डॉ. संतोष सारंग
मुजफ्फरपुर, बिहार
‘‘आओ कर लो नंबर याद, जब करे कोई महिलाओं पर अत्याचार, तब लगाओ 1090 मेरे यार.’’ ये पंक्तियां किसी सरकारी या गैर सरकारी संगठनों के किसी अभियान के स्लोगन नहीं है बल्कि ये ‘हिफाजत के नंबर’ शीर्षक कविता की पंक्तियां हैं, जिसे हस्तलिखित पत्रिका ‘जुगनू’ के लिए लिखा है शाइस्ता परवीन ने. शाइस्ता बिहार के मुजफ्फरपुर शहर स्थित रेड लाइट एरिया चतुर्भुज स्थान में रहती है. इसे सेक्स वर्कर का इलाका कहा जाता है, जहां दशकों से ये जिल्लत भरी जिंदगी जीती रही हैं. लेकिन इसी काली अंधेरी गलियों से कुछ ऐसी लड़कियां भी निकलीं हैं, जिन्होंने बदलाव की बयार बहाने की जिद ठान रखी है. सबसे पहले नसीमा खातून निकलीं, जो बेझिझक अपनी पहचान एक ‘सेक्स वर्कर की बेटी’ के रूप में बताती हैं. संस्था ‘परचम’ के माध्यम से उन्होंने वैश्विक स्तर पर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करायी है. समय समय पर मज़बूती के साथ सेक्स वर्कर के हितों की आवाज़ उठाने वाली नसीमा को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपनी एडवाइजरी बोर्ड का मेंबर बनाया है.
नसीमा की तरह शाहिस्ता जैसी दर्जनों लड़कियां आज इस इलाके में बदलाव की वाहक बन रही हैं. शाहिस्ता ‘जुगनू’ से 2008 में जुड़कर अपने समाज की दबी हुई आवाज़ को उजागर करना शुरू की. वह अभी स्नातक की पढ़ाई कर रही है और जुगनू की रिपोर्टर बनकर किस्त-दर-किस्त कविताएं और रिपोर्ट लिख रही है. दसवीं में पढ़ने वाली नंदिनी भी जुगनू की रिपोर्टर बनकर हाशिए के लोगों की जिंदगी की परतें खोल रही है. वहीं 17 वर्षीय आरिफ सामग्री जुटाने से लेकर पत्रिका के प्रकाशन तक के काम में लगा रहता है. इतना ही नहीं, इस वंचित समाज के करीब एक दर्जन लड़के-लड़कियों की टीम ‘जुगनू’ के माध्यम से खुद की और वंचित समाज की आवाज बुलंद कर रही है.
शाइस्ता बताती है कि ‘इस हस्तलिखित पत्रिका की शुरूआत नसीमा के मार्गदर्शन में 2004 में चार-पांच लड़कियों के साथ की गयी थी. शुरू में इस पत्रिका को फोटोकॉपी करवाकर बांटा जाता था. तीन महीने के अंतराल पर निकलने वाली यह पत्रिका चार पेज से शुरू हुई थी. लेकिन जन सहयोग से आर्थिक फंड जुटा कर यह आज 36 पेज की हो गयी है, जो अब प्रेस से छप कर आती है. पहला अंक मुजफ्फरपुर की देह मंडी के एक छोटे से कमरे से निकला, जिसके इर्द-गिर्द हारमोनियम की धुन, तबले की थाप और घुंघरुओं की रुनझुन आवाज गूंजती थी. इन सबके बीच यहां की लड़कियां कलम को बदलाव का हथियार बनाकर लिखने लगीं.’ शाइस्ता के अनुसार पत्रिका में लड़कियों की अपनी कहानियां और समाज की तल्ख़ हकीकत होती थी. जिसमें व्याकरण की काफी गलतियां होती थीं. लेकिन वर्तनी, लिंग व वचन के प्रयोग से बेखबर यह लड़कियां अपनी अभिव्यक्ति को टूटे-फूटे शब्दों में फटे-पुराने कागजों पर लिखना जारी रखा. इसी जिद व जुनून से यहां की लड़कियों की यह पत्रकारीय यात्रा जुगनू के रूप में 2012 तक चली.
शाइस्ता बताती हैं कि ‘शुरू में, बिना किसी संगठित आर्थिक सहायता से निकल रही यह पत्रिका 2012 में आर्थिक संकट व अन्य कारणों से बंद हो गई थी. इस बीच नसीमा की शादी हो गई और वह राजस्थान अपने ससुराल चली गई, लेकिन मन से जुगनू नहीं गई थी. 8 साल के लंबे अंतराल के बाद जब वह अपनी बीमार दादी को देखने मुजफ्फरपुर लौटी, तो उसे पत्रिका को फिर से निकालने का ख्याल आया. नसीमा ने पुराने सदस्यों से बात की एवं कुछ नई लड़कियों को जोड़कर 2021 में फिर से पत्रिका शुरू कर दी. उसने अपने संपर्क का फायदा उठाते हुए उसने अन्य प्रदेशों में भी पत्रिका का विस्तार किया.
अब इसमें केवल बिहार के मुजफ्फरपुर ही नहीं बल्कि तीन अन्य राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र के समाज की मुख्यधारा से पूरी तरह कटे वंचित समुदाय के लड़के लड़कियों की अभिव्यक्ति को उड़ान भरने का अवसर मिलने लगा है. आज इस हस्तलिखित पत्रिका से जुड़कर ये बच्चे अपने समाज की पीड़ा व समस्याओं को मुखर होकर आवाज दे रहे हैं. मानवाधिकार व कानून जैसे गूढ़ विषय पर भी ये बच्चे सामग्री जुटा कर अपनी समझ के साथ उसे प्रकाशित करते हैं. ‘हमारी पहचान’, ‘बिटिया की चिट्ठियां’, ‘हमारी पहल’, ‘अनुभव’, ‘सपने’ जैसे कॉलम ‘जुगनू’ में नियमित छपते हैं.
‘जुगनू’ शुरू करने के पीछे वंचित समाज की लड़कियों का वह टीस और दर्द था, जो उनकी समस्या को मुख्यधारा की मीडिया में आने से रोकती थी. पत्रिका की कल्पना को जमीन पर उतारने वाली नसीमा कहती हैं कि दर्द समाज के उन सभी लोगों से था, जिन्होंने इस इलाके की लड़कियों के हुनर व इल्म को हमेशा इग्नोर किया है. ये लड़कियां समाज में अपनी काबिलियत के बल पर खुद की पहचान बनाना चाहती थी. इसी जिद ने उन्हें हस्तलिखित पत्रिका का रिपोर्टर बनने के लिए प्रेरित किया और इस तरह जुगनू का जन्म हुआ. जुगून का टैगलाइन है- हाशिए के वंचितों की आवाज. इस हस्तलिखित पत्रिका से बिहार समेत राजस्थान, मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र के वंचित समुदाय के बच्चे जुड़े हैं, जो अपने समाज की समस्याओं, देह-व्यापार से जुड़ी महिलाओं के बच्चों की पीड़ा को अपनी कलम के माध्यम से उठाते हैं.
राजस्थान के बाड़मेर जिले का रहनेवाला प्रेमनाथ कालबेलिया जुगनू का रिपोर्टर है. प्रेमनाथ ने बताया कि “इस वंचित समुदाय के लोग किस स्थिति में अपना जीवनयापन कर रहे हैं? उनकी वास्तविक स्थिति क्या है? इसे भली-भांति वही जानता है, जो इनके बीच रहता है. मीडिया या प्रशासन के लोगों को भी इस समाज के बारे में जमीनी हकीकत नहीं पता होता है.” प्रेमनाथ बताते हैं कि “मैं ‘जुगनू’ में बतौर रिपोर्टर जो कुछ लिखता हूं, वह इस समाज के लोगों द्वारा भोगा गया सच होता है.” महाराष्ट्र से स्नेहा ठाकुर, मध्यप्रदेश के मुरैना से मेघा छारी व नीमच से भूमिका ठाकुर समेत मुजफ्फरपुर से मो. आरिफ और अंबर नटराजन समेत अन्य रिपोर्टर आज जुगनू के माध्यम से अनोखी पत्रकारिता कर रहे हैं. यह सभी बच्चे विभिन्न प्रकार की आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए भी जुगनू के लिए रिपोर्टिंग करते हैं.
मुजफ्फरपुर का आरिफ ग्रेजुएशन की पढाई कर रहा है. चतुर्भुज स्थान के पास ही उसके पिता की टेलरिंग की छोटी सी दुकान है. जिससे बहुत कम आमदनी होती है. घर की आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे आरिफ का जुगनू के प्रति जुनून कम नहीं हुआ है. वह बताता है कि “जब नसीमा जी के साथ हमलोगों ने मुजफ्फरपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी प्रणव कुमार को जुगनू का अंक भेंट किया तो उन्होंने हमारे काम की काफी प्रशंसा की. उन्होंने हमलोगों का जुनून देखकर सहयोग का वादा भी किया था.” आरिफ़ के अनुसार ‘जुगनू के कारण ही हमलोग कुशल युवा कार्यक्रम एवं स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड आदि योजनाओं के बारे में जान पाए.
आज रेडलाइट एरिया के पांच लड़के-लड़कियों ने कंप्यूटर का कोर्स कंप्लीट किया है. आगे हमलोग अपने समुदाय के अन्य लड़के-लड़कियों को इस दिशा में प्रोत्साहित कर रहे हैं. उधर, प्रेमनाथ और सविता कालबेलिया ने जुगनू की स्थानीय टीम के साथ मिलकर बाड़मेर के जिला कलेक्टर और एसपी को जब जुगनू का अंक सौंपा, तो वे चकित रह गये कि कैसे इस वंचित समुदाय के बच्चे हस्तलिखित पत्रिका छापकर अपनी आवाज खुद बन रहे हैं? प्रेमनाथ ने कहा कि यही प्रशंसा हमें जुगनू का हर अंक निकालने की शक्ति देती है.
जुगनू से जुड़ी सबीना बताती है कि ‘पत्रिका के माध्यम से सिर्फ हमारी जिंदगी में ही बदलाव नहीं आ रहे हैं, बल्कि इस इलाके की महिलाओं को भी इसका फायदा हो रहा है. जब हम पत्रिका लेकर मुजफ्फरपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी से मिले, तो वे हमारे काम से काफी प्रभावित हुए. उन्होंने हमारी हौसलाअफ़ज़ाई करते हुए हमारे यहां संचालित ‘जोहरा सिलाई सेंटर’ एवं ‘जीविका बचत समूह’ को लघु उद्योग का दर्जा दिलाने में पहल की. साथ ही, जुगनू गारमेंट्स का लाइसेंस भी दिलवाया. जिसके कारण ही आज आज इस इलाके की कई महिलाएं अपनी आजीविका इस केंद्र से जुड़कर चला रही हैं. यह सब जुगनू के कारण ही संभव हो पाया है. अभी पिछले दिनों जुगनू की टीम ने पुलिस प्रशासन के साथ मिलकर ‘पुलिस पाठशाला’ की शुरुआत चतुर्भुज स्थान स्थित पुलिस नाका में किया है, जिसमें 50 से अधिक छोटे-छोटे बच्चे पढ़ रहे हैं. इन बच्चों को यहां के पुलिस अधिकारी से लेकर सिपाही तक पढ़ाने आते हैं. इन बच्चों की बनाई पेंटिंग आदि भी जुगनू में प्रकाशित किया जा रहा है.
अभी पत्रिका की 300 काॅपी छपती है, आगे इसकी संख्या बढ़ाने की योजना है. टीम के मेंबर अपने-अपने स्टेट से स्टोरी कवर करके मुजफ्फरपुर भेजते हैं, जिसे संग्रहित कर मुजफ्फरपुर की टीम इसे डिजाइन करके प्रिंटिंग प्रेस में भेजती है. पहले इसे फोटो स्टेट कराकर मैगजीन का रूप दिया जाता था. लेकिन अब पत्रिका का प्रकाशन सहयोग राशि से चलने के कारण इसे प्रिंट कराया जाता है. इसका पूरा डिज़ाइन लड़कियां ही तैयार करती हैं. अभी हाल ही में एमजे चैरिटेबल ट्रस्ट ने प्रिंटिंग के लिए आर्थिक सहयोग करना शुरू किया है. चार राज्यों के मेंबर को 20-20 कॉपी भेजी जाती है, जिसे वे खुद सर्कुलेट करते हैं.
इस पत्रिका को जन जन तक पहुंचाने के लिए इसमें अब कुछ कंटेंट बाहर के लोगों से भी मंगा कर भी छापा जाता है. कई बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक और समाज कर्मी भी इस पत्रिका के लिए हाथ से लिखकर आर्टिकल उपलब्ध करा रहे हैं. जुगनू व नसीमा की टीम की कहानी को बीबीसी ने भी प्रकाशित किया था. साल 2004 में ‘दूसरी दुनिया मुमकिन’ के नारे के साथ मुंबई में आयोजित ‘वर्ल्ड सोशल फोरम’ में पहली दस्तक के साथ ‘जुगनू’ को सार्वजनिक पहचान मिली. बहरहाल, सेक्स वर्कर के बच्चों की यह अतुलनीय पहल इस वंचित समुदाय के लिए एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में संग्रहित होगी. (चरखा फीचर)