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कश्मीर फाइल्स: बंदूक की कलम, आवाम सा पन्ना और खून की स्याही, ऐसे लिखा गया जन्नत का इतिहास

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विनीत त्रिपाठी

बताओ तुमने कश्मीर में क्या देखा? और फिर गूंजने लगते हैं आजादी, आजादी, आजादी, आजादी, आजादी के नारे…मैंने देखा एक खुला आसमान, उस आसमान के नीचे हिमालय के खूबसूरत पर्वतों से घिरी एक जन्नत है, उसी जन्नत में एक ऋषि आते हैं, वहां के पर्वत में बैठकर सालों एक ऋषि तपस्या करते हैं यानी वो रिसर्च करते हैं। वो रिसर्च करते हैं ताकि वो इस जन्नत से ज्ञान की गंगा बह सके। उन ऋषि का नाम था कश्यप और उन्हीं के नाम पर इस जन्नत का नाम रखा गया कश्मीर।

फिर हमने देखा कि शंकराचार्य केरल से पैदल से चलकर कश्मीर पहुंचे। केरला से कश्मीर। उनके पास कोई पुष्पक विमान नहीं था जो वो पैदल ही आए। उन्होंने हिमालय की गोद पर बैठकर सालों रिसर्च किया क्योंकि फिलॉसपी पर वो जो रिसर्च कर रहे थे वो केवल जन्नत पर ही संभव थी यानी कश्मीर में। जैसे हमारे यहां से बेस्ट रिसर्चर, साइंटिस्ट, स्टूडेंट्स हायर एजुकेशन के लिए फॉरेन जाते हैं उसी तरीके से देश के कोने-कोने से बेस्ट माइंट्स के लोग कश्मीर पहुंचे और वो अपने-अपनी फील्ड के पंडित बन गए। पंडित कौन हैं। आज की तर्ज में देखिए तो पीएचडी। मैंने देखा अभिनव गुप्त, उत्पल फिलॉसपी पर रिसर्च कर रहे हैं।

योगाक्षी एस्ट्रॉनॉट (ये दुनिया के सबसे पहले एस्ट्रॉनॉट थे)। चरक और बाणभट्ट आयुर्वेद पर, सुश्रुत मेडिकल साइंस, पाणिनी व्याकरण, विष्णु शर्मा मॉरेल साइंस पंचतंत्र उन्होंने ही लिखा। जो आजकल हम नाटक देखते हैं, नेटफ्लिक्स, सीरीज इन सब की शुरूआत किसने की। भरत मुनि ने नाटक लिखे कश्मीर में आकर….पर्दे पर फिल्म देखने के लिए जाते हुए आप मनोरंजन का अनुभव करते है। मगर यहां ऐसा नहीं हुआ। कश्मीर की हकीकत से वाकिफ था मगर उसका साक्षी बनना बेहद भावुक पल था।

कश्मीर फाइल्स ने लोगों को झकझोर दिया है। सचिन तेंडुलकर की बल्लेबाजी कर रहे हैं। कश्मीर की वादियां बर्फ की चादर ओढ़े हुए हैं और पास में रखे रेडियो में कमेंट्री हो रही है। बगल में दो बच्चे खेल रहे हैं तभी सचिन तेंडुलकर कवर की दिशा में चौका लगाते हैं और कमेंटर जोश में चिल्लाता है और फिर बच्चे कमेंट्री सुन रहे थे। तभी कृष्णा चिल्लाता है सचिन, सचिन, सचिन, सचिन। तभी कुछ लोग आते हैं और उसको धक्का देकर गिरा देते हैं और उसको लात घूंसों से मारने लगते थे। तभी उसका दोस्त उसको वहां से बचा लेता है। फिर वो भागकर जान बचाते हुए एक जगह छिप जाते हैं और देखते ही देखते तकरीबन 40 से 50 बंदूकधारी अल्लाह हू अकबर, आजादी, आजादी, आजादी का नारा लगाते हुए कश्मीर की कश्मीरियत का एक नया अध्याय शुरू करते हैं, जिसकी कलम थी बंदूख, कागज थे वहां की आवाम और स्याही का रंग था लाल।

फिर शुरू होता है वो दृश्य, जिसकी कल्पना तक हम आप नहीं कर सकते। हर सीन के बाद पिक्चर हॉल की सीटों मे से एक अजीब की आवाज सुनाई देती है वो आवाज जैसे आप वर्षों बंद बड़े दरवाजों को खोलने में सुनते हों। एक दम सन्नाटा। प्रेमी जोड़ों ने हाथों में हाथ थाम रखे हैं निगाहें एकदम सीधी हैं, कमर सीट से आराम से टिकी नहीं बल्कि आगे की ऊपर झुकी हुई है ये जानने के लिए अब ये आतंकी किस हद तक जाएंगे। तभी फिल्म में एक मोड़ आता है और सियासती नंगापन दिखता है। कैसे इन सियासी लोगों ने कश्मीर के लोगों को मरने दिया, कटने दिया, इज्जतें नीलाम होती रहीं, पेट पर गर्भ धारण किए महिला को गोलियों से भूना गया। कश्मीर के अधिकारियों ने जब दिल्ली को इसकी सूचना दी गई तो कहा गया होने दो।

ऐसा मैंने अपनी जिंदगी में पहले कभी नहीं देखा जो माहौल कश्मीर फाइल्स देखते वक्त एक सिनेमा हॉल में देखा। एक दम सुनसान, सन्नाटा, खौफ, दर्द और गुस्सा। मेरे बगल में बैठा एक परिवार। टक टकी लगाकर फिल्म देख रहा है। फिल्म में सीन आता है शारदा पंडित का किरदार निभाने वाली भाशा सुंबली को पहले नंगा किया जाता है। अनुपम खेर जोकि फिल्म में पुष्कर नाथ पंडित का किरदार निभा रहे हैं और वो शारदा पंडित के ससुर हैं और शारदा के बेटे के सामने को जिहाद के नाम पर आरा मशीन से ऐसे काट दिया जाता है जैसे किसी लकड़ी को दोफाड़ किया जा रहा हो। ये सीन देखकर सिनेमा हाल में बैठीं महिलाएं चीख पड़ती हैं। उनके चेहरे की भाव भंगिमाओं को कैसे लिखूं उसके लिए कहां से शब्द बटोरे जाएं। उनकी आंखें एकदम फटी हुई, मुंह के ऊपर हाथ, आंखों पर आंसुओं का सैलाब और फिर फिल्म के आखिर में एक साथ 24 लोगों को गिनकर माथे पर गोली मार दी जाती है। फिल्म खत्म होने के बाद भी लोग एक दूसरे का चेहरा देख रहे हैं।

इतिहास के पन्नों को तोड़-मरोड़ को परोसने वाले तमाम लेखक, पत्रकार सभी इस मामले के दोषी हैं। 1990 की हकीकत को सामने आते-आते 2022 का वक्त लग गया। पाकिस्तान के दो क्रांतिकारी शायर, जिन्होंने अपनी हुकूमतों के जुल्म के खिलाफ कुछ नज्में लिखी। आज भारत में इन नज्मों को गाया जाता है हुकूमत के जुल्म के खिलाफ नहीं बल्कि अपना एजेंडा सेट करने के लिए। इस फिल्म ने इतने सारे पहलुओं को बेनकाब किया है। फै़ज़ अहमद फै़ज साहब की नज़्म…लाज़िम है कि हम भी देखेंगे। हां देखेंगे तो जरुर। मगर फरेबी लोगों के एजेंडों को नहीं बल्कि 1990 के भीषण नरसंहार की हकीकत।

हबीब ज़ालिब साहब की मशहूर नज़्म है दस्तूर। इसका गुणगान भी होता है। होना भी चाहिए क्योंकि हुकूमतशाही की खिलाफ पेश की गई ये नज़्म आलादर्जे की है।

दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता …

हां, मैं नहीं जानता कि आखिर 1990 से पहले वाली कश्मीर की सुब्ह हम कब तक देख पाएंगे।

 सरकारें किसी की भी हों, गुनहगार कोई भी हो, समय चाहे जितना जीत बीत चुका हो, अगर लोकतांत्रिक देश में ऐसी घटनाएं होती हैं तो फिर उनको छिपाया जाता है तो ये हरगिज बर्दाश्त नहीं होना चाहिए।

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