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आओ हम सब मिलकर बढ़ती अमानवीयता की होली जलायें 

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मुनेश त्यागी 

     हम लोग अपने बचपन से ही देखते चले आ रहे हैं कि हिंदू समाज में लगभग सभी समुदाय होली मनाते चले आ रहे हैं। इस दिन हमारी जनता का अधिकांश हिस्सा अपनी गरीबी, कटुता, दुख दर्द, अन्याय, शोषण जुल्म, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी की मार को, कुछ समय के लिए भूल कर होली मनाता हैं। इस दृश्य को देखकर ऐसे लगता है कि जैसे होली के रंगों ने सब कुछ को एकाकार कर दिया है, सब के सब जैसे एक हो गए हैं।

     मगर पिछले तीस सालों से हम देख रहे हैं कि हमारे देश में अमीरी गरीबी की खाई बढ़ती चली जा रही है और धन और संपत्ति कुछ ही लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई है। आम जनता और किसानों मजदूरों के बुनियादी हक और अधिकारों पर जबरदस्त हमले हो रहे हैं, उनसे उनकी सारी बुनियादी सुविधाएं जैसे छीनी जा रही हैं। पूरा मजदूर वर्ग और किसान वर्ग आंदोलन करने को मजबूर है। उन्हें उनकी न्यूनतम मजदूरी नहीं मिल रही है, किसानों को उनकी फसलों का वाजिब दाम नहीं मिल रहा है, उनकी फसलों की एमएससी की कोई गारंटी नहीं है। हमारी जनता और किसानों मजदूरों के करोडों बेटे बेटियां बेरोजगारी के अभिशाप से अभिशप्त हैं।

       हमारे देश में पांच करोड़ मुकदमें अदालतों में लंबित है और जनता को सस्ते और सुलभ न्याय मिलने की कोई आशा नहीं है। जातिवाद, धर्मांधता और अंधविश्वासों ने अपना सर उठा रखा है जैसे उन्होंने तर्क, विवेचना, विवेक और लौकिक के साम्राज्य को धराशाई कर दिया है। इन सब समस्याओं को देखकर कभी-कभी तो लगता है कि ऐसे में होली मनाने का क्या औचित्य है? मगर फिर भी लगता है कि चलो अपने दुखों, दर्द-ओ-ग़म और परेशानियों को कुछ देर के लिए भुलाकर, जनता के साथ आत्मसात हुआ जाए और हम भी तरह-तरह के रंगों में रंग जाए, सरोकार हो जाएं। 

     हम चाहते हैं कि हमारी सारी जनता समता, समानता, न्याय, रोजगार, भाईचारे और आपसी हमदर्दी के रंगों से सरोबार हो जाए और फिर हम सब मिल जुलकर होली मनायें। हम सारी जनता के साथ मिलकर समाज में उगाई गरीबी, भुखमरी, शोषण, जुल्म, अन्याय, बेरोजगारी, असमानता, गैरबराबरी, भेदभाव, अमनुष्यता, अमानवीयता, असुंदरता और भंयकर रुप से फैलते जा रहे भ्रष्टाचार की होली जलाएं। सभी देशवासियों को, भाईयों बहनों को, बच्चियों और बच्चों को, बेटियों और बहुओं को, होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं और बधाइयां।

     इस अवसर पर हमारे समाज में उग आई अमानवीयताओं की होली जलाने की इस सुंदर सी कविता ने जन्म ले लिया है। हम इस कविता को आपके सामने पेश कर रहे हैं,,,,,,

हिंसा और शोषण की
अन्याय और भेदभाव की
अपराध, झूठ, फरेब की
छल कपट, मक्कारी की, होली जलाएं।

अत्याचार और भ्रष्टाचार की
जुल्मों सितम, अनाचार की
जातिवाद, संप्रदायवाद की
पूंजीवाद, साम्राज्यवाद की, होली जलाएं।

महंगाई और बेरोजगारी की
गरीबी और रिश्वतखोरी की
आपसी कलह, टांग खिंचाई की
अहम घमंड, आपसी दुश्मनी की, होली जलाएं।

ग्रुपबाजी और जातिद्वेष की
धर्मांधता और अंधविश्वास की
गैरबराबरी और अहंकार की
बढ़ती आर्थिक असमानता की, होली जलाएं।

छोटी सोच और छोटी बुद्धि की
नफरत और जोर जुल्म की
वधू दहन और बालिका विवाह की
दहेज प्रथा और भ्रुणहत्या की, होली जलाएं।

झूठे नारों और झूठे वादों की
किसानों मजदूरों की दुर्दशा की
मानसिक बीमारी बने भ्रष्टाचार की
सत्ता हड़प और झूठे नारों की, होली जलाएं।

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