संघीय ढांचा अक्सर सुनते है पर दबे पांव आ चुकी इस महामारी पर चुप्पी खतरनाक है।
डा अजय खेमरिया
कोविड महामारी के बाद देश में मानसिक रुग्णता एक गंभीर खतरे के रूप में सामन खड़ी है।मप्र में पिछले एक सप्ताह में सात लोगों ने मानसिक अवसाद के चलते आत्महत्या कर ली सभी ने आत्महत्या से पहले बकायदा वीडियो बनाये और उन्हें साझा किया।देश में कुल 14 प्रतिशत नागरिक किसी न किसी प्रकार की मानसिक रुग्णता से पीड़ित है।यानी हर सातवा भारतीय मानसिक स्वास्थ्य के पैमानों पर खरा नही है।दुर्भाग्य से हमारे जनस्वास्थ्य ढांचे में इस तरफ कोई गंभीरता पिछले 75 बर्षों में दिखाई नही दी है।1982 से राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम और 1996 से जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम लागू है लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि यह कार्यक्रम केवल नाममात्र के है।1987 के मानसिक स्वास्थ्य कानून को बदलकर मौजूदा मोदी सरकार ने 2017 में नया स्वरूप देकर समावेशी बनाने का प्रयास तो किया लेकिन देश के एक दर्जन से अधिक राज्यों में अभी तक इसे अपने यहां लागू ही नही किया है।मोदी सरकार के इस साल के बजट में पहली बार मानसिक आरोग्य के लिए राष्ट्रव्यापी टेली काउंसलिंग समेत अन्य प्रावधानों पर बजट आबंटन देखने को मिले है।कुल स्वास्थ्य बजट का करीब 12 फीसदी मानसिक स्वास्थ्य पर आबंटन इस बर्ष किया गया है।यह एक अच्छी शुरुआत है लेकिन तथ्य यह है कि देश का मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह से बिगड़ा हुआ है।कोविड के अकेलेपन ने आर्थिक रूप से समृद्ध ही नही प्रबुद्धएवं गरीब वर्ग को भी मानसिक रूप से विविधवर्णी विकारों से घेर लिया है।सच्चाई यह है कि अमेरिका और यूरोप में इस बिषय पर दशकों पहले काम शुरू किए जाने के।बाबजूद वहाँ के हालात बहुत खराब बने हुए है।अकेले अमेरिका में फिलहाल मनोचिकित्सकों को दिखाने के लिए तीन महीने की वेटिंग लगी होती है।यह तब है जब वहाँ मनोचिकित्सक की संख्या करीब 70 हजार है जबकि भारत में प्रेक्टिशनर मनोचिकित्सक की संख्या महज 4 हजार ही है।देश मे केवल 47 मानसिक आरोग्यशाला यानी मेंटल हास्पिटल ही है जिनमें से भी 2 या 3 ही मानक सुविधाओं से युक्त है। यानी सवा तीन करोड़ लोगों पर एक मेंटल हॉस्पिटल की सुविधा ही है।2017 मेंटल हैल्थ केयर एक्ट में मैदानी स्तर पर मानसिक आरोग्य के लिए सुव्यवस्थित ढांचा एवं रोगियों की पहचान से लेकर पुनर्वास के प्रावधान है लेकिन अभी इस कानून पर अमल होने के लिए राज्य सरकारें बिल्कुल भी गंभीर नही हैं।
वित्त वर्ष 2022-23 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के लिए 83,000 करोड़ रु का आवंटन किया गया है।कोविड महामारी से पहले के वित्त वर्ष 2019-20 की तुलना मे यह लगभग 33 प्रतिशत की बढोतरी है। यह तो स्वीकार करना होगा कि इस बार के स्वास्थ्य बजट की खास बात यह है कि इसमें मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष फोकस किया गया है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी गुणवत्तापूर्ण सेवाओं के लिए राष्ट्रीय टेली-मेंटल हेल्थ कार्यक्रम के गठन का प्रस्ताव महत्वपूर्ण है।देश के 23 केंद्रों से नागरिकों को टेली-परामर्श सेवाएं उपलब्ध कराने का दावा किया गया है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज़ की देखरेख और विनियमन के साथ आईआईआईटी बेंगलुरु के तकनीकी सहयोग के ज़रिए ये सेवा मुहैया कराई जाएगी। इसके बाबजूद देश के आम आदमी के लिए मानसिक आरोग्य का लक्ष्य अभी बहुत कठिन ही नजर आता है क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य बजट में 12 फीसदी की बढ़ोतरी को ध्यान से देखा जाए तो मूल रूप से ये केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित किए जा रहे दो संस्थानों के लिए ही अधिक है। आवश्यकता तो राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य मिशन में बड़े बदलाब की है जिसे लेकर कोई खास आबंटन नही है और इसे राज्यों के भरोसे छोड़ दिया गया है जो पहले से ही इस मामले में उदासीन बने है।पिछले चार वित्त वर्षों के बजटों में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण से जुड़ी धनराशि का 1 प्रतिशत से भी कम हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आवंटित किया जाता रहा है।जाहिर है देश के सरकारी तंत्र के भरोसे इस समस्या का समाधान आसान नही है।अध्ययनों से पता चला है कि कोविड-19 से ठीक हो चुके हरेक तीन में से एक शख़्स में स्नायु या मानसिक तौर पर किसी न किसी तरह का विकार पाए जाने की आशंका रहती है।
सरकार के टेली काउंसलिंग के दावों के मध्य हमें यह भी ध्यान देना होगा कि राष्ट्रीय परिवार सर्वे के मुताबिक भारत में सिर्फ़ 33 फ़ीसदी महिलाएं ही इंटरनेट का इस्तेमाल करती हैं। जबकि पुरुषों में ये संख्या 57 प्रतिशत है। जब 100 में से सिर्फ़ 55 लोगों के पास ही इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है, तो सवाल खड़ा होता है कि 23 सेंटर्स से शुरू होने वाला टेली परामर्श मानसिक रोगियों के लिए कितना सहज होगा?देश भर में पहले से चल रहा
ज़िला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम का ही एक घटक है।राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 692 ज़िलों में ये कार्यक्रम लागू है।राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत ग़ैर-संक्रामक बीमारियों के लचीले कोष के ज़रिए इसका संचालन किया जाता है।इसके लिए जारी पिछले 6 वर्षों में 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा रकम बग़ैर इस्तेमाल के वापिस कर दी गई।80 फीसदी जिलों में क्लिनिकल साइकोलॉजी से जुड़े एक्सपर्ट उपलब्ध नही है।विशेषज्ञ मनो चिकित्सक की सेवाओं के लिए नागरिकों केवल मेट्रो शहरों या महानगर का रुख ही करना पड़ रहा है।औसतन 2000 रुपए ऐसे परिवारों पर आर्थिक बोझ केवल परिवहन के रूप में पड़ रहा है।विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह अनुमान लगाया है कि मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकारों के कारण भारत को 1.03 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का आर्थिक नुकसान हो रहा है। सरकार ने राज्यसभा में यह स्वीकार किया है कि मानसिक स्वास्थ्य विकार कम आय, कम शिक्षा, और कम रोजगार वाले परिवारों को ज्यादा प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं। इन कमजोर समूहों को उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के कारण वित्तीय सीमाओं का सामना करना पड़ता है, और उपचार के लिए संसाधनों की सीमित उपलब्धता इस स्थिति को और बदतर बना देती है। इनके इलाज में आनेवाला अधिकांश व्यय प्रत्यक्ष व्यय होता है और इस संबंध में राज्य सेवाओं और बीमा कवरेज में कमी पाई जाती है जिसके परिणामस्वरूप गरीबों और कमजोरों पर आर्थिक दबाव की स्थिति और अधिक बिगड़ जाती है।यानी इस बीमारी का सबसे ज्यादा नुकसान समाज के सबसे गरीब वर्ग को झेलना पड़ रहा है।
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे में जबरदस्त सुधार की आवश्यकता है। क्योंकि इसका स्वास्थ्य व्यवस्था के व्यापक तंत्र से संपर्क टूटा हुआ है। कोरोना महामारी ने इस समस्या को और विकराल बना दिया है। प्राथमिक चिकित्सकों को मानसिक बीमारियों और अवसाद की पहचान करने का प्रशिक्षण हासिल नहीं है। वो मरीज़ों को उन जगहों पर नहीं भेज पाते जहां उन्हें पर्याप्त और बेहतर देखभाल हासिल हो सकती है। प्रशिक्षित स्टाफ़ की ग़ैर-मौजूदगी के चलते ये समस्या और विकट हो गई है।भारत में प्रति एक लाख की आबादी पर महज़ 0.40 मनोचिकित्सक (आम तौर पर ये आंकड़ा 3 होना चाहिए) मौजूद हैं। विकसित देशों में हर एक लाख की आबादी पर 6 से 7 मनोचिकित्सक उपलब्ध होते हैं।विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कई देशों में किए गए सर्वेक्षण से पता चला है कि मानसिक स्वास्थ्य के तक़रीबन 76-85 प्रतिशत गंभीर मामलों का कभी इलाज ही नहीं किया जाता। 2016 में भारत में किए गए मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण का आकलन है कि भारत में स्वास्थ्य संबंधी विकारों से पीड़ित हर 10 में से केवल एक मरीज़ को ही प्रमाण-आधारित इलाज मिल पाता है। मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम, 2017 में सामान्य और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को एकीकृत किए जाने की सिफ़ारिश की गई है। इसमें स्वास्थ्य के मोर्चे पर सरकार द्वारा चलाए जा रहे सभी कार्यक्रमों में प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीय स्तरों पर हर जगह इस तरह के एकीकरण का प्रस्ताव है. इसके लिए सघन प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण की दरकार होगी। दूसरी ओर टेली और डिजिटल स्वास्थ्य पहलों के विस्तार के साथ-साथ देश में इंटरनेट कवरेज को लैंगिक तौर पर न्यायोचित बनाने पर भी समान रूप से ध्यान देना होगा।