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यह वक़्त मुसलमानों के साथ डटकर खड़े होने का है

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सौमित्र राय

सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में ओल्गा टेलिस वि. बांबे नगर निगम के मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत केवल जीवन के अधिकार की ही नहीं, बल्कि गरिमामय जीवन, आवास और आजीविका की भी गारंटी दी गई है.

प्रत्येक नगरीय निकाय को किसी भी संपत्ति को अधिग्रहित/गिराने से पहले दिल्ली नगर निगम कानून, 1957 के तहत नोटिस जारी करना होगा और कब्जाधारी को 5-15 दिन का समय देना ही होगा. किसी भी संपत्ति को तब तक नहीं गिराया जा सकता, जब तक कब्जाधारी को नोटिस की अवधि में आयुक्त द्वारा सुन नहीं लिया जाता.

दिल्ली हाईकोर्ट ने बाल किसान दास वि. दिल्ली नगर निगम के एक मामले में 2010 को साफ कहा था कि संपत्ति पर कब्जाधारी को कारण बताओ नोटिस देना अनिवार्य है. 2010 में ही सुदामा सिंह वि. दिल्ली सरकार एवं अन्य के मामले में भी कोर्ट ने कहा था कि किसी व्यक्ति को आवास से बेदखल करने का फैसला लेने से पहले उसे वैकल्पिक आवास देना पड़ेगा, जिसमें गरिमामय जीवन के अधिकार को बरकरार रखने के लिए मूलभूत व्यवस्थाएं उपलब्ध हों.

सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में सार्वजनिक व निजी संपत्ति को नुकसान से जुड़े एक मामले में उन व्यक्तियों की जिम्मेदारी तय करने का आदेश दिया था, जिन्होंने संपत्ति को नुकसान पहुंचाया है. शीर्ष अदालत ने कहा था कि राजनीतिक जुलूस, अवैध निर्माण, हड़ताल, बंद और विरोध प्रदर्शनों में सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने के खिलाफ कड़े कानून होने चाहिए.

चूंकि तब ऐसा कोई कानून नहीं था, इसलिए कोर्ट ने एक गाइडलाइन तय की थी. इसके मुताबिक ऐसे मामलों में पूरी जिम्मेदारी साठगांठ करने वाले उन तत्वों पर होनी चाहिए, जिसकी वजह से हिंसा हुई और संपत्ति को नुकसान पहुंचा है. कोर्ट ने कहा था कि जिम्मेदारी वास्तविक षड्यंत्रकारियों पर डाली जानी चाहिए. संपत्तियों को हुए नुकसान की कीमत से दोगुनी कीमत दोषियों से वसूली जानी चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने कहीं भी बुलडोजर से मकान गिराने का आदेश नहीं दिया और न ही इसे न्यायसंगत माना है. कोर्ट ने केवल जिम्मेदारों से संपत्ति को हुए नुकसान की दोगुनी वसूली करने के आदेश दिए हैं. यहां तक कि संपत्ति के अधिग्रहण को भी कोर्ट ने उचित नहीं माना है.

आज प्रयागराज में 4 घंटे तक बुलडोज़र से सत्ता के दमन का नंगा नाच हुआ. जावेद, आफरीन फ़ातिमा जैसे नाम, इनके बीवी-बच्चों को आधी रात पुलिस उठा ले जाती है और 48 घंटे में घर पर बुलडोज़र चल जाता है. न नोटिस, न सुनवाई. सारे भगवाई लहालोट हैं. बिकने के रास्ते पर चल रही जनपक्षधर मीडिया इसे एक्शन बताती है. समाज इसे पत्थरबाज़ी का बदला बता रहा है.

बाकी गोदी मीडिया चुप है. तमाम संवैधानिक/अर्ध न्यायिक संस्थानों का भगवाकरण हो चुका है. सब इस अंधेरगर्दी पर खामोश हैं. मुझे कोई ज्ञानी संविधान की एक धारा दिखा दे, जो इस बुलडोज़र जस्टिस को जायज़ ठहराती हो. संविधान का पोथा लिखकर चेहरा चमकाने वाले बहादुर भी नहीं बोलेंगे, क्योंकि उन्हें दुकान चलानी है.

उनकी हिम्मत नहीं कि अपना ही पोथा लेकर इंसाफ़ मांगें. संविधान की दुहाई उनके लिए चेहरा बचाने का जतन भर है. और जनपक्षधर भी नहीं, क्योंकि अब वे पक्षकार हो चले हैं. भारत अब इजरायल बन चुका है। गाज़ा पट्टी में ऐसे ही बुलडोज़र चलते हैं।

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सुबह से लिबरलों की पोस्ट सोशल मीडिया पर देख रहा हूं. सब जज बने हुए हैं. धड़ाधड़ फैसले दे रहे हैं. कर्फ्यू में सिमटी रांची का एक केस बताता हूं. शायद जजमेंट देने में आसानी हो. 12वीं में पढ़ने वाले अफ़सार आलम को पुलिस की 6 गोलियां लगी हैं. आपने कभी सुना है कि हिंसा के बीच एक ही व्यक्ति को पुलिस की 6 गोलियां लगी हों ? RIIMS के डॉक्टरों ने 4 गोलियां निकाल दी, 2 अभी भी जिस्म में धंसी हैं. हिंसा में मरने वाले 22 साल के कैफ़ी के सिर में गोलियां लगी हैं. भेजा बाहर आ गया. शायद, पुलिस मैन्युअल कहीं कचरे में पड़ा हो.

पैगम्बर साहेब पर अनुचित टिप्पणी के विरोध में पूरा देश कश्मीर बन चुका है. कश्मीर में जब पत्थर चलते थे तो देश के किसी ठंडे कोने में बैठे लिबरल संयम बरतने को कहते थे. जब पैलेट गन चले तो किसी ने संयम शब्द का इस्तेमाल नहीं किया. शांतिपूर्ण प्रदर्शन. मैं सहमत हूं. यही होना चाहिए. यही रास्ता है. लेकिन क्या सरकार ऐसा करने देती है ? नहीं. पुलिस-प्रशासन इसे किस नज़र से देखता है ? बग़ावत की नज़र से. लाठियां तो तब भी चलती हैं.

आज की नई आईपीएस पीढ़ी ज़रा सी हिंसा में बेकाबू होकर गोली मारती है- सिर पर, जिस्म पर, 6 गोलियां, एक साथ. कोई संयम बरतने को कह रहा है ? कानून अगर सब के लिए बराबर है तो नूपुर को अदालत में पेश क्यों नहीं कर रही है मोदी सरकार ? कोई है जो उधर भी उंगली उठाए ?

आखिरी बात. एक समुदाय विशेष के पथराव से बीजेपी को 600 सीटें मिलती हैं, ध्रुवीकरण होता है, 50 साल तक कुर्सी बनी रहती है- ऐसा सोचने वाले कोढग्रस्त, भगवाईयों के मन के लड्डू फूट तो गए, लेकिन यह भी समझ लीजिए कि इन बिन पेंदी के लोटों से देश रोज़ तबाह हो रहा है. ये बीते 8 साल के ज़ुल्म, अपमान, नफ़रत, बहिष्कार, लिंचिंग का गुस्सा है. ये गुस्सा भारत को पुलिस स्टेट बनाने के ख़िलाफ़ है.

इसे थामने के लिए गांधी जैसा संयम का हिमालय बनना होगा. खुद के जिस्म को गुस्साई भीड़ के आगे करना होगा. है हिम्मत किसी में ? शांति का मार्ग वही दिखा सकता है, जिसमें नफ़रत के बदले मोहब्बत और कटुता की जगह शांति और समर्पण हो. माफ़ कीजिये, ये आप खाए-पिये, अघाये लोगों से नहीं हो पायेगा.

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नोआखली में एक बूढ़ा महात्मा अकेला घूम रहा है. देश पागल हो चुकी भीड़ में तब्दील हो गया है. वह बूढ़ा पागल भीड़ को समझा रहा है. भीड़ में यह नहीं पता है कि कौन किसके खून का प्यासा है लेकिन धरती खून से लाल हो रही है. उस बूढ़े व्यक्ति का जर्जर शरीर अपने को उस खून से लथपथ महसूस कर रहा है. वह पूछ रहा है कि जिन इंसानों के लिए हमने आजादी चाही थी, जिनके लिए सब त्याग दिया था, जिनकी स्वतंत्रता हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य थी, वे पा​शविकता के गुलाम कैसे हो गए?

कोई किसी की नहीं सुन रहा है. लोग वहशी हो गए हैं. बूढ़ा महात्मा लाठी लिए पहुंचता है. उन्हें समझाता है. भीड़ ईंट पत्थर और शीशे फेंक रही है. बूढ़ा अचानक भीड़ की तरफ बढ़ा और एकदम सामने आ गया. भीड़ इस साहस से स्तब्ध हो गई. बूढ़े ने कहा, मैं अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर हूं. अगर आप अपने होश-हवास खो बैठे हैं, तो यह देखने के लिए मैं जिंदा नहीं रहना चाहता हूं. भीड़ शांत हो गई.

दिल्ली में आज़ादी का जश्न चल रहा था. लेकिन देश के कई हिस्सों में हिंसा हो रही थी. बूढ़ा अकेले नोआखली की पग​डंडियों, गलियों, कूचों, सड़कों पर लोगों से मनुष्य बने रहने की मांग कर रहा था. यह सिलसिला यहीं नहीं रुका.

नोआखली से कलकत्ता, कलकत्ता से बिहार, बिहार से दिल्ली, दिल्ली से पंजाब, पंजाब से दिल्ली… वह महात्मा अकेला बदहवास भाग रहा था. नेहरू, पटेल, माउंटबेटन… सब हथियार डाल चुके थे. महात्मा के जीवन भर के सत्य और अहिंसा के आदर्श इस आग में जला दिए गए थे. जिन्ना दूर से इस धधकती आग में अपना हाथ सेंक रहे थे.

महात्मा अनवरत सफर में था. वह गाड़ी रोककर सड़क पर उतरता, ईश्वर से प्रार्थना करता कि प्रभु हमारे देश को बचा लीजिए और फिर आगे बढ़ जाता.

खून खराबे की निराशा के बीच एक उम्मीद की किरण फिर भी थी कि लोगों की आत्मा जाग सकती है. वह महात्मा दिल्ली में हिंसक जानवरों को रोकने के लिए अनशन पर बैठ गया. जो लोग इंसानों का खून बहाने में सबसे आगे थे, अब वे महात्मा के ही खून के प्यासे हो गए. छह हमलों के बाद अंतत: उन्हें सफलता भी मिल गई.

हिंसक और घृणास्पद लोग ऐसे ही कायर होते हैं. एक निहत्थे बूढ़े को मारने के लिए उन्हें भगीरथ प्रयास करना पड़ा. महात्मा का अशक्त और अकेला शरीर मर गया. भारत से लेकर पाकिस्तान तक स्तब्धता छा गई. लेकिन असली चमत्कार उसके बाद हुआ. महात्मा अमर हो गया.

जिस पाकिस्तान का बहाना लेकर महात्मा को मारा गया, वह पाकिस्तान भी रो पड़ा और हिंदुस्तान के ​पगलाए हिंदू भी. दंगे शांत हो गए. दुनिया एक सुर में बोल पड़ी, यह किसी शरीर की क्षति नहीं है. यह तो मानवता की क्षति है. हत्यारे सुन्न हो गए कि हमने जिसे मारा, वह अमर कैसे हो गया?

हिंसा और घृणा मनुष्य को मानवता की समझ से बहुत दूर कर देती है. इसीलिए महात्मा उनके लिए आज भी अनसुलझी पहेली है. वे अंदर से घृणा करते हैं, बाहर से महात्मा के सामने सिर झुकाए खड़े रहते हैं. महात्मा पहले की तरह बस मुस्कराता रहता है.

टैगोर का वह महात्मा जो अपने आखिरी दिनों में इस ​दुनिया की हिंसा से निराश, बदहवास, विक्षिप्त और अकेला था, मौत के बाद पूरी दुनिया का महात्मा हो गया. जब भारत के लोग सत्ता का स्वागत कर रहे थे, उस महात्मा ने अकेलापन चुना था और नोआखली से दिल्ली तक भागकर मनुष्यता को बचा लिया था.

अब वह हमारा, हमारे देश का महात्मा है, वह हमारा राष्ट्रपिता है, हम उससे हर दिन ​सीखते हैं और अपनी जिंदगी को छोटा महसूस करते हैं. वह हमारा प्यारा बापू है, हमारे भारत का विश्वपुरुष महात्मा गांधी.

गांधी की हत्या पर मिठाइयां बांटने वाले नरपिशाच आज दुनिया में कहीं भी चले जाएं, गांधी वहां पहले से मौजूद रहता है, हिंसा के नायकों की छाती पर मूंग दलते हुए भारत के प्रतिनिधि पुरुष के रूप में.

गांधी मानवता का नाम है. गांधी दुनिया के लिए दुख उठाने का नाम है. गांधी त्याग का नाम है, गांधी प्रेम का नाम है, गांधी एकता और अखंडता का नाम है. गांधी मानव जीवन के मूल्यों का नाम है.

आज जो इन मूल्यों पर हमला कर रहे हैं, वे एक दिन फिर से हार जाएंगे. गांधी मानवीय मूल्यों का नाम है, मानवता जब तक जिंदा रहेगी, गांधी जिंदा रहेगा. हत्याओं के आकांक्षियों को यह दुनिया अब भी पशुओं की श्रेणी में रखती है, आगे भी रखेगी. गांधी मानवता का महानायक है, वह फिर जीत जाएगा.

आज मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात की है कि हमारे दौर में कोई गांधी नहीं है जो सर्वोच्च आत्मबल के साथ पागल हो चुके लोगों का सामना करे. लोग तब भी वहशी बनते थे और दुखद सत्य ये है कि आज उससे आगे निकल जाना चाहते हैं. कोई नहीं है जो आसमान के बराबर साहस बटोरकर उनके सामने पहुंच जाए और कहे कि अगर तुम खून के प्यासे हो तो सबसे पहले मुझे मार दो. लोग हर युग में लड़ते-मरते हैं. उन्हें रोकने के लिए गांधी कभी-कभी पैदा होते हैं.

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विक्रम नारायण सिंह चौहान लिखते हैं – यह वक़्त मुसलमानों के साथ डटकर खड़े होने का है. इस वक़्त आप बहाने बना रहे हैं मतलब आप संघियों के साथ हैं. आपने हमेशा बहाना बनाया है, तब भी जब पिछले 8 साल में 40 से अधिक कश्मीरी नागरिकों की मौत फौज की शॉटगन पैलेट्स/जहरीले गैस से हुई हैं.

मरने वालों में नाबालिग बच्चे भी शामिल थे. आपने बच्चे की जिस्म में हजार छेद से भरा शरीर देखा, पर आपका दिल नहीं पसीजा क्योंकि मरने वाला कोई शर्मा, सिंह, अग्रवाल आदि आदि (बुरा लग रहा है तो लगाइए) नहीं था. मॉब लिंचिंग में भी नाबालिग से लेकर 70 साल के बूढ़े की मौत हो गई. आपने विरोध नहीँ किया उल्टे इस सरकार को फिर से सत्ता में लाया.

दंगों में सैकड़ों मुस्लिम मारे गए, उन्हीं के बच्चे जेल गए, यूएपीए में कई साल से जेल से सड़ाये जा रहे हैं उन्हीं के युवा. आप मुसलमानों को शांति का मार्ग दिखाते जरूर हैं, पर ये शांति का मार्ग तब क्यों नहीं दिखाते जब आपके कौम के लोग उन लोगों को बुरी तरह मारते हैंं ? खून से सने मुस्लिम की जिस्म देखकर आपके आंसू क्यों नहीं गिरते ? क्या सफेद टोपी देखकर आपकी आंखें आंसू निकालने से इंकार कर देता है ?

कोई पत्थर उछालता है तो आप क्या करते हैं धड़ाधड़ गोलियां ! ये नहीँ देखते कि कोई बच्चा हो सकता है जिसके सीने में ये गोली धंस जाए, जिसके सिर से ये गोली आरपार निकल जाए ? आप कब उनके घर तक गए बात करने ? आप कब उनको बुलाये अपने साथ बैठकर खाना खाने ? आप कब उनको न्याय मांगें, तब दिए ? आपने कब कहा ये आप हमारे हैं ? आपको देशभक्ति का सबूत कोई मांगें तो हमें बताइये ?

आपने ये सब नहीं किया. आपने उनका घर गिराया बुलडोजर से. अदालत के फैसले से पहले आप मुस्लिमों के खिलाफ फारवर्ड हो रहे करोड़ों नफरती व्हाट्सएप देख चुप रहते हैं. या आप अपने नजदीकी लोगों को ये फारवर्ड कर कहते हैं ये नहीं सुधरेंगे ? बुलडोजर बाबा सही कर रहें. नफरती महिला की गिरफ्तारी को लेकर भी आप अगर मगर कर रहे हैं.

आप सोशल मीडिया में कितना भी डींगें मार लें, सच तो यही है लाशें किसी घर की गिर रही है तो वह मुस्लिम के घर का है. उनके बच्चे ही मारे जा रहे हैं. अगर उनके मन में सत्ता को लेकर क्रोध है तो आप उनके घर गुलाब का फूल लेकर जाइये. बोलिये भाई हमारा जिस्म दो है पर जान एक है. हम इस सरकार के खिलाफ आपके साथ खड़े हैं. आप पर गोली चलेगी तो सीना हमारा सामने होगा !

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