दुष्यंत दवे
- हिंदूवादी न्यायपालिका के हिस्सा बने न्यायाधीश
- मुख्य न्यायाधीश के 1 साल का कार्यकाल निराशाजनक
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के 1 साल के कार्यकाल पर न सिर्फ निराशा जताई है, बल्कि न्यायपालिका को हाईजैक करने जैसे गंभीर सवाल भी उठाए हैं। उनका कहना है कि एक साल पहले बड़ी उम्मीद थी, लेकिन पैसे वालों ने और सत्ता ने न्यायपालिका को हाईजैक कर लिया है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में खराब जजों की नियुक्ति और हद यह कि मुख्य न्यायाधीश सवालों का जवाब नहीं दे रहे ऐसे में भारत एक हिंदू राष्ट्र बन चुका है। यहां पेश हैं वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे के द्वारा उठाए गए सवाल, आरोप और उनके विचारों के संपादित अंश…!
न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच हमेशा टकराव रहता है। सरकार हमेशा सही काम नहीं करती है। आजादी के बाद सबसे कमजोर न्यायपालिका वर्तमान में है। अंग्रेजों के शासनकाल में भी न्यायपालिका इतनी कमजोर नहीं हुई थी। न्यायपालिका से लोगों का विश्वास खत्म हो जाए, लोग खुद कानून अपने हाथ में ले लें. इससे पहले न्यायपालिका को सचेत हो जाना चाहिए। देशभर में जिस तरीके से बुलडोजर चलाया जा रहा है, इससे कानून पर भरोसा खत्म हो रहा है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ खुले आम बुलडोजर का उपयोग हो रहा है। संसद के अंदर ही अल्पसंख्यकों को गाली बकी जा रही है। धर्म परिवर्तन जैसे मुद्दों पर नफरत फैलाई जा रही है। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद क्या हो रहा है। सारा देश देख रहा है। सुप्रीम कोर्ट इन सारे मामलों में एक्शन क्यों नहीं ले रहा है?
भारत की न्यायपालिका को उन्होंने बहुसंख्यक का एक हिस्सा बता दिया है। न्यायपालिका भी हिंदूवादी हो चुकी है। नफरती चिंटुओं और नफरती नेताओं पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के तमाम जज क्या अंधे हो चुके हैं? इतना सब कुछ घट रहा है, उन्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। पुलिस किस तरीके से बुलडोजर का इस्तेमाल कर रही है। लोगों के घर, मकान और धंधे खुलेआम बर्बाद किए जा रहे हैं। न्यायपालिका में भी पूरी तरह से हिपोक्रिसी भर चुकी है। न्यायपालिका को बिना जाति, धर्म या स्टेटस देखे कानूनो का पालन करवाना चाहिए। सरकार ने सभी कानून अपने हाथ में ले लिए हैं। जनता परेशान है। लोग प्रताड़ित हो रहे हैं। सभी संवैधानिक संस्थाओं को लगातार कमजोर किया जा रहा है। जांच एजेंसियों का भी मनमाने ढंग से उपयोग किया जा रहा है। आखिर जजों को यह सब क्यों नहीं दिख रहा है। सेवा निवृत्ति के बाद एक ही अधिकारी को सरकार बार-बार विस्तार क्यों देती है? जांच एजेंसी और सरकार विपक्षी दलों के नेताओं को ही क्यों टारगेट करती है?
गौर करें और देखें कि इजराइल में कैसे आम जनता सुप्रीम कोर्ट के बचाव में आकर खड़ी हो गई। इजराइल और हमास के बीच युद्ध चल रहा है, लेकिन इजरायल की जनता ने सरकार को सबक सिखा दिया। यही नहीं जब पाकिस्तान की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को हटाया था, पूरी न्यायपालिका सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के साथ खड़ी हो गई थी। मैं नहीं कहता, कि सरकार का हर फैसला गलत होता है, लेकिन सरकार सब कुछ सही भी नहीं करती है। हमेशा से न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच में तनाव देखने को मिलता है। यही तनाव न्यायपालिका को निष्पक्ष बनाता है। हाल ही में, मुंबई में जिस तरीके से बुलडोजर चलाकर एक धर्म विशेष के लोगों के मकानो को अतिक्रमण बताकर तोड़ा गया लेकिन दिल्ली में ऐसे लाखों अवैध अतिक्रमण है, उन्हें क्यों नहीं तोड़ा जाता है। दिल्ली में सैकड़ो अवैध कालोनियां बसी हुई हैं। क्या अवैध अतिक्रमण पर कार्रवाई करने की हिम्मत है। न्यायपालिका सन्नाटा मारकर क्यों बैठी है? सेकुलरिज्म का अब कोई मतलब नहीं रह गया है। हम पूरी तरह से बहुसंख्यक देश बन गए हैं। संविधान के अनुसार होना तो यह चाहिए, कि धर्म के नाम पर कोई वोट नहीं मांग सकता, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने 2014-2019 के अपने घोषणा पत्र में, मंदिर का मुद्दा रखा। भारत में सभी धर्मों का अस्तित्व है। हिंदुइज्म एक सुंदर धर्म है। मुझे भी अपने हिंदुइज्म धर्म पर गर्व है। हम सभी को सेकुलर होना चाहिए।
भारत में जो नफरत की बयार बहाई जा रही है, आए दिन जो दंगे फसाद हो रहे हैं, यह वर्तमान राजनीति द्वारा पैदा किए गए हैं। इसे केवल देश के जज ही रोक सकते हैं। नेता अपनी कुर्सी को मजबूत करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे में न्यायपालिका के जज ही इस नफरत को रोक सकते हैं। समलैंगिक विवाह, इलेक्टोरल बांड पर सुनवाई करने के बाद भी फैसला सुरक्षित क्यों रखा गया? डीवाईं चंद्रचूड़ का हम बहुत सम्मान करते हैं। जब उन्होंने शपथ ली थी, तब मैंने उनकी व्यक्तिगत रूप से पत्र लिखकर प्रशंसा की थी। उम्मीद थी, कि उनके आने के बाद न्यायपालिका में कुछ बदलाव आएगा। पिछले 1 साल में ऊपरी दिखावे वाले सारे काम हुए हैं। न्याय देने के मामले में सुप्रीम कोर्ट में कुछ नहीं हुआ। लोगों को न्याय नहीं मिल रहा है। जिस तरीके से प्रधानमंत्री बोलते कुछ हैं, और करते कुछ हैं, कुछ इसी तरीके की स्थिति न्यायपालिका की हो गई है। सुनवाई के समय अदालत में जो बात कही जाती है, लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में कुछ नहीं हो रहा है। सिस्टम पूरी तरह से सरकार के सामने फेल हो चुका है।
न्यायपालिका में विश्वास लाने का काम देश के वकीलों और जजों को ही करना होगा। सरकार कभी नहीं चाहती है, कि न्यायपालिका मजबूत हो। न्यायपालिका पर विश्वास बनाए रखने के लिए चीफ जस्टिस ही बहुत कुछ कर सकते हैं। उनके पास पावर है, पोजीशन है, स्टेटस है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया का यह काम नहीं है, कि कौन सा मामला किस बेंच में सुना जाएगा। रजिस्ट्री में क्या हो रहा है, यह हम सब जानते हैं। हमने पत्र लिखकर सारी बातें चीफ जस्टिस को बताई भी थीं, चीफ जस्टिस मिलने का समय नहीं देते हैं। कनिष्ठ न्यायाधीशों को वरिष्ठ न्यायाधीशों से केस लेकर सुनवाई के लिए दिए जा रहे थे। इस पर वरिष्ठ अधिवक्ताओं की आपत्ति थी। चीफ जस्टिस ने प्रेस में गलत बयान दिया।
मैं खुद 40 साल से वकालत कर रहा हूं, यदि सीनियर जज मामले की सुनवाई कर रहा है, उसे किसी जूनियर जज को ट्रांसफर नहीं किया जाता है। कॉलेजियम और सत्ता के बीच में एक समझौता हो चुका है, जिसके कारण सही जजों का चुनाव नहीं हो रहा है। सत्ता को जो जज पसंद होता है, उसकी तुरंत नियुक्ति हो जाती है। कॉलेजियम जो नाम भेजता है, वह वर्षों तक लंबित रहते हैं। उनकी नियुक्ति भी नहीं होती है। न्यायपालिका में सत्ता के घोर समर्थक जजों को नियुक्त किया जा रहा है। समर्थक जजों के नाम की फाइलें 24 घंटे के अंदर सरकार स्वीकृत कर देती है। सुप्रीम कोर्ट का, कॉलेजियम बैकग्राउंड भी नहीं देख रहा है। जजों की नियुक्ति के मामले में सब कुछ जीरो ही जीरो है। अक्षमता एवं भ्रष्टाचार के आरोप जजों पर लगने लगे हैं। जब डीवाई चंद्रचूड़ मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त हुए थे। उस समय एक भरोसा जागा था.लेकिन पिछले 1 साल के कार्यकाल के बाद भरोसा पूरी तरह से टूट रहा है।
चुनाव आयोग की नियुक्ति के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया था. उसे सरकार ने पलट दिया। दिल्ली में पावर किसके पास रहेगी, इसका फैसला भी सरकार ने पलट दिया। महाराष्ट्र का मामला याद कर लीजिए, कब से चल रहा है। चीफ जस्टिस ने खुद कहा था, कि महाराष्ट्र की सरकार गलत तरीके से बनाई गई है। राज्यपाल और स्पीकर की भूमिका को भी गलत बताया था। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला लेने का काम विधानसभा अध्यक्ष पर छोड़ दिया। हर निर्णय को सुप्रीम कोर्ट द्वारा टाला जा रहा है। महाराष्ट्र में जब दूसरा विधानसभा का चुनाव हो जाएगा, उसके बाद यदि कोई निर्णय आएगा, तो उसका क्या मतलब रह जाएगा। देर से मिला हुआ न्याय भी अन्याय ही होता है।
महाराष्ट्र में यह सब हो रहा है। सरकारी मशीनरी का लगातार दुरुपयोग किया जा रहा है। क्या यह सब सुप्रीम कोर्ट को नहीं दिख रहा है? इलाहाबाद हाईकोर्ट ने, देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अयोग्ग घोषित कर दिया था. महाराष्ट्र में जिस तरीके से लोकतंत्र का बलात्कार किया जा रहा है। उस पर न्यायपालिका की नजर क्यों नहीं पड़ती? भारत में लोकतंत्र और यहां की न्यायपालिका कभी इतनी कमजोर नहीं रही। लोग आपातकाल के संबंध में सवाल उठाते हैं, उस समय भी न्यायपालिका इतनी कमजोर नहीं हुई थी, जितनी अब हो गई है।
मणिपुर में दो महिलाओं की नग्न परेड कराई गई। सेकडों लोगों की वहां हत्या हो गई। जब वीडियो वायरल हुआ, उसके बाद चीफ जस्टिस ने सरकार को हड़काया। उस समय लगा था, कि सुप्रीम कोर्ट कोई कड़ा फैसला लेगी, लेकिन वहां हिंसा अनवरत जारी है। न्यायपालिका खामोश है। बिलकिस बानो के मामले में भी जो खेल हुआ, वह सब देख रहे हैं। यदि यही हालत पूर्ववर्ती सरकारों के समय हुई होती, तो क्या न्यायपालिका चुप रहती? नफरत के भाषण देने वालों पर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर फटकार जरूर लगाती है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती है। जब तक आप कार्रवाई नहीं करेंगे, सजा नहीं देंगे, तब तक इस पर रोक भी नहीं लग सकेगी।
लोगों को ईवीएम पर विश्वास नहीं रह गया है। एक सर्वे में 97 फ़ीसदी लोगों ने ईवीएम से वोट नहीं कराने की बात कही। देश भर के अलग-अलग इलाकों में ईवीएम का विरोध हो रहा है। इलेक्ट्रोल बाँड का मामला कई महीनो से सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। इसमें सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रखा है। इसे अभी तक क्यों नहीं सुनाया गया। इलेक्टोरल बांड के कारण सभी विपक्षी पार्टियां भिखारी बन गई हैं। इलेक्ट्रॉल बांड की खरीद-बिक्री अभी भी चालू है।
(यह विचार वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे के हैं, जिनसे संपादक का सहमत होना जरुरी नहीं है।)