भारत की आजादी के आंदोलन के विकसित होने में देशभक्तों द्वारा दी गयी शहादतों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। खुदीराम बोस की शहादत भी उन सैकड़ों शहादतों में से एक रही है जो अंग्रेजी हुकूमत के लिए महंगी साबित हुई। अंग्रेजी हुकूमत, जिसको कि अपनी ताकत और होशियारी पर बड़ा नाज था। वह एक अठारह साल के लड़के के स्वाभिमान, जज्बे और हौसले को जरा भी डिगा पाने में असफल रही। खुदीराम बोस द्वारा हंसते हुए फांसी के फंदे पर झूल जाने की घटना ने कविता और गीतों की रचना को प्रेरित किया और जनमानस में आजादी की चाहत को तेज किया।
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर, 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले में हुआ था। उनकी छोटी उम्र में ही उनके माता-पिता का देहांत हो गया। उनका पालन-पोषण उनकी बहन ने किया। वे अपने स्कूली दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। नौवीं कक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। बंगाल विभाजन के विरोध में पैदा हुए देशव्यापी आक्रोश के दौर में खुदीराम बोस ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की।
1765 से बक्सर की लड़ाई के बाद से, बंगाल प्रांत अंग्रेजों के कब्जे में था। इस प्रांत में आज का पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, असम और बांग्लादेश शामिल था। अंग्रेजो ने 1905 में बंगाल प्रांत का विभाजन कर दिया। विभाजन के बाद दो प्रांत बने। पहला बंगाल था जिसमें आज का पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और बिहार शामिल था। दूसरा प्रांत पूर्वी बंगाल और असम बना, जिसमें आज का बांग्लादेश और असम शामिल था। यह विभाजन सांप्रदायिक आधार पर था। अंग्रेजां ने आजादी के आंदोलन को कमजोर करने के लिए अपनी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के आधार पर इस विभाजन को अंजाम दिया था। अंग्रेजां की इस हरकत को देश के लोगों ने अपनी मातृभूमि का अपमान माना। पूरे देश में आक्रोश का ज्वार फैल गया। लोगों ने अंग्रेजो की चाल भांप ली। इस फैसले के खिलाफ पूरे देश में स्वदेशी और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन फूट पड़ा। रविन्द्र नाथ टैगोर ने विभाजन के खिलाफ आमार सोनार बांग्ला गीत की रचना की जो काफी लोकप्रिय हुआ। आज यह गीत बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत है।
स्वदेशी आंदोलन फूटने से पहले ही खुदीराम अरविंदो घोष के अनुशीलन समिति के संपर्क में आ चुके थे। 1902 और 1903 में श्री अरविंदो और सिस्टर निवेदिता ने मिदनापुर में कुछ जनसभाओं और बंद बैठकों को संबोधित किया। खुदीराम इन स्थानों में होने वाली चर्चाओं में बढ़-चढ़कर भागीदारी करते थे। अनुशीलन समिति अपनी शाखाओं के द्वारा नौजवानों को संगठित करता था। इन शाखाओं में गीता का अध्ययन, कुश्ती और लाठी चलाने से संबंधित अभ्यास और बम बनाने आदि का प्रशिक्षण दिया जाता था। *अभी क्रांतिकारी आंदोलन में मजदूरों और किसानों को संगठित कर क्रांति करने की चेतना नहीं आयी थी। क्रांतिकारी लोग सोचते थे कि अंग्रेज सरकारी अधिकारियों और पुलिस अधिकारियों को निशाना बनाकर वे अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए बाध्य कर सकते हैं।*
अपने संगठन की समझ के आधार पर खुदीराम क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने लगे। वे पुलिस थानों में बम लगाकर पुलिस अधिकारियों को मारने की कोशिश करते थे। इन गतिविधियों की वजह से उन्हें 28 फरवरी, 1906 को गिरफ्तार किया गया। वह कैद से भाग निकले। लगभग दो माह बाद वह फिर पकड़े गये। उम्र कम होने की वजह से उन्हें 16 मई, 1906 को रिहा कर दिया गया। 6 दिसंबर, 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गर्वनर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परंतु गर्वनर बच गया। 1908 में खुदीराम ने दो अंग्रेज अधिकारियों वाटसन और पैम्फायल्ट फूलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले।
दूसरी तरफ अंग्रेजी सरकार अत्यंत हिंसक तरीके से स्वदेशी आंदोलनकारियों का दमन कर रही थी। इस मामले में कलकत्ता का चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट डगलस किंग्सफोर्ड काफी कुख्यात था। *एक घटना ने किंग्सफोर्ड की बदनामी और बढ़ाई और वह क्रांतिकारियों के निशाने पर आ गया। आरविंदो घोष और विपिन चन्द्र पाल के मुकदमे पर सुनवाई के दौरान क्रांतिकारियों को पुलिस द्वारा पीटे जाने की कार्यवाही का एक 15 वर्षीय नौजवान सुशील सेन ने विरोध किया। किंग्सफोर्ड ने सुशील सेन को 15 कोडे़ लगाने की सजा सुनाई। हर कोडे़ के साथ सुशील सेन वंदे मातरम का नारा लगाता रहा। यह खबर अखबारों में काफी छपी। क्रांतिकारियों ने जब इस खबर को पढ़ा तो उनका खून खौल उठा और उन्होंने तय किया कि बदला ही किंग्सफोर्ड का एक मात्र इलाज है।*
लेकिल, ब्रिटिश सरकार को इसकी भनक लग गयी और उन्होंने किंग्सफोर्ड का तबादला कलकत्ता से मुजफ्फरपुर कर दिया। उनकी योजना थी की लोगों का गुस्सा कम होने तक किंग्सफोर्ड को बंगाल से बाहर रखा जाय। क्रांतिकारियों ने इस बात को भांप किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर में ही मारने का निर्णय लिया। यह एक कठिन मिशन होना था और अत्यंत विश्वस्त लोगों को ही यह जिम्मेदारी सौंपी जा सकती थी। खुदीराम बोस और प्रभुल्ल कुमार चाकी को यह जिम्मेदारी सौंपने का निर्णय लिया गया। दोनों ही इस काम के लिए सहर्ष तैयार हो गये।
खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को मुजफ्फरपुर में मोतीझील भेजा गया। वहां पहुंचकर उन्होंने किशोरीमोहन बंधोपाध्याय के धर्मशाला में अपना निवास बनाया। उन्होंने क्रमशः अपना छद्मनाम हरेन सरकार और दिनेश राय रखा। वहां पहुंचते ही उन्होंने हमले की योजना बनाने और तैयारी करने का काम शुरू कर दिया। पहले उन्होंने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या, उसकी कार्यवाही और उसके आने-जाने की जगह की निगरानी की। उन्होंने उसके कोर्ट, क्लब और घर आने-जाने के समय का टोह लिया। वे बेगुनाह लोगों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते थे, इसलिए दिन के समय कोर्ट के आस-पास हमले का विकल्प खारिज हो गया। अंततः उन्होंने तय किया कि या तो घर से क्लब जाते समय या क्लब से घर आते समय, जब वह अकेला होता है हमला किया जाय। 30 अप्रैल, 1908 की शाम को दोनों क्रांतिकारी इसी मकसद से यूरोपीय क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड की बग्घी के बाहर आने का इंतजार कर रहे थे। उस वक्त साढे़ आठ बज रहे थे। जैसे ही बग्घी बाहर आयी वे फुर्ती से आगे बढ़े और बचाव के लिए एक हाथ में पिस्तौल लिए दूसरे हाथ से बम फेंका। बम निशाने पर था और बग्घी नष्ट होकर जलने लगी। दोनों तुरंत वहां से अंधेरे का फायदा उठाकर स्टेशन की तरफ भाग निकले। संदेह से बचने के लिए वहां से दोनों अलग हो गये। लेकिन इस पूरी जल्दबाजी में वे यह नहीं समझ पाये कि बग्घी में किंग्सफोर्ड नहीं बल्कि एक बैरिस्टर प्रिंगस केनेडी के पत्नी और बेटी बैठे थे। उन दोनों की मौत हो गयी और यह खबर आग की तरह फैली। उसी वक्त पुलिस द्वारा घोषणा की गयी कि हमलावरों को पकड़ने वाले या पुलिस को उन तक पहुंचने में मदद करने वाले को एक हजार रूपये का इनाम दिया जायेगा। मुजफ्फरपुर को जोड़ने वाले रूट के सभी स्टेशनों पर भारी पुलिस तैनाती की गयी और सभी सरकारी कर्मचारियों को आदेश दिया गया कि आने-जाने वाले सभी यात्रियों पर पैनी नजर रखें।
दोनों साथी अलग-अलग पैदल ही मुजफ्फरपुर से दूर निकलने की कोशिश कर रहे थे। पूरी रात और आधे दिन की यात्रा के बाद एक सरकारी कर्मचारी त्रिगुणाचरण घोष की नजर प्रफुल्ल चाकी पर पड़ी। उस वक्त प्रफुल्ल चाकी तेज गर्मी से भरी दोपहरी में लगभग बेदम हो चुके थे। त्रिगुणाचरण बम हमले की घटना के बारे में सुन चुके थे और उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि यह बेदम हो चुका नौजवान बम हमला करने वाले क्रांतिकारियों में से एक है। सरकारी कर्मचारी होने की वजह से वह सरकार के खिलाफ किसी कार्यवाही में शामिल नहीं होते थे, लेकिन इस मौके पर वह अपने आप को प्रफुल्ल चाकी की मदद करने से रोक नहीं सके। वे प्रफुल्ल को अपने घर ले गये और उनके नहाने, खाने और आराम करने का इंतजाम किया। उन्होंने प्रफुल्ल को कुछ नए कपड़े दिए और रात की ट्रेन से सुरक्षित कलकत्ता लौटने का इंतजाम किया। लेकिन इस सुसंयोग के बाद दुर्योग प्रफुल्ल चाकी का इंतजार कर रहा था। समस्तीपुर से ट्रेन में बैठने के बाद उन्हें मोकामाघाट पर ट्रेन बदलनी थी और हावड़ा के लिए ट्रेन पकड़नी थी। जिस कंपार्टमैंट में प्रफुल्ल बैठे थे, उसी में पुलिस का एक दरोगा नंदलाल बनर्जी भी बैठा हुआ था। उसे इस बंगाली छात्र पर तुरंत संदेह हो गया। वह इस नौजवान के पास आया और उससे बातचीत शुरू की। प्रफुल्ल इस बात से अंजान थे कि उनका सहयात्री पुलिस का आदमी है और उन्हें अपने जाल में फंसाने की कोशिश कर रहा है, सिमरियाघाट स्टेशन पर पानी पीने उतरे। दरोगा ने तुरंत मुजफ्फरपुर पुलिस स्टेशन को अपनी इस मुलाकात और संदेह के बारे में तार भेजा। तुरंत निर्देश आया कि प्रफुल्ल को गिरफ्तार किया जाय। दूसरी तरफ प्रफुल्ल मोकामाघाट पर अपनी यात्रा पूरी कर हावड़ा को ट्रेन बदलने के लिए ट्रेन से उतरे। अचानक उन्होंने देखा कि उनका सहयात्री कई पुलिसवालों के साथ उद्देश्यपूर्वक उनकी तरफ बढ़ा चला आ रहा है। उन्होंने दरोगा पर गोली चलाई लेकिन वे असफल रहे। उन्होंने ठान रखा कि वे ब्रिटिश पुलिस की पकड़ में जीवित नहीं आयेंगे, इसलिए उन्होंने अपने आप को गोली मार ली।
दूसरी तरफ खुदीराम 25 मील पैदल चलते हुए भूखे-प्यासे वैनी स्टेशन पहुंचे। उन्होंने एक चाय की दुकान पर एक गिलास पानी मांगा। दो सिपाहियों ने पसीने से तर-बतर खुदीराम के हुलिए को देखकर खुदीराम से पूछताछ शुरू कर दी। एक-दो सवाल के बाद उनका संदेह पुख्ता हो गया और उन्होंने खुदीराम को हिरासत में लेने का निर्णय लिया। खुदीराम दोनों से संघर्ष करने लगे और इस हाथापाई में उनके दो रिवाल्वरों में से एक गिर गया। इससे पहले की वे रिवाल्वर से गोली चलाते एक सिपाही ने उन्हें पीछे से दबोच लिया। कम उम्र के और दुबले-पतले खुदीराम के पास अब यह मौका नहीं था कि वे अपने को छुड़ा कर भाग सकें। उनके पास से 37 गोलियां, 30 रूपये नकद, एक रेल नक्शा और रेल टाइम टेबल का एक पेज बरामद हुआ। 1 मई को हथकड़ी लगाकर उन्हें मुजफ्फरपुर लाया गया। सशस्त्र पुलिस से घिरे इस नौजवान को देखने पूरा शहर उमड़ पड़ा। अगले दिन अंग्रेजी दैनिक स्टेट्समैन में छपा,
*‘‘पूरा स्टेशन लड़के को देखने के लिए भरा हुआ था। मात्र 18 साल का लड़का जो काफी दृढ़निश्चयी दिखता है। वह प्रथम श्रेणी कंपार्टमेंट से पैदल चलकर बाहर उसके लिए खड़े तांगे तक एक बिना किसी चिंता वाले हंसमुख लड़के की तरह गया। …सीट पर बैठने के बाद उसने वंदे मातरम् का नारा बड़े जोश-खरोश से लगाया।’’*
खुदीराम के मुकदमे को लड़ने के लिए कई नामी-गिरामी वकीलों ने निशुल्क अपने आप को पेश किया। लेकिन ब्रिटिश अदालतें क्रांतिकारियों को सख्त से सख्त सजा सुनाने पर आमादा रहती थीं। *13 जून को जज ने खुदीराम को मौत की सजा सुनाई। जब जज ने फैसला सुनाया तो खुदीराम मुस्कुरा उठे। जज को लगा कि खुदीराम सजा को समझ नहीं पाये हैं, इसलिए वे मुस्कुरा रहे हैं। जज ने पूछा कि क्या तुम्हें सजा के बारे में पूरी बात समझ में आ गई है। इस पर खुदीराम ने दृढ़ता से जज को ऐसा जवाब दिया जिसे सुनकर जज भी स्तब्ध रह गया। उन्होंने कहा कि न सिर्फ उनको फैसला पूरी तरह समझ में आ गया है, बल्कि समय मिला तो वह जज को बम बनाना भी सिखा देंगे।*
खुदीराम को फांसी की सजा सुनाए जाने की वजह से पूरे देश में गुस्से की लहर फैल गयी। कलकत्ता का पूरा छात्र समुदाय तीखे विरोध में उतर पड़ा। कुछ दिनों तक कलकत्ता की सड़के पूरे-पूरे दिन जुलूसों की वजह से जाम थी। तब भी खुदीराम बोस को 11 अगस्त, 1908 को फांसी दे दी गयी। उस दिन जेल के पास और शवयात्रा में पूरा जन समुद्र उमड़ पड़ा। अगले दिन के अखबार उनके हंसते-हंसते फांसी के लिए जाने की खबर छापने को मजबूर हुए।
*खुदीराम बोस की शहादत देश की जनता के दिल को किस कदर छू गयी, उसका एक उदाहरण यह बात है कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे जिसकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा रहता था। पिताम्बर दास द्वारा लिखा देशभक्ति गीत ‘‘एक बार बिदाई दे मां घुरे आसी’’ खुदीराम के सम्मान में ही लिखा गया था।* काजी नजरूल इस्लाम ने भी खुदीराम के सम्मान में एक कविता लिखी। खुदीराम बोस की शहादत हमेशा ही न्याय और मुक्ति के संघर्षों को प्रेरणा देती रहेगी।
*साभार : परिवर्तनकामी छात्रों नौजवानों का परचम त्रैमासिक पत्रिका (वर्ष-11 अंक-1 अक्टूबर-दिसम्बर, 2019)*