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राम राज नहीं, संविधान राज होना जरुरी

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प्रफुल्ल कोलख्यान

छोटे-मोटे विवादों, रुष्टताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अयोध्या के राम मंदिर में भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा हो गई। स्वाभाविक रूप से सभी राम भक्त प्रसन्न हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी उनके भक्तों ने भगवान मान लिया है। जाकी रही भावना जैसी! यह सब तो मानने पर ही है। पुरानी कहावत है- मानो तो देव, नहीं तो पत्थर।

देश और देश के आम नागरिकों को उन से एक बेहतर और कुशल ‘बागबान’ होने की उम्मीद थी, लेकिन उनकी दिलचस्पी भगवान में थी। जाहिर है उनके भक्त लोग कुछ अधिक ही प्रसन्न हैं। उनमें से कुछ की भक्ति के उछाल में आक्रामक होने के भी लक्षण दिख रहे हैं। वे ‘वाणी विदग्ध’ तो पहले भी कम नहीं थे, न उन में ओज कम था। अब तो सब कुछ के और अधिक-अधिक होने की आशंका है। खैर, आशंकाओं का क्या! आशंका तो भय की पहली संतान होती है।  

‘भय मुक्त’ हो चुके या ‘अभय दान’ पाये कुछ भक्तों का कहना है कि आज के दिन उन्हें सांस्कृतिक आजादी मिलने का सुख हो रहा है। कुछ तो यह भी मान रहे हैं कि राम राज अब बस आ ही गया है, बस घोषणा किये जाने की देर है। वैसे भी घोषणाओं में क्या रखा है, घोषणाएं तो होती ही रहती हैं, जरूरत हुई तो इसकी भी घोषणा कभी भी हो सकती है। रात के ‘आठ बजे’ या किसी अन्य ‘शुभ मुहुर्त’ पर।

राम राज के प्रसंग को ध्यान से देखना चाहिए। किसी भावुक आवरण में आच्छादित कर किसी सुंदर समरस भविष्य में सुलझाने के लिए इसे किसी ‘भविष्य पुराण’ के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। क्या है राम राज का मतलब। राम के विभिन्न रूप हैं- निर्गुन और सगुन! रामकथा के विभिन्न स्रोत हैं, इन के विभिन्न संदर्भ अकादमिक महत्व के बनकर रह गये हैं। व्यावहारिक रूप से, इस समय तुलसीदास रचित रामचरितमानस को ही आधार ग्रंथ या स्रोत के रूप में स्वीकार किया गया है।

राम राज के बारे में रामचरितमानस में वर्णित है- दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा। राम राज के संदर्भ में बार-बार दुहराई गई इस चौपाई को समझें तो राम राज में कोई दरिद्र, दुखी दीन नहीं है/ नहीं रहेगा। न कोई अबुध और न लक्षण हीन है/होगा- नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।

राम राज की शर्त है हिंदू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था का पालन। स्पष्ट है कि ‘हिंदू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था’ को किसी तर्क से उचित नहीं माना जा सकता है, संवैधानिक तो खैर यह है नहीं। किसी भी तरह से, सीधे या घुमा-फिराकर हिंदू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था की तरफदारी करने वाली किसी आवरण में खड़ी की जा रही विचार पद्धति पर कड़ी नजर रखने, रोकने और उस पर कानूनी कार्रवाई सुनिश्चित करना चाहिए।

हिंदू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था के बारे में राम राज की बात करने वालों से उनका इरादा साफ-साफ पूछा जाना चाहिए। दरिद्रता, दुख और दैन्य का एक बड़ा कारण हिंदू धर्म की असंवैधानिक वर्णाश्रम व्यवस्था के सामाजिक रूप से लागू रहने को माना जाना चाहिए। समाज में समरसता से अधिक समता की जरूरत है।

संविधान इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट है। समाज में समरसता के बहाने जानबूझकर अस्पष्टता बनाये रखी गई है। अब, इस सामाजिक अस्पष्टता को और भी बढ़ाये जाने का ताम-झाम हो रहा है। सरकार की दिलचस्पी संवैधानिक प्रावधानों के पालन में न होकर धार्मिक मान्यताओं के अनुसरण में अधिक दिख रही है।

‘एकात्म मानववाद’ और सामूहिक नेतृत्व की बात करते-करते भारतीय जनता पार्टी ‘एक नायकवाद’ और ‘ऐकिक नेतृत्व’ के दौर में पहुंचकर राजनीतिक ही नहीं, धार्मिक और न्यायिक सत्ता को भी एक ही में अंतर्निविष्ट करने पर आमादा है। वैसे भी राजा पुरोहित से मिलकर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से राज्याधिकार, धर्माधिकरण और न्यायाधिकरण को अपने में सीमित करता रहा है।

धर्म गुरुओं, धर्माचार्यों, धर्म-शास्त्रों और ‘आस्थावानों’ का नहीं यह संविधान और नागरिकों का विषय है। इसलिए, जोर देकर आम नागरिकों और खासकर सामाजिक भेद-भाव का दंश झेल रहे समुदायों को संगठित रूप से कहना चाहिए कि हमें राम राज नहीं, संवैधानिक राज चाहिए।  

हमारे संविधान में सभी को अपने-अपने धर्म के प्रचार-प्रसार की छूट है, लेकिन प्रचार-प्रसार की यह छूट वहीं तक है जहां तक यह भारत के संविधान के विभिन्न प्रावधानों और मान्य नैतिक मानदंडों का पालन करता है।

समकारक (इक्वलाइजर) या आरक्षण का लाभ लेकर सामाजिक अन्याय और सामाजिक अपमान को सहते रहना अपने ही समुदाय के अन्य सदस्यों के प्रति सामाजिक अपराध है। आरक्षण का लाभ लाभार्थी समुदाय के कुछ ही लोगों को मिलता है, लेकिन अन्याय और अपमान तो पूरे समुदाय को झेलना पड़ता है।

यह स्वीकार करना कि ‘दो हजार साल से हमने अपने भाइयों को बहुत सताया है’, काफी नहीं है। सामाजिक स्तर पर ‘सताये’ जाने को पूर्वजों के ‘धर्म’, ‘शौर्य’ और ‘दंभ’ से जोड़ने की किसी भी मंशा पर तत्काल रोक लगाकर कम-से-कम इस मामले में हर किसी को संवैधानिक प्रावधानों के पक्ष में दृढ़ता से खड़ा होना चाहिए।

सुरक्षा कारणों या कानून-व्यवस्था का हवाला देकर शासन के इकाई प्रमुखों के द्वारा किसी के मौलिक अधिकारों के हनन की त्वरित न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। भारत जोड़ो न्याय यात्रा में ‘न्याय’ प्रमुख पद है, न्याय सुनिश्चित होने पर लोग खुद ही जुड़ जायेंगे। भक्ति काल की सामाजिक भावना थी- जात पात पूछे नहिं कोई, हरि को बजे सो हरि का होई।

मनुष्य से जुड़ा किसी भी उपक्रम के व्यय-साध्य हो जाने पर गरीब लोग उससे स्वतः वंचित हो जाते हैं। गरीब लोग अपनी वंचना को अपनी कमजोरी से जोड़कर सोचते हैं और आत्म-दोष सिद्धि से हताश हो जाते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, न्याय निरंतर इतना व्यय-साध्य होते गया है कि अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। अब धर्म को भी व्यय-साध्य बनाया जा रहा है। भारत में यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है।

कृष्ण भक्ति व्यय-साध्य थी। स्वभावतः, कृष्ण भक्ति परंपरा प्रारंभ से मुख्य रूप से सवर्ण और समृद्ध लोगों से जुड़ी और सगुणोपासक भक्ति परंपरा थी। कृष्ण भक्ति परंपरा में ‘लीला’ की जितनी सुविधा थी उतनी सुविधा राम भक्ति परंपरा में नहीं थी। कृष्ण भक्ति परंपरा में सगुन-निर्गुन का कोई विवाद नहीं रहा। राम भक्ति परंपरा मूलतः निर्गुनोपासक थी।

तुलसीदास के रामचरितमानस के सामाजिक प्रभाव बढ़ने के बाद राम भक्ति परंपरा में सगुणोपासना ने जोर पकड़ा। कबीरदास निर्गुन राम के उपासक थे, दशरथ राम के नहीं। कबीरदास ‘अन्य मरम’ के राम के उपासक थे।

कृष्ण के नाम पर उच्चवर्ग के दायरे में होनेवाली विभिन्न लीलाओं और गांव-देहात में खेली जाने वाली रामलीला और उसके पाठ की ‘क्रोनोलॉजी’ को खंगालने से बहुत-कुछ स्पष्ट हो सकता है। यहां मुख्य बात यह है कि व्यय रहित होने के कारण निरगुन राम भक्ति परंपरा का प्रसार गरीबों, वंचितों तक सहज था।

प्रसंगवश, यहां इतना टांक रखना जरूरी है कि उस समय की ‘उदारता’ में इतनी जगह तो थी कि कृष्ण भक्त मीरा संत रविदास से जुड़ पाईं! संतन के ढिंग गई बैठ! इसलिए मूलतः निर्गुन और कृष्ण भक्ति परंपरा की सामाजिक बनावट और विकास पर ध्यान देने से उनके सा प्रसंग में बहुत सारी बात साफ हो सकती है। गरीब लोग मन चंगा रखते थे और कठौती में गंगा को अनुभूत कर लेते थे। बाद में मन का चंगापन धन का अधीनस्थ होता गया और कठौती छिनती गई।

समाज में भय है, तो आशंका है। उधर, भारत जोड़ो न्याय यात्रा में क्या चल रहा है, इसकी कोई खबर तो मुख्य-धारा की मीडिया में पहले से भी बहुत कम ही आती रही है और अब तो खैर इस ‘पावन पुनीत’ माहौल में मीडिया को तो सुध लेने की भी कहां फुरसत है। फुरसत तो सांस लेने की भी नहीं है, सुध लेने की तो बात ही क्या।

वैकल्पिक माध्यमों से खबर आ रही है कि भारत जोड़ो न्याय यात्रा इस समय असम में चल रही है। असम के एक मंदिर में न्याय-यात्री राहुल गांधी के जाने को लेकर कुछ प्रशासनिक परेशानी खड़ी हो गई है। क्या परेशानी? पता नहीं! समझा जा सकता है कि असम सरकार की पुलिस सुरक्षा या कानून-व्यवस्था आदि के कारणों से उन्हें मंदिर जाने से रोक रही होगी।

भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर छोटे-मोटे हमलों, उपद्रवों की भी बात सामने आ जाती है। अब मुख्य-धारा की मीडिया में साफ-साफ और निष्पक्ष ढंग से कुछ आये तो माजरा समझ में आये कि आखिर हो क्या रहा है।

माजरा जो भी हो, उम्मीद है भारत जोड़ो न्याय यात्रा विघ्न, बाधाओं से निपटते हुए जारी रहेगी। भारत जोड़ो न्याय यात्रा को भी न्याय का सवाल उठाते हुए बिना किसी झिझक के कहना चाहिए, न्याय की मांग है- भारत में त्रेता का राम राज नहीं, कलियुग का संविधान राज सुनिश्चित हो।

अतीत का अव्यतीत अंश इतिहास बनता है और व्यतीत अंश मिथ बन जाता है। जो समाज दोनों को जीने की कोशिश करता है, वह मिथहास (मिथ+इतिहास) का सहारा लेता है। इस समय भारतीय समाज का बड़े हिस्से को मिथहास में जीने की अन-ऐतिहासिक कोशिश में भिड़ा दिया गया है। यह बड़ा अंश अतीत को भविष्य में आयातित करने की ‘परियोजना’ के काम आ रहा है।

इसके पीछे लोक-भड़काऊ नेताओं (DEMAGOGUE) की लोकलुभावन राजनीति में अंतर्निहित अनीति की सक्रियताओं को समझना चाहिए। लोक जीवन के वर्तमान को उजाड़कर, अतीत को भविष्य में आयातित करने की कोशिश में लगी लोक भड़काऊ राजनीति (DEMAGOGUERY) लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक होती है।

इतिहास और मिथहास के बोझ को अपने जाग्रत विवेक की पीठ पर उठाना चाहिए, सीना या माथा पर नहीं। इतिहास शोध का विषय तो हो सकता है, प्रतिशोध का दस्तावेज नहीं हो सकता है। मिथहास में शोध का कोई सम्मान नहीं होता है, वह अनिवार्य रूप से, इस या उस बहाने, प्रतिशोध का कुमार्ग खोजता रहता है।

मिथहास के अट्टहास में खोने और इतिहास के दंश को याद करके रोने से एक राष्ट्र के रूप में हमारा बल घटता, और हंसकर उड़ा देने से कल्याण रूठ जाता है। कबीर के अनुभव याद करें, ‘जे रोऊं तौ बल घटै, हसौं तौ राम रिसाइ।’

भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर इतिहास और मिथहास का बहुत भारी और चुभन भरा बोझ है। भड़काऊ राजनीति (Demagoguery) से मुकाबला करना है तो, ‘रोने हंसने’ के इस दौर में, मिथहास के बोझ तले दबी न्याय की मांग को, बार-बार पूरी ताकत से, भारत जोड़ो न्याय यात्रा को उठाना चाहिए- भारत में त्रेता का राम राज नहीं, कलियुग का संविधान राज सुनिश्चित हो।

फिलहाल तो बस-

यह भी गुन लें, कैसी खींची जन मन में नई लकीर।

जोगी आया जोगड़ा आया, आया बड़का संत फकीर।

अस्सी पर आया, ऐसे में अबकी, हँसता हुआ कबीर।

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