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मंडल पर कमंडल का और समाजवाद पर ब्राह्मणवाद का हमला, खलनायक कौन ?

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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के नाम रेणु साहित्य के अध्येता अनंत का खुला पत्र

आदरणीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव,

साहित्य अकादमी दिल्ली और भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के संयुक्त तत्वावधान में आगामी 29 सितंबर को आयोजित ‘रेणु आ मैथिली’ विषयक सेमिनार फणीश्वरनाथ रेणु जैसे वैश्विक रचनाकार की लेखनी के लालित्य और शान के खिलाफ है। इसके गहरे निहितार्थ हैं। दरअसल, इस विमर्श का विषय साहित्यिक-अकादमिक नहीं, बल्कि हासा-भासा (जमीन और भाषा) की लूट की राजनीति से प्रेरित है। अस्मिताई फसाद पैदा करने वाला यह विषय रेणु को ‘आंचलिकता’ से भी तंग ‘मिथिलांचिकता’ के दायरे में कैद करता है और उनके मान-सम्मान को ठेस पहुंचाता है।

वैचारिक दृष्टिकोण से देखें तो यह मंडल पर कमंडल और समाजवाद पर ब्राह्मणवाद का हमला है, क्योंकि यह कार्यक्रम बी.पी. मंडल की धरती पर हो रहा है और रेणु समाजवादी साहित्य निर्माता हैं। प्रश्न यह है कि आखिर इसका खलनायक कौन है? 

सर्वविदित है कि रेणु साहित्य कई स्थानीय बोली, भाषा, संस्कृति और सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों का संगम है। रेणु के साहित्य के केंद्र में नेपाल, कोसी, अंग और मगध की धरा मुख्य रूप से विद्यमान है, जो कि ग्रामीण भारत का प्रतिनिधित्व करता है। यह देखा जा सकता है कि अपने उपन्यास ‘मैला आंचल’ के कथानक से मिथिला को रेणु ने ही बाहर रखा है। ‘मैला आंचल’ के ‘मेरीगंज’ में बसे ब्राह्मण मिथिला की अस्मिता के प्रतीक नहीं है। बाढ़ और सुखाड़ केंद्रित रिपोर्ताज के केंद्र में भी मिथिलांचल नहीं है। इसके अलावा रेणु ने फिल्म आदि विषयों पर जो कुछ लिखा है, उसका वास्ता भी मिथिला से नहीं है। हां, यह जरूर है कि ‘परती परिकथा’ में इक्के-दुक्के पात्र मैथिली ब्राह्मण हैं।

फणीश्वरनाथ रेणु

रेणु ने मैथिली में फुटकर लेखन ही किया है। उनकी एक भी किताब मैथिली में नहीं है। इसी आधार पर मैथिली भाषी साहित्यकार रेणु को मैथिली साहित्यकार के रूप में साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं देने को वाजिब ठहराते रहे हैं। फिर सवाल यह उठता है कि ‘रेणु आ मैथिली’ (रेणु और मैथिली) विषय पर ही परिसंवाद क्यों? सवाल यह भी है कि कोसी की धरती पर आयोजित परिसंवाद से कोसी ही गायब है, क्यों?

रेणु साहित्य का गहरा जुड़ाव कोसी की संवेदना और सरोकार से है। इसी वजह से कोसी के कछार पर बसे अंग की माटी या उनके साहित्यिक अंचल को लोग रेणु माटी भी कहते है। मिथिला और मैथिली के लोग अगर मानते हैं कि रेणु साहित्य में उनकी वेदना-संवेदना निहित है, तो कोसी की तरह मिथिला की धरती को रेणु माटी घोषित कर दें। लेकिन यहां इनका उद्देश्य कोसी के कछार पर बसे अंग के हिस्से को मिथिला की माटी घोषित करना है।

देश के बड़े से बड़े एकेडमिशियन से ‘रेणु आ मैथिली’ विषयक परिसंवाद के बारे पूछा जाए कि “क्या यह विषय रेणुजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के लिहाज उचित है?”

कोई भी साहित्यिक-अकादमिक व्यक्ति इसे साहित्यिक विमर्श की जगह मैथिली वर्चस्ववाद और कपोल-कल्पित ‘मिथिला राज’ की चौहद्दी बढ़ाने के उद्देश्य से प्रेरित विमर्श की संज्ञा देगा। भाषा और साहित्य पर विमर्श के बहाने हासा अर्थात जमीन की लूट की कवायद है। दूसरे शब्दों में इसे रेणु के गांव से लेकर अंचल तक में जबरन घुसने का आपराधिक कुकृत्य भी कह सकते हैं।

यह सर्वविदित है कि मध्यकाल के इतिहास में कहीं भी मिथिला का जिक्र नहीं है। बौद्ध काल के 14 जनपदों में किसी का नाम मिथिला नहीं रहा। मिथिला नाम का कोई क्षेत्र इतिहास में नहीं रहा, इसलिए देश के प्रमुख भाषा परिवारों में भी मैथिली को स्थान नहीं मिला है। मगही-मागधी, सौराष्ट्री, मरहट्टा, पैशाची आदि भाषा परिवारों का जिक्र है, लेकिन मैथिली इसमें शामिल नहीं है। यह इसलिए कि मैथिली का जन्म ही मागधी-मगही से हुआ है।

‘मैला आंचल’ के मेरीगंज में काली टोपी वाले (आरएसएस वाले) उस दौर में जो सर उठा रहे थे, वही आज इस देश के सरताज बने हैं। इनका ही विश्वास इतिहास में नहीं मिथकीय आख्यानों में है। मिथिला और मैथिली वाले भी अपनी जड़ मिथकीय आख्यानों में ही तलाशते हैं। मिथकीय मैजिक के आधार पर संपूर्ण संसार में अपनी छाप देखते हैं। रेणु की भाखा में ऐसी मानसिकता को ‘लरछुत’ कहते हैं। यही मानसिकता भारतीय ग्राम्य अंचल का प्रतिनिधित्व करने वाली रेणु की रचनाओं में मिथिला-मैथिली के प्रभाव की खोज करने चला है, जो की स्वतंत्र भाषा है ही नहीं। आज मिथिला-मैथिली तो कल मगही, परसो भोजपुरी, तरसो अंगिका भी अपनी प्रभाव की खोज करेगी तो रेणु के गांव और अंचल में अस्मिताओं का टकराव होगा, जिससे समाज में जहर फैलेगा। यह जहर रेणु के गांव और अंचल के ताने-बाने को तहस-नहस करेगा। और इसका मतलब होगा देश का टूटना। सवाल है कि इस देश को तोड़ना कौन चाहता है?

दुखद यह कि इसकी प्रयोगशाला बिहार को बनाया जा रहा है। अलग मिथिला राज की परिकल्पना वक्त-बेवक्त कुलांचे मारती भी है। साहित्य अकादमी, दिल्ली इसका अगुआ बना है। भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, से संबद्ध ‘मधेपुरा काॅलेज मधेपुरा’ का कैम्पस कार्यक्रम स्थल है। कोसी के कछार पर बसे अंग के इलाका, जिसे कोसी बेल्ट या रेणु माटी कहते हैं, उसे ही रणभूमि बना दिया गया है। विश्वविद्यालय के कुलपति विमलेंदु शेखर झा हैं, जो स्वयं मैथिल ब्राह्मण हैं। कुलपति ही उद्घाटनकर्ता हैं। साहित्य में पहचान रखने वाले मैथिली साहित्यकार सह बिहार सरकार के अधिकारी तारानंद वियोगी का नाम भी मुखर वक्ता के रूप में शुमार है। तारानंद वियोगी भी स्थानीय ही हैं। मैथिली पहचान से प्यार इन्हें भी है।

आप दोनों समाजवादी राजनीति के अगुआ हैं। आप दोनों का ध्यान इस पत्र के माध्यम से आकृष्ट करना चाहता हूं कि हासा-भासा (संस्कृति व भाषा) की लूट और अस्मिताओं के टकराव का बीज हमारे सूबे में बोया जा रहा है। फैसला आपको लेना है। और यहां के समाजवादी ताने-बाने को आप दोनों से बेहतर कौन समझ सकता है?

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