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राज्यसत्ता के संरक्षण में आज़ाद घूमते हत्यारे

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सभी तरह के राजनीतिक विरोध को कुचलने का काम भाजपा और संघ परिवार कर रहे हैं

प्रियम्वदा

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन लोकुर के नेतृत्व में बनी जजों की एक कमेटी ने दिल्ली में फ़रवरी 2020 में हुए दंगो पर एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट ने केन्द्र व राज्य सरकार के साथ-साथ पूरी राज्य मशीनरी पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया है और दिल्ली दंगों के मुख्य कारणों के तौर पर सत्तासीन हुक्मरानों को ज़िम्मेदार ठहराया है।
रिपोर्ट में इन बातों को साक्ष्यों के साथ स्पष्ट किया गया है कि :
1) केन्द्र व राज्य सरकार की लापरवाही, साम्प्रदायिक चरित्र और दंगाइयों को दी गयी खुली छूट ने देश की राजधानी दिल्ली में इस बर्बरतम घटना को अंजाम देने का काम किया।
यह कमेटी कहती है कि “केन्द्र और राज्य सरकारें जीवन, सम्पत्ति और क़ानून के शासन की रक्षा के लिए अपने गम्भीर दायित्व को पूरा करने में विफल रही हैं।”
2) दिल्ली पुलिस व इस मसले में जाँच कर रही एजेंसियों को भी यह रिपोर्ट कठघरे में खड़ा करती है। दिल्ली पुलिस के अल्पसंख्यक-विरोधी रवैये व नफ़रत के कई प्रमाण रिपोर्ट में दर्ज हैं।
3) मीडिया द्वारा फैलाये गये झूठ व तैयार किये गये साम्प्रदायिक माहौल का भी पर्दाफ़ाश जजों की इस कमेटी ने किया है।
वैसे तो यह ताज्जुब की ही बात है कि इस रिपोर्ट को आने में क़रीब-क़रीब तीन साल का वक़्त लग गया। मगर शायद ही कोई इन्साफ़पसन्द व्यक्ति इस बात को भूल सकता है कि किसी भी दंगे के समान दिल्ली में हुआ दंगा कोई अनायास हुई घटना नहीं थी। सीएए और एनआरसी के विरोध में उठ खड़े हुए देशव्यापी आन्दोलन से भाजपा सरकार बुरी तरह बौखलायी हुई थी। अपने तमाम हथकण्डों के ज़रिए नागरिकता क़ानून विरोधी आन्दोलन को दबा पाने में असफल फ़ासीवादी मोदी सरकार के पास साम्प्रदायिक दंगे भड़काने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था। कपिल मिश्रा से लेकर अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा, रागिनी तिवारी जैसे भाजपा व उसके अनुषंगी संगठनों के नेताओं ने बाक़ायदा अपने साम्प्रदायिक भाषणों के ज़रिए भीड़ को हिंसा के लिए उकसाया था।
पुलिस अधिकारियों के सामने दिये जाने वाले भड़काऊ भाषणों के पर्याप्त प्रमाण मौजूद होने के बाद भी दिल्ली पुलिस ने इनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की। शायद दिल्ली पुलिस की परिभाषा में “देश के ग़द्दारों को, गोली मारो सालों को!” का नारा हिंसक है ही नहीं?
यह पहली बार नहीं है जब फ़ासीवादी ताक़तों ने हिंसा व आतंक के ज़रिए अल्पसंख्यक समुदाय पर अपना प्रभुत्व और आतंक स्थापित करने की कोशिश की है।
भाजपा और संघ द्वारा प्रायोजित उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों ने न सिर्फ़ फ़ासीवादी ताक़तों के बर्बर चेहरे को बेपर्द किया बल्कि दिल्ली में बैठी केजरीवाल सरकार की असलियत भी उद्घाटित की है।
आम आदमी पार्टी की सरकार ने कभी भी ग़रीब-मेहनतकश विरोधी सीएए-एनआरसी क़ानून पर अपना पक्ष खुलकर नहीं व्यक्त किया। दंगो की आग में जब आम लोगों की बस्तियाँ जल रही थीं तब ख़ुद को “आम आदमी के हितैषी” बताने वाले केजरीवाल और उसके तमाम नेता-मंत्री अपने महलों में आराम फ़रमा रहे थे। 24 फ़रवरी 2020 को कुछ मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ताओ ने अरविन्द केजरीवाल से मिलकर यह अपील की थी कि अगर ‘आप’ के सभी नेता-मंत्री उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगा प्रभावित इलाक़ों में आकर इस साम्प्रदायिकता की आग को कम करने का काम करें तो उनकी मौजूदगी और सुरक्षा बलों की तैनाती से हिंसा को कम किया जा सकता है। लेकिन इस पार्टी के एक नेता-मंत्री तक ने यह करना मुनासिब नहीं समझा। ये नक़ाबपोश प्रतिक्रियावादी दिखावे की नौटंकी से यहाँ भी नहीं चूके और 25 फ़रवरी को केजरीवाल कुछ नेताओं को लेकर राजघाट पर शान्ति की अपील करने पहुँचे।
यह कहना बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दिल्ली में सत्तासीन आम आदमी पार्टी भाजपा की बी टीम है। इनकी धुर-दक्षिणपन्थी लोकरंजक राजनीति ने सिर्फ़ और सिर्फ़ संघी फ़ासिस्टों की जातिवादी-साम्प्रदायिक प्रतिक्रियावादी राजनीति को मज़बूत करने का ही काम किया है।
रिपोर्ट में आगे दिल्ली पुलिस की दंगाइयों के साथ संलिप्तता को प्रमाणों के साथ लिखा गया है। देश की राजधानी दिल्ली में “सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध” दिल्ली पुलिस के रहते हुए तीन दिनों तक मुसलमानों के घर जलाये जाते हैं, उनका क़त्लेआम जारी रहता है! मज़दूरों-छात्रों के प्रदर्शन को कुचलने के लिए सैकड़ो-हज़ारों की संख्या में उतरने वाली पुलिस बल और पैरामिलिट्री की फ़ौज उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हो रहे इस दंगे के समय किन तहख़ानों में जा छुपी थी? क्या इस बर्बरता को रोका नहीं जा सकता था?
शान्ति, सेवा और न्याय के लिए “सक्रिय” दिल्ली पुलिस ने दंगो को रोकने की कोई कोशिश नहीं की, उल्टा दंगाइयों के साथ मिलकर अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत और हिंसा भड़काने का काम किया।
रिपोर्ट के अनुसार “24 फ़रवरी को, पुलिस की दंगाइयों के साथ मिलीभगत के कई उदाहरण सामने आये : चांदबाग़ में प्रदर्शन स्थल पर हमला करने वाली भीड़ के साथ पुलिस को देखा गया था; कर्दमपुरी में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के तम्बू पर आँसू गैस के गोले छोड़ते हुए दिल्ली पुलिस दिखती है; यमुना विहार में एक मुस्लिम युवक की दुकान पर पथराव और तोड़फोड़ करने वाली भीड़ को बढ़ावा देते हुए दिल्ली पुलिस को देखा जाता है। दिल्ली पुलिस की साम्प्रदायिक मानसिकता और स्पष्ट हो जाती है जब फ़ैज़ान और चार अन्य मुस्लिम युवकों पर सार्वजनिक रूप से इन वर्दीधारी गुण्डों द्वारा हमला किया जाता है। 25 फ़रवरी को बृजपुरी के मस्जिद के उपासकों और मुअज्जिन को बर्बरता से पीटने के साक्ष्य और वीडियो फ़ुटेज मौजूद हैं। मगर इन साक्ष्यों और प्रमाणों के बावजूद हत्यारे और दंगाई आज़ाद घूम रहे हैं। कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर, रागिनी तिवारी, प्रवेश वर्मा को भड़काऊ भाषणों के लिए न जाँच-पड़ताल के लिए बुलाया गया न ही कोई कार्रवाई की गयी।”
यह बात बिल्कुल साफ़ है कि दिल्ली पुलिस ने यह सब केन्द्र सरकार और गृह मंत्रालय के आदेश पर न सिर्फ़ होने दिया बल्कि दंगो के लिए माहौल तैयार करने और उसे बढ़ाने का काम भी किया। जहाँ एक तरफ़ दोषियों, हत्यारों को संरक्षण मुहैया कराया गया वहीं दूसरी तरफ़ लॉकडाउन का फ़ायदा उठाते हुए दिल्ली दंगो की जाँच के नाम पर सामाजिक कार्यकर्ताओं, अल्पसंख्यक समुदाय के नौजवानों, शिक्षकों-बुद्धिजीवियों को प्रताड़ित किया गया। झूठे मुक़दमे तैयार किये गये जिसके तहत सभी बेगुनाह सामाजिक कार्यकर्ताओं, मुस्लिम युवकों, प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया गया और उन्हें सलाख़ों के पीछे भेजा गया। ढाई वर्ष से अधिक से ऐसे हज़ारों इन्साफ़पसन्द लोग बिना किसी जुर्म के सज़ा काट रहे हैं। दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज दो एफ़आईआर 59/20 और 49/20 को देखें तो एफ़आईआर नम्बर 59 में शिकायतकर्ता सब-इंस्पेक्टर अरविन्द कुमार ने आरोप लगाया है कि उनके “एक मुख़बिर” ने उन्हें खुलासा किया कि साम्प्रदायिक दंगे कराने की साज़िश जेएनयू के पूर्व छात्र उमर ख़ालिद और उनके दोस्तों ने रची थी मगर उसमें वह आरोपियों के ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत नहीं दे पाते हैं। पुलिस ने चार्जशीट में नामज़द 15 आरोपियों के मोबाइल डेटा और व्हाट्सऐप चैट रिकॉर्ड को आधार बनाकर उन्हें गिरफ़्तार किया मगर अब तक भी दंगों में उनकी भूमिका को साबित नहीं कर पायी है और इसलिए यूएपीए जैसे काले क़ानून का इस्तेमाल कर छात्रों, अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले युवकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को दो साल से अधिक से जेलों में बन्द रखा गया है। यह बात अब सर्वविदित है कि असल दंगाइयों को बचाने के लिए जाँच के नाम पर पुलिस ने फ़र्ज़ी एफ़आईआर तैयार किये, सन्दिग्ध गवाहों के बयान इकट्ठा किये, झूठे सबूत पेश करके नागरिकता क़ानून विरोधी आन्दोलन में शामिल लोगों को फँसाने का काम किया और दंगो को प्रायोजित करने वाले, समाज में नफ़रत फैलाने वाले दंगेबाज़ों को बचाया जिसकी वजह से उनकी नफ़रती मुहिम आज पहले से भी अधिक घृणित रूप में जारी है। यह बात भी बिल्कुल साफ़ है कि न्यायपालिका भी इस मसले में केन्द्र सरकार की कठपुतली का ही काम कर रही है। कोई सबूत न होने के बावजूद भी हर बार अदालतों में सभी आरोपियों की ज़मानत याचिकाओं को ख़ारिज किया जाता रहा है। संक्षेप में कहें तो दिल्ली में हुआ यह दंगा साफ़ तौर पर राज्य द्वारा प्रायोजित था।
बहरहाल, यह अचरज की बात नहीं है जब किसी फ़ासीवादी सरकार ने अपनी नीतियों का विरोध करने वालों को कुचलने के लिए पुलिस, कोर्ट से लेकर तमाम हथकण्डों का इस्तेमाल किया है। हमारे मुल्क में बैठी फ़ासीवादी ताक़तें भी अपने जर्मनी और इतालवी पुरखों से सीखते हुए उनकी ही कार्यपद्धति को लागू कर रही हैं।
दंगों से लेकर सड़कों पर की जाने वाली हिंसा, पुलिस, सेना और मीडिया का फ़ासीवादीकरण, कोर्ट-कचहरी की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हुए आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देना, अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना और सभी तरह के राजनीतिक विरोध को कुचलने का काम भाजपा और संघ परिवार कर रहे हैं। दमन के ज़रिए अपने राजनीतिक विरोधियों को चुप कराने का फ़ासिस्टों का सपना कुछ और नहीं बल्कि शेख़चिल्ली का ही सपना साबित होगा। कहने की ज़रूरत नहीं है कि दमन-उत्पीड़न अपनी नैसर्गिक प्रक्रिया में जनता के प्रतिरोध को जन्म देता ही है।

मज़दूर बिगुल से साभार

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