अरुण कुमार त्रिपाठी
विलियम शेक्सपीयर का मशहूर नाटक है रोमियो जूलियट। उसकी नायिका जूलियट नायक रोमियो से कहती है कि `नाम में क्या रखा है। हम गुलाब को गुलाब कहते हैं। लेकिन अगर हम उसे किसी और नाम से बुलाने लगें तो भी उसकी मनमोहक सुगंध वैसी ही रहेगी।’ इसी तरह महात्मा गांधी एक जगह कहते हैं कि ईश्वर के सहस्र नाम ही क्यों हैं? उनके तो इतने नाम होने चाहिए जितने कि प्रकृति में जीव जंतु और वनस्पतियां हैं। आखिर सभी में तो उनका वास है। भारत में अगर विष्णु सहस्रनाम या दुर्गा सहस्र नाम की परंपरा न होती तो बच्चों के लिए भांति-भांति के नाम ढूंढने मुश्किल हो जाते।
लेकिन शेक्सपीयर के नाम में क्या रखा है जैसे मशहूर कथन को पलट कर विनायक दामोदर सावरकर अपने ग्रंथ हिंदुत्व में लिखते हैं कि सब कुछ नाम में ही रखा है। एक बार भारत को हिंदू राष्ट्र बनाकर तो देखो कितनी तेजी से सब कुछ बदलता है। नाम बदलने के इसी क्रम में वे हिंदुत्व शब्द की खोज करते हैं। आज लगभग उसी भावना से संविधान के संकल्पों के विपरीत इंडिया’ शब्द को खारिज करके सिर्फ
भारत’ शब्द के प्रयोग पर जोर दिया जा रहा है। जबकि तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट उस याचिका को खारिज कर चुका है जिसमें कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 1 में वर्णित इस कथन को बदल दिया जाए कि 'इंडिया दैट इज भारत (यानी इंडिया जो कि भारत है)।’ याचिकाकर्ता की मांग थी कि वहां सिर्फ
भारत’ शब्द रखा जाए और चूंकि इंडिया औपनिवेशिक अतीत का द्योतक है इसलिए इससे मुक्ति पाई जाए।
हालांकि प्रधानमंत्री खेलो इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, स्किल इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसी तमाम परियोजनाएं चलाते रहे हैं। लेकिन जब से विपक्षी दलों ने इंडिया (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस) नाम से संगठन बनाया है तब से वे इंडिया के ही खिलाफ हो गए हैं।
क्रोध और शत्रुता में तो वे यहां तक कह गए कि भारत को गुलाम बनाने वाली कंपनी का नाम भी ईस्ट इंडिया कंपनी था और आतंकी संगठनों के नाम में भी इंडिया जुड़ा रहता है। यह चिढ़ इस हद तक बढ़ गई है कि पिछले महीने जब वे यूनान के दौरे पर गए तो उन्होंने अपने पद नाम में प्राइम मिनिस्टर आफ भारत’ लिखवाया। आगामी इंडोनेशिया के दौरे में भी वे वही लिखवा रहे हैं। ताजा विवाद तब उठा जब जी-20 की बैठक में शनिवार यानी 9 सितंबर के निमंत्रण राष्ट्रपति की ओर से गया और उस पर अंग्रेजी में लिखा था
प्रेसीडेंट आफ भारत’। यह शब्द या पद जब भी हिंदी में लिखा जाता है तो भारत की राष्ट्रपति ही लिखा जाता है। लेकिन अंग्रेजी में इंडिया नाम स्वीकृत है। जब संविधान में दोनों को समानार्थी शब्द ही माना गया है तो फिर खामोशी से इस तरह का नामांतरण क्यों। लेकिन विपक्षी दलों को आशंका है कि एनडीए गठबंधन और उसका नेतृत्व विपक्षी दलों के इंडिया नाम और परोक्ष रूप से उसे मिलने वाले प्रचार से इतना परेशान है कि वह देश का नाम ही बदल डालने पर आमादा है। इसीलिए वे कहने लगे हैं कि सितंबर के मध्य में जब संसद का विशेष सत्र आहूत किया गया है तो उसमें इस मकसद को अंजाम दिया जा सकता है। हालांकि सरकार इससे इंकार कर रही है।
दरअसल इस उपमहाद्वीप के विविध नाम रहे हैं। जिनमें सबसे ज्यादा प्रमुख रूप से उभरने वाले नाम जम्बूद्वीप, आर्यावर्त, भारतवर्ष, हिंदुस्तान और इंडिया रहे हैं। यह सारे नाम हमारे देश की प्राचीनता और विविधता को परिलक्षित करते हैं। वैसे जैसे गांधी के अनुसार ईश्वर के विविध नाम हैं और उससे किसी को कोई विवाद करने की बजाय उन सभी का आनंद लेना चाहिए। लेकिन संकीर्ण मानस से समरूपता और एकरूपता का विचार उत्पन्न होता है और वह कहता है कि नहीं हमारा ही नाम सत्य है और वह एक ही है उसमें विविधता की कोई गुंजाइश नहीं है। भारत का विचार इसी कट्टरता के विरुद्ध खड़ा हुआ एक सभ्यतामूलक आह्वान है। लेकिन नासमझ और एकाधिकारवादी राजनीति एक देश एक निशान, एक देश एक चुनाव और एक देश एक नाम के विवाद में उलझ पड़ी है।
राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक `इंडिया आफ्टर 1947’ में लिखते हैं कि यह देश सदैव भूभाग की एकजुटता से समृद्ध नहीं रहा है। इसके इतिहास में महज तीन ही अवसर ऐसे हैं जब इसके बड़े हिस्से पर कोई केंद्रीय सत्ता रही है। एक समय मौर्य वंश के शासक अशोक का है तो दूसरा मुगलों का शासन है और तीसरा अंग्रेजों का शासन है। अशोक का कार्यकाल सा.स.पू.(ईसा पूर्व) तीसरी सदी का है और उस समय इस क्षेत्र को जम्बूद्वीप कहा जाता था। मुगल काल में इसे हिंदुस्तान कहा जाता था और ब्रिटिश काल में इंडिया।
हालांकि इसके अलावा और भी काल विभाजन किए जाने चाहिए लेकिन तब यह भूभाग इतने बड़े पैमाने पर एकजुट नहीं रहा है। बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय में कहा गया है कि इसी जम्बूद्वीप को भारतवर्ष कहा जाता था तो कभी भारतवर्ष को जम्बूद्वीप का हिस्सा बताया जाता था। अशोक के समय जम्बूद्वीप को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जहां पहले देवता मनुष्यों से नहीं मिलते थे लेकिन अब मिलने लगे हैं। अशोक का जम्बूद्वीप दक्कन से लेकर अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। इस शब्द के भौगोलिक अर्थ का विस्तार कैसे हुआ यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन खारवेल यानी कलिंग के राजा ई. पू. पहली सदी में दावा करते हैं कि वे भारतवर्ष को जीतने गए थे।
वास्तव में भारतवर्ष का अर्थविस्तार पौराणिक युग में हुआ। महाभारत, विष्णु पुराण, रघुवंशम, वायु पुराण और काव्यमीमांसा जैसे ग्रंथों में यह शब्द आया है। विष्णु पुराण के तीसरे अध्याय में कहा गया है कि-
उत्तरम यत् समुद्रश्च हिमाद्रिचैव दक्षिणम्
वर्षण तय भारतनाम भारती यत्र संततिः
यानी जो क्षेत्र समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में स्थित है उसका नाम भारत है और भारती उसकी संतानों को कहा जाता है।
लेकिन रामायण में भारतवर्ष शब्द का उल्लेख नहीं है। भले बाद में दावा किया जाता हो कि राजा रामचंद्र के अनुज भरत के नाम पर इस भूभाग का नाम भारतवर्ष पड़ा। हां महाभारत में दिग्विजय शब्द के साथ ही भारत वर्ष शब्द आता है।
लेकिन हम उन नामों का क्या करें जो भले बाहर से आए हों लेकिन हमारी चेतना का हिस्सा बन गए हैं। जैसे कि हिंदुस्तान शब्द है। इसमें वर्णित हिंदु शब्द संस्कृत के सिंधु शब्द का फारसी रूप है। फारस के शासकों ने ईसा पू. छठी सदी में जब इस भूभाग यानी भारत पर हमला किया तो उन्होंने इसका नाम हिंद रख दिया। इसी हिन्द से यूनानियों ने इंडस शब्द निकाला और इस भूभाग को इंडिया कहने लगे। ईसा पू. तीसरी सदी में अलेक्जेंडरिया के राजा सिकंदर के आक्रमण के बाद पूरी दुनिया में यह नाम काफी चलन में आया। इसी इंडस और हिंद से हिंदू शब्द भी बना है जिसे आज एक समुदाय की धार्मिक पहचान के तौर पर विशेष रूप से उल्लिखित किया जाता है।
सोलहवीं सदी से 18 वीं सदी तक जब इस देश पर मुगलों ने राज किया तो भारतवर्ष शब्द पृष्ठभूमि में चला गया और इसका हिंदुस्तान नाम ज्यादा चलन में रहा। उसके बाद जब अंग्रेज आए तो उन्होंने इसके भूगोल और सामाजिक चेतना को मिलाकर अपने लिहाज से इसे ‘इंडिया’ नाम दिया। जो आज विवादों में उलझा हुआ है।
ध्यान देने की बात है कि जहां गांधी ने इसी हिंद शब्द का ध्यान रखते हुए अपनी पहली सैद्धांतिक कृति हिंद स्वराज लिखी। ऐसा नहीं है कि उनके लेखन और वक्तव्यों में भारत शब्द नहीं आता लेकिन वे जिस सहज भाव से इंडिया शब्द का प्रयोग करते हैं उसी भाव से हिंदुस्तान और भारत का भी। अगर ऐसा न होता तो दक्षिण अफ्रीका में उनके अखबार का नाम इंडियन ओपीनियन’ और भारत में उनके अखबार का नाम
यंग इंडिया’ न होता। इसीलिए पंडित जवाहर लाल नेहरू भी डिस्कवरी आफ इंडिया में इंडिया, भारत और हिंदुस्तान को समानार्थी शब्द मानते हुए वर्ताव करते हैं। उनके लिए भारतमाता कोई कल्पना की मूर्ति और देवी नहीं इस देश के करोड़ों भारतवासी और यहां की नदियां, वन, खेत और पहाड़ ही हैं जिनके सुख दुख उनकी चिंता के केंद्र में हैं।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी जब भारत की आजादी की लड़ाई के लिए एक सेना का गठन करते हैं तो उसका नाम आजाद हिंद फौज’ या अंग्रेजी में
इंडियन नेशनल आर्मी’ रखते हैं। यह सब लोग जो भारत को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर रहे थे क्या हम यह कह सकते थे कि उनके भीतर औपनिवेशिक गुलामी की भावना थी? यहां इकबाल के सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा वाले उस तराने की याद भी अप्रासंगिक नहीं होगी जो कहीं न कहीं पयामे आजादी में पहली बार छपे अजीमुल्ला खान के अनगढ़ गीत से प्रेरित है।
आखिर आर्यों के भारत के मूल निवासी होने का दावा भी अभी पुष्ट नहीं हुआ है। अगर वे बाहर से आए तो उनके द्वारा रचित संस्कृत ग्रंथों में वर्णित नाम कैसे स्वदेशी हो गए। फिर तो अगर हमें इस देश के वास्तविक नामों की खोज करनी है तो आदिवासी समाजों में वर्णित इस देश के विभिन्न क्षेत्रों के नाम ढूंढने होंगे।
वास्तव में भारत में विऔपनिवेशीकरण का सारा विमर्श न तो आदिवासी समाज को ध्यान में रख कर चलता है और न ही इस्लाम के मानने वालों का ख्याल रखता है। वह बौद्धों का भी ध्यान नहीं रखता। वह एक अर्थ में ईसाई विरोधी, इस्लाम विरोधी और आदिवासी विरोधी स्थापनाओं के सहारे खड़ा हो रहा है। इस विमर्श में यह संभावना थी कि वह लैटिन अमेरिका और अफ्रीकी देशों की तर्ज पर यूरोप के औपनिवेशिक शासकों की लूट और सांस्कृतिक दमन का प्रतिकार नई ज्ञान संरचना के माध्यम से करता। वह यूरोप की सैद्धांतिक श्रेष्ठता को चुनौती देकर अपनी नई ज्ञान परंपरा की तलाश करता। लेकिन वह मुगलों के शासन को औपनिवेशिक शासन मान कर नहीं किया जा सकता। न ही इस विऔपनिवेशीकरण में उस दमन और लूट की उपेक्षा की जा सकती है जो सभ्य समाज ने आदिवासियों के साथ किया है। एक तरह का आंतरिक उपनिवेशन भी हुआ है हम उसकी अवहेलना नहीं कर सकते। लेकिन इस परियोजना पर हिंदुत्व ने जिस तरह से सवारी गांठी है उससे उसकी दिशा ही बदल गई है।
वास्तव में आज का विऔपनिवेशीकरण तीन सौ से एक हजार साल के औपिनिविशीकरण से मुक्ति की बात तो करता है लेकिन वह इस दौर में नवउदारवाद के सहारे चल रहे औपनिवेशिक और कारपोरेट लूट की उपेक्षा करता है। वह उससे आंख मूंद लेता है। वह उस प्रौद्योगिकी पर भी चर्चा नहीं करता जो मानवीय संबंधों को बदल देने वाली है।
लेकिन यहां लाख टके का सवाल यह है कि जिन्हें इंडिया’ शब्द से चिढ़ है वे
हिंदू’ शब्द का क्या करेंगे? क्योंकि यह शब्द भी बाहर से आया है लेकिन आज धर्म, दर्शन, भाषा, साहित्य और राजनीति के केंद्र में बैठ गया है। क्या हिंदुत्व के पैरोकार इस शब्द को भी किनारे लगाएंगे? क्या वे इसकी जगह पर अब सनातन शब्द का प्रयोग करेंगे?
अंत में अनुसूचित जाति और जनजाति के पूर्व आयुक्त डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा की 28 वीं और 29 वीं रपट के माध्यम से कहा जा सकता है कि भारत में तीन सामाजिक श्रेणियां हैं। एक इंडिया है, दूसरी भारत है और तीसरी हिंदुस्तनवा की है। उनका कहना है कि आदिवासी समाज तो हिंदुस्तनवा में रहता है। उसके शोषण और दमन में इंडिया और भारत दोनों शामिल हैं। इसलिए फिर शेक्सपीयर की वही बात आती है कि नाम में क्या रखा है। नाम भारत रख लो लेकिन शोषण और लूट की पूरी छूट इंडिया वाली ही जारी रहे तो क्या भारत के किसानों, मजदूरों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों की चीख का स्वर बदल जाएगा? अगर नाम कोई भी रहे लेकिन देश शोषण विहीन और समतामूलक बनता है तो वह नाम ज्यादा सुखद अनुभूति देने कर्णप्रिय और सुगंध देने वाला होगा।