सुसंस्कृति परिहार
” कबिरा खड़ा बाज़ार में मांगे सबकी खैर ” की तर्ज पर डा० भीमराव अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म की अंध रुढ़ परम्पराओं को समाप्त करने का जो बीड़ा उठाया वह उन्हें एक महान प्रगतिकामी विचारक के रूप में प्रस्तुत करता है ।जातिवादी एवं वर्गवादी विचारों के वे सख़्त खिलाफ थे। निर्विवाद रूप से वे इंसानियत के पैरोकार थे ।यही वजह है उन्होंने देश के सबसे विशद हिंदू धर्म को ललकारा जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें कट्टरपंथी एवं रुढ़िवादी लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने अडिग रहकर सामाजिक संरचना में बदलाव लाने अथक प्रयास किये ।
बाबा साहब महाराष्ट्र की महार अछूत जाति से थे। उनके पिता रामजी महार ब्रिटिश फौज में सूबेदार थे ।रण कौशल में माहिर महार रेजीमेंट से सभी भलीभांति परिचित हैं। कहते हैं महाराष्ट्र का नाम महार रेजिमेंट से जन्मा है ।बाबा यानि भीमराव के घर नित्य सुबह- शाम पूजा- अर्चना होती थी ।पिता से उन्होंने रामायण और महाभारत के गूढ़ार्थ ग्रहण किए । यह सच है, कि बालमन पर लगी गहरी सामाजिक चोट ने उन्हें महान बनाया ।हुआ यूं, कि शाला से घर जाते वक्त उन्हें जोर की प्यास लगी ।उन्होंने रास्ते के कुंये से पानी निकाल कर पी लिया ।यह खबर आग की तरह फैली और फिर एकत्रित भीड़ ने भीम को जी भर पीटा ही नहीं बल्कि छूत -अछूत जैसे शब्द उसके जहन में बो दिये ।वे सोच में डूबते उतरवाते रहे और यह बखूबी समझ गए कि कक्षा में उनके साथी और शिक्षक अलग तरह का व्यवहार क्यों करते हैं? वे तब दर्द पी गए। घर में भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं बताया ।अपमान के इस गहरे दंश ने उन्हें गहन अध्ययन की ओर प्रेरित किया ,धीरे धीरे वे सामाजिक विसंगतियों की क्रूरता के विरुद्ध कटिबद्ध हो गए।
उन्होंने लिखा है, कि मन बार-बार सोचता -“लोग कुत्ते, बिल्ली आदि को छू लेते हैं पर आदमी को छूने से वह कैसे भ्रष्ट हो जाता है ? आखिर किसने बनाया ये विधान और क्यों ?”आदि आदि ।उन्होंने आगे चलकर कबीर ,ज्योतिबाफुले एवं तथागत से प्रेरणाएं लीं ।
उन्होंने स्त्री-पुरूष को शास्त्रों की गुलामी से मुक्ति के लिए, मनुस्मृति में उल्लेखित धर्म व्यवस्थाओं को जिम्मेदार ठहराया। हिन्दू होते हुए बाबा ने अंध आस्था नहीं स्वीकार्य की । फलतः उन्हें हिन्दू विरोधी एवं भारतीय संस्कृति का विध्वंसक करार घोषित कर दिया ।गांधी द्वारा दिया “हरिजन” शब्द को उन्होंने नकार दिया वे इसे अनुचित मानते रहे ।अछूत शब्द को हिन्दी शब्दकोश से अलग करने के पक्षधर थे ।इस वास्ते उन्होंने चोबदार सत्याग्रह, काला मंदिर सत्याग्रह आदि आन्दोलनों का सहारा लिया लेकिन विवेक की दीपशिखा जलाने वाला ये बाबा धर्म विरोधी के साथ साथ पागल के रूप में प्रचारित किया जाने लगा ।जबकि अध्ययन में अभिरुचि ,प्रतिभा और परिश्रम के बल आपने लंदन, कोलंबिया, जर्मन ,जापान के विश्वविद्यालयों में अध्ययन किया और 32 सर्वोच्च डिग्रियां प्राप्त की। वे बम्बई लॉ कालेज में प्राचार्य , हिन्दुस्तान के वाइस रॉय की कार्यकारिणी सदस्य ,भारतीय संविधान के शिल्पी,स्वाधीन भारत के विधि मंत्री एवं सामाजिक क्रांति के अग्रदूत होने के साथ-साथ बौद्ध धर्म के पुनरुद्धारक बने और जीवनकाल में विसंगतियों से जूझते रहे लेकिन कोई सुधार परिलक्षित होता न देखकर उन्होंने भारी मन से कहा था–“दुर्भाग्य से मैं हिन्दू समाज में पैदा हुआ यह मेरे वश की बात नहीं थी लेकिन समाज में बने रहने से इंकार करना मेरे वश की बात है”और उन्होंने नासिक जिले के यर्वदा सम्मेलन में 13 अक्टूबर 1935 को लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। हिन्दु पोंगा-पंथियों से उन्होंने मात जरूर खाई। अपना धर्म बदल लिया लेकिन सामाजिक क्रांति लाने, नव समाज का निर्माण करने, समता ,स्वतंत्रता, बंधुत्व एवं न्याय पर आधारित व्यवस्था हेतु जो चेतना उन्होंने जगाई वह यगयुगों तक समाज को झकझोरती रहेगी ।
दलित चेतना जो कमोवेश आज नज़र आ रही है वह उन्हीं की देन है। अम्बेडकर जी ने कहा था -“पढ़ो और मुक्त हो जाओ ” लेकिन दलित नेताओं के बीच आज उच्च और निम्न वर्ग पैदा हो गया है समाज में जिस नवचेतना के लिए बाबा प्रतिबद्ध रहे उसका संवाहक नेतृत्व उभरना जरूरी है वरना दलित उत्थान या यूं कहें सामाजिक बराबरी की अम्बेडकर जी की अवधारणा का अवसान करीब है ।उनका जुझारू योगदान व्यर्थ न हो इसकी पहल प्रगतिशील लोगों को करना होगी।दूसरी बात उन्हें दलित चिंतक, संविधान निर्माता आदि बताकर उनका कद छोटा करने की कवायद हो रही है वे सामाजिक जागृति के पुरोधा के साथ साथ क्रांतिवीर थे, इस स्वरूप को सामने लाने की महती ज़रूरत है।
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