अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

किसान आंदोलन क्या इमरजेंसी के खिलाफ दूसरा जन आंदोलन है

Share

रत्ना, अबाक कांडो

ट्रांसलेशन: अरुण कुमार

भारत के कुछ राज्यों में सरकार विरोधी आंदोलनों की शुरुआत होती आंदोलन का नेतृत्व कर रहे नेता केंद्र सरकार की नीतियों को जन-विरोधी बताते हुए उनका विरोध करते हैं।इस आंदोलन का तेज़ी से विस्तार होता है और देशभर के लोगों का ध्यान इस आंदोलन की ओर आकर्षित होने लगता है।जल्द ही, नाकाबंदी, हड़ताल, विरोध प्रदर्शन, रैलियां – और पुलिस द्वारा इन सबको रोकने के लिए लगातार बल प्रयोग किया जाता है।

लेकिन सरकार टस से मस नहीं होती है और आंदोलन कर रहें लोगों की मांगों को मानने से इनकार कर देती है।इसपर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे नेता अपनी मांगो को लेकर संघर्ष के लिए संकल्प लेते है। वे मांग करने लगते हैं कि देश का नेतृत्व इस्तीफा दें।

वे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों से संपर्क करते हैं और केंद्र को चुनौती देने में उनकी मदद करते हैं।

आंदोलन लगातार बढ़ता जाता है…

आपको ये दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन की पटकथा की तरह लग रही होगी, है ना?

खैर, ये असलियत में प्रसिद्ध ‘जेपी आंदोलन’ की पटकथा है, जिसने 1970 के दशक में संपूर्ण भारत को हिला दिया था।

एक जैसी पटकथा, 40 साल बाद इतिहास खुद को दोहराता हुआ

गाजीपुर सीमा पर चल रहे धरना स्थल पर भारी संख्या में जुटे किसान

दो ऐतिहासिक आंदोलन, दोनों के बीच 40 साल से अधिक का अंतराल, फिर भी दोनों में आश्चर्यजनक रूप से समानता नजर आती है।

असल में कहें तो, दोनों आंदोलनों की पटकथा के कुछ भाग न केवल मेल खाते हैं, बल्कि लगभग समान हैं।

‘संपूर्ण क्रांति’ के रूप में विख्यात जेपी आंदोलन ने राजनीतिक रूप से स्वतंत्र भारत के लिए प्रथमिकता को चिह्नित करने का काम किया।

इस आंदोलन का जन्म बिहार में छात्रों द्वारा शिक्षा सुधार और सरकारी हलकों में भ्रष्टाचार को समाप्त करने की मांग के साथ हुआ था।

करिश्माई सामाजिक कार्यकर्ता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में, बिहार में हो रहे विरोध प्रदर्शनों को गुजरात से भी समर्थन मिलना शुरू हो गया। इसके तुरंत बाद, अन्य राज्य भी इसमें शामिल हो गए।

कुछ ही दिनों में, 1974 के समय ये आंदोलन एक विशाल सुनामी में बदल गया, जिसने अपने अंतिम लक्ष्य यानी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर अपने कदम बढ़ाना शुरु कर दिया। उनकी नीतियों के खिलाफ जनआक्रोश ने अपना क्रोध उनकी ओर निर्देशित कर दिया।

अब आंदोलन का अंतिम लक्ष्य और संदेश स्पष्ट था: इंदिरा को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना होगा।

उनके खिलाफ लगातार बढ़ रहे विरोध और उसी समय आए एक अदालत के आदेश ने उनकी प्रधानमंत्री के तौर पर भूमिका को अवैध करार दे दिया – इसके बाद निरंकुश इंदिरा ने भारत को दो वर्षों के लिए ‘आपातकाल’ में झोंक दिया।

1975 से 1977 तक, आधुनिक भारतीयों को ‘आपातकाल’ के सनक के तहत निरंकुशता का पहला झटका मिला। लेकिन आखिरकार उसी साल इंदिरा को निरंकुश शासन को समाप्त करने और आम चुनाव कराने के लिए मजबूर होना पड़ा।

इस आंदोलन से एक नया विकल्प उभरकर सामने आया, ‘जनता पार्टी’ के नाम से एक राजनीतिक मोर्चा बनाया गया।

लोकसभा चुनावों में जनता पार्टी ने एक शक्तिशाली कांग्रेस – और इंदिरा को भी – गद्दी से उतार फेंका और भारत की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई।

उस समय मोरारजी देसाई को पार्टी के नेतृत्व द्वारा प्रधानमंत्री के रूप में चुना गया। उनके बाद चरण सिंह ने प्रधानमंत्री के रुप में अल्प समय के लिए कार्यभार संभाला था। कुछ ही समय में, जनता पार्टी का जिस नाटकीय रुप से गठन व उभार हुआ था ठीक वैसे ही पार्टी टूट भी गई।

अगले चुनावों में जीत हासिल करके और प्रधानमंत्री के तौर पर वापसी कर इंदिरा ने अपने विरोधियों के उनके पतन के आंकलन को गलत साबित कर दिया.

इस तरह जनता पार्टी तो बाद में फीकी पड़ गई, लेकिन जेपी आंदोलन की विरासत अमर हो गई।

अब का मिशन: एक नई पार्टी?

सवाल यह है कि क्या किसानों का चल रहा आंदोलन भी जनता पार्टी की तर्ज पर एक राजनीतिक मोर्चे के रूप में विकसित होगा और चुनावी राजनीति में नरेंद्र मोदी सरकार को टक्कर देगा?

क्या वे बंगाल की राजनीतिक अखाड़े की विजेता ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) पार्टी के साथ मिलकर महागठबंधन बनाएंगे?

अब तक जो कुछ भी सामने आया है उससे एक बात साफ है, आंदोलन निश्चित रूप से 1970 के दशक के प्रतिष्ठित जेपी आंदोलन के नक्शेकदम पर चल रहा है।

जेपी आंदोलन छात्रों से शुरू हुआ था और बाद में इसे सभी क्षेत्रों के लोगों का समर्थन मिला। वहीं अखिल भारतीय स्वरुप लेने से पहले आंदोलन बिहार और गुजरात में शुरू हो गए था।

इसी तरह, वर्तमान आंदोलन किसानों द्वारा शुरू किया गया था और अब इस आंदोलन ने आम जनता की भागीदारी के लिए अपने दरवाजे खोल दिए हैं।

जेपी की मांगें शुरुआती दिनों में, शिक्षा सुधार और सरकार में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की थीं। बाद में इंदिरा के इस्तीफे के आह्वान को शामिल करने के लिए इसका विस्तार किया गया।

यूपी के किसान नेता राकेश टिकैत के नेतृत्व में, मौजूदा आंदोलन प्रमुख रुप से सरकार द्वारा 2020 में लाए गए नए कृषि कानून को रद्द करने की मांग की जा रही है।

उनकी बातों में अभी तक सीधे तौर पर प्रधानमंत्री मोदी के इस्तीफे की मांग नहीं की गई है। लेकिन सोशल मीडिया पर आंदोलन के समर्थक तेजी से उसी रास्ते की ओर बढ़ते दिख रहे हैं।

इस लिहाज से अप्रैल का महीना अहम रहा।

देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर के बीच, किसान आंदोलन के समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया के माध्यम से मोदी के इस्तीफे की मांग कर रहा है।

परोक्ष रूप से, यह विद्रोह – जेपी आंदोलन की ही तरह – धीरे-धीरे भारत के मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व को हटाने की मांग की ओर बढ़ रहा है।

सरकार के खिलाफ तत्काल आक्रोश का कारण कोरोना महामारी की दूसरी लहर में भयावह ऑक्सीजन संकट से निपटने में सरकार की विफलता बड़ा कराण है।

उस समय जेपी थे, अब टिकैत हैं

दोनों आंदोलनों के बीच एक और समानता, उनके मुख्य नेताओं द्वारा अपनाई गई रणनीति में भी झलकती है।

सिर्फ बिहार और बाद में गुजरात में आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने में महीनों बिताने के बाद, जयप्रकाश नारायण ने बड़ी छलांग लगाते हुए देश भर में समर्थन हासिल किया।

जेपी जानते थें, केवल दो राज्यों पर ध्यान केंद्रित करने और समर्थन जुटा लेने से, इंदिरा के कद के राजनीतिक नेता का मुकाबला करना संभव नहीं था।

आज का जय प्रकाश?

ठीक उसी तरह बड़ी छलांग लगाते हुए राकेश टिकैत राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच बना रहे हैं।

शुरुआती दिनों में, टिकैत मुख्य रूप से दिल्ली-यूपी सीमा के नजदीक गाजीपुर में चल रहे किसानों के विरोध प्रदर्शन का चेहरा थे।

उन्हें उस समय शायद ही समग्र किसान आंदोलन के चेहरे के रुप में देखा गया हो।

आंसुओं ने सारा खेल बदला

इस साल 26 जनवरी को किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान टिकैत का कद तेजी से बढ़ा।

उस अराजक दिन, जब प्रदर्शनकारी किसानों ने अपनी मूल योजना से हटकर ट्रैक्टरों पर दिल्ली के लाल किले पर धावा बोल दिया था और उसके बाद जब दिल्ली पुलिस गाजीपुर विरोध शिविर में रात के समय कार्रवाई कर धरना स्थल खाली कराने गई थी, तभी दृढ़ता से खड़े टिकैत की आंखों से निकले आंसुओं ने आंदोलन में नई जान फूंक दी।

इस घटना के कुछ ही हफ्तों के बाद, राकेश टिकैत को लेकर हर जगह चर्चा होने लगी उनका नाम हर घर तक पहुंच गया। वो सरकार के विरोध का चेहरा बनकर उभरे और स्पष्ट रूप से आंदोलन के नेतृत्व में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए। उन्होंने गुरनाम सिंह चादुनी जैसे अन्य किसान नेताओं को काफी पीछे छोड़ दिया था।

जनसमूहों का सैलाब

वास्तव में, जिस तरह जयप्रकाश नारायण के दौरों के साथ जेपी आंदोलन भारत के हर कोने तक गया, उसी तरह टिकैत भी, इस आंदोलन को देश के हर हिस्से तक ले जाने की कोशिश करने लगे। टिकैत ने महापंचायतों के माध्यम से देश के हर क्षेत्र में किसाने तक अपनी बात पहुंचानी शुरू की।

उन्होंने कम से कम सात राज्यों – यूपी, हरियाणा, पंजाब, पश्चिम बंगाल, गुजरात, राजस्थान, आंध्र प्रदेश में भारी संख्या में आए किसानों को संबोधित किया।

टिकैत की महापंचायत

जेपी आंदोलन के दौरान, जब निरंकुश इंदिरा ने देश में दो वर्षों तक आपतकाल का अंधकार फैला दिया और आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लोगों को जकड़ लिया, तब भी आंदोलनकारियों ने हिम्मत नहीं हारी और आंदोलन को बिखरने नहीं दिया। इसके बजाय, उन्होंने संयम रखा और सही समय का इंतजार करने लगे।

ठीक उसी तरह, देश में फैले जानलेवा महामारी के बावजूद और सरकार द्वारा किसानों की मांगों को नहीं मानने की जिद के बीच प्रदर्शनकारी किसानों ने संयम रखा और सही समय का इंतजार करने का फैसला किया है।

उन्होंने सचमुच दिल्ली के आसपास के विरोध स्थलों को ‘लघु-सभ्यताओं’ में बदल दिया है, यहां रह रहे कई ‘निवासियों’ ने खुले तौर पर 2024 तक वहीं डटे रहने की कसम खाई है – जब तक देश में आम चुनाव का बिगुल ना बज जाए।

प्रधानमंत्री की दौड़ में टिकैत?

जब भी आम चुनाव की बात आती है, तो सबसे बड़ा सवाल उठता है: क्या किसान आंदोलन से एक मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टी विकल्प के रूप में विकसित होकर निकलेगी?

क्या हम राकेश टिकैत के नेतृत्व में दूसरी जनता पार्टी देखेंगे?

क्या 2024 के चुनाव में टिकैत प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर मोदी से सीधी टक्कर लेंगे?

और सबसे महत्वपूर्ण बात, क्या हम टिकैत और उनकी नई पार्टी को सत्ता में आते देखेंगे – ठीक वैसे ही जैसे 1977 में जनता पार्टी ने किया था?

टिकैत ने धरना स्थलों को किसानों का गांव बताया, वो अपनी पत्नी और परिवार के साथ गाजीपुर सीमा पर होली मनाते हुए

51 वर्षीय राकेश टिकैत से अक्सर पूछा जाता है – कभी दबी जुबान में तो कभी स्पष्ट रूप से – क्या वो आगे के लिए चुनावी राजनीति के रास्ते को एक विकल्प के रुप में देखते हैं। जिसपर उन्होंने हर बार यही कहा है कि अभी उनके दिमाग में केवल आंदोलन और उसकी मांगें हैं, और कुछ भी नहीं।

फिर भी, जब तक भारत में महामारी की दूसरी लहर नहीं आई थी वो सामूहिक सभाओं में लोगों से भाजपा को सत्ता से बाहर करने का आह्वान करते हुए चुनाव में भाजपा को वोट नहीं देने की अपील करते नजर आए।

कुछ लोग तर्क देंगे कि यदि टिकैत वास्तव में राजनीति में नहीं आने की मंशा रखते है, तो वो निश्चित रूप से हाल में हुए विभिन्न राज्यों के चुनावी समर में नहीं कूदते , विशेषकर बंगाल में – जहां वे खुले तौर पर जोर-शोर से भाजपा के खिलाफ प्रचार कर रहे थे।

वैसे टिकैत चुनावी राजनीति से अनजान नहीं है, इस मामले में वो दो बार अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। उन्होंने अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश से एक-एक बार विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ा है, जिसमें वे असफल रहे हैं।

अब बस इसी का इंतजार है की आने वाले समय में उनकी तरफ से इस मुद्दे पर को साफ संकेत मिल सके। इसके लिए हमें बारिकी से उनकी हर चाल को देखना पड़ेगा और उनके मायने समझने पड़ेंगे।

टिकैत साफ-साफ तो नहीं बताएंगे, लेकिन उम्मीद है कि वो आगे क्या करने वाले हैं इसके पर्याप्त संकेत वो जरूर देते रहेंगे, जिससे देश के साथ-साथ उनका और किसानों का भविष्य तय होना है।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें