी उद्योगों के मजदूरों को संगठित करना – और उनमें मजदूर वर्गीय भावना पैदा करना ट्रेड यूनियन आंदोलन के लिए एक बड़ी चुनौती है| इन निजी उद्योगों में अब ट्रेड यूनियनों का पंजीयन ही बहुत कठिन काम है, क्योंकि नियोक्ता शुरूआत में ही नेतृत्वकर्ता मजदूरों को अपने दमन का निशाना बनाते हैं| ऐसे मामलों में राज्य के श्रम विभाग से भी कोई मदद नहीं मिलती, क्योंकि पूंजीपतियों के पक्ष में उन्हें पहले ही निष्प्रभावी बना दिया गया है|

इन परिस्थितियों ने मजदूर वर्ग में प्रतिक्रियावादी विचारधारा और अपसंस्कृति के प्रसार के लिए उर्वर जमीन तैयार की है, क्योंकि मजदूरों की चेतना में सामंती मूल्य पहले से ही जिंदा है| कॉर्पोरेट-नियंत्रित मीडिया ने भी इन प्रतिक्रियावादी मूल्यों को बढ़ावा दिया है और मजदूर वर्ग के एक बड़े हिस्से को प्रभावित किया है| पूंजीवादी मीडिया ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से व्यक्तिगत सफलता के मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर उभारा है और ट्रेड यूनियनों के सामूहिक प्रयासों को नजरअंदाज किया है| इससे मजदूर वर्ग के एक हिस्से में, ख़ास तौर से शिक्षित और मध्यवर्गीय युवाओं में, जो व्यक्तिगत प्रयासों में ज्यादा और ट्रेड यूनियन गतिविधियों में कम विश्वास रखते हैं, भ्रम पैदा हुआ है| मजदूर वर्ग के बीच जाति, धर्म और इसी प्रकार की पहचान आधारित संगठनों का प्रभाव भी बढ़ा है और इससे वर्ग आधारित एकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है|  

मजदूर वर्ग के प्रगतिशील आंदोलन को इन विपरीत प्रवृत्तियों का निश्चित तौर पर सामना करना पड़ रहा है, लेकिन केवल एक मजबूत मजदूर वर्गीय आंदोलन के जरिये ही इसका मुकाबला किया जा सकता है| ऐसे आंदोलनों को विकसित करने का आधार भी उन्हीं भौतिक परिस्थितियों में छुपा है, जिसमें पूंजी उन्हें अपने दमन और शोषण का शिकार बनाती है| वर्गीय उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष की प्रक्रिया में ही वर्गीय एकता की अवधारणा का विकास होगा| इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने के उचित रास्ते खोजने होंगे और पूंजी के हमलों के खिलाफ एक प्रभावशाली संघर्षों में उसे लामबंद करना होगा| आज जब भारतीय पूंजी का अंतर्राष्ट्रीयकरण हो रहा है और बड़े पूंजीपतियों के हाथों कई औद्योगिक और गैर-औद्योगिक कंपनियों का नियंत्रण हैं और ये कंपनियां वैश्विक उत्पादन के ढांचे से बंधी हुई है, मजदूर वर्ग में विभिन्न संस्तरों का होना भारतीय पूंजीवाद की विशेषता बन गया है| इन मजदूरों की चेतना का स्तर भी भिन्न-भिन्न होगा, लेकिन ये सभी पूंजी के शोषण के शिकार है| 

वर्ष 2008 से वैश्विक मंदी जारी है और हाल-फिलहाल इससे बाहर निकलने की कोई संभावना नजर नहीं आती| इस मंदी के प्रभाव से हमारा देश भी अछूता नहीं है| इसका अर्थ है कि कामकाजी लोगों की आर्थिक हालत में गिरावट आ रही है| इसी समय, हमारे देश की सरकारें विदेशी पूंजी और निजी निवेशकों की भावनाओं को सहला रही है| इस मंदी से निकलने के लिए और अपने मुनाफों को बनाए रखने के लिए पूंजीपति वर्ग मेहनतकशों पर बोझ लाद रहा है| मजदूर वर्ग को श्रम कानूनों से वंचित करना और उन पर श्रम संहिताओं को थोपा जाना इसी प्रयास का हिस्सा है, जो उन्हें संगठन बनाने और सामूहिक सौदेबाजी करने के बुनियादी अधिकार से वंचित करता है| इससे पूंजी और श्रम के बीच का अंतर्विरोध बढ़ रहा है| नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ संघर्षों को मजबूत करके ही ट्रेड यूनियनें इसका हल निकाल सकती है| इसलिए एक संयुक्त ट्रेड यूनियन आंदोलन को विकसित करने की सारी संभावनाएं भी मौजूद हैं|

लेकिन नवउदारवादी नीतियों के खिलाफ संघर्षों को तब तक व्यापक नहीं बनाया जा सकता, जब तक कि इसे मोदी सरकार की सांप्रदायिक नीतियों के खिलाफ संघर्षों से जोड़ा नहीं जाता| वर्ष 2014 से मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी ताकतें मजबूत हुई है| यह सरकार फासीवादी आरएसएस के हिंदुत्व के एजेंडे को आक्रामक रूप से लागू कर रही है| सामाजिक-इथनिक विभाजनों को बरकरार रखते हुए भी वह इन सभी तबकों पर ‘हिंदुत्व की पहचान’ को थोपने में काफी हद तक सफल हुई है| इसका मजदूर वर्ग और कामकाजी लोगों पर भी बुरा असर पड़ा है| इसलिए, आज हिंदुत्व की विचारधारा का मुकाबला करना और एक ऊंचे स्तर की राजनैतिक चेतना के साथ वर्गीय एकता का निर्माण करना ट्रेड यूनियन आंदोलन के विकास के लिए बहुत जरूरी है| इसके लिए ट्रेड यूनियनों को कारखानों और कार्य-स्थलों से बाहर निकलकर मजदूरों और मेहनतकशों की बस्तियों में जाना होगा और उनके सामाजिक मुद्दों, जैसे : दलित उत्पीड़न व आदिवासियों के शोषण, को जबरदस्त तरीके से उठाना होगा तथा उन्हें प्रगतिशील सांस्कृतिक गतिविधियों से जोड़ना होगा| इसका अर्थ है कि ट्रेड यूनियनों को अपने संकीर्ण आर्थिक नजरिये से ऊपर उठकर सामाजिक-सांस्कृतिक दायित्वों का भी निर्वहन करना होगा|

मार्क्स का नारा था : दुनिया के मजदूरों एक हो! इस नारे की सबसे बड़ी पूंजीवादी आलोचना यही है कि हमारे देश में मजदूर जब किसी एक संगठन के नीचे नहीं हैं, तो दुनिया के मजदूर कैसे एक होंगे? लेकिन मार्क्स के इस नारे का अर्थ मजदूरों के किसी एक संगठन के नीचे एकत्रित होने का नहीं है| इस नारे का वास्तविक अर्थ यही है कि दुनिया के स्तर पर साम्राज्यवाद के खिलाफ और अपने-अपने देशों के भीतर सरकारों की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष में मजदूर एकजुट हों| आज भारत अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की तानाशाही की जकड में है, कॉर्पोरेट और हिंदुत्व के गठबंधन ने देश की अस्मिता को दांव पर लगा दिया है, संवैधानिक संस्थाएं चरमरा रही है और एक फासीवादी तानाशाही का खतरा देश के दरवाजे पर खड़ा है| ट्रेड यूनियन आंदोलन के सामने चुनौती यही है कि एक वर्ग विहीन और शोषण विहीन समाज निर्माण की दिशा में बढ़ने के लिए तथा मानव सभ्यता द्वारा अभी तक हासिल की गई उपलब्धियों को बचाने के लिए पूरे देश के मजदूर वर्ग को एकजुट करें, इस एकजुटता के आधार पर मजदूर-किसान एकता का निर्माण करें और इस एकता के आधार पर व्यापक लोकतांत्रिक जन आंदोलन का निर्माण करें, ताकि फासीवादी खतरे को शिकस्त दी जा सकें| जनतंत्र पर आधारित पूंजीवादी समाज ही समाजवाद की ओर आगे बढ़ने की राह खोल सकता है| ट्रेड यूनियन आंदोलन को इस चुनौती को स्वीकार करना होगा| मेहनतकशों की व्यापक वर्गीय एकता ही शासक वर्ग की चुनौती का मुकाबला कर सकती है| इस मुकाबले के लिए आज पहला कदम यही होगा कि हिंदुत्व-कॉर्पोरेट गठजोड़ पर आधारित संघ-भाजपा की फासीवादी सरकार की हार इस लोकसभा चुनाव में सुनिश्चित की जाएं।

*(लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : (मो) 94242-31650, ई-मेल : sanjay.parate66@gmail.com)*  

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें