अग्नि आलोक
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*मुक्ति_और_मोक्ष*

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          डॉ. विकास मानव 

     चेतना का अस्तित्व मन के पार है। मनसातीत और भावातीत हो जाने पर ही चेतना की अनुभूति होती है। जिन्हें विज्ञानमय जगत् और विज्ञानमय शरीर कहते हैं, वे चेतना-राज्य और चेतना-शरीर के ही पर्याय हैं। भौतिक जगत् में आत्मा स्थूल शरीर में रहती है, इसी प्रकार सूक्ष्मलोक में सूक्ष्मशरीर में और मनोमय शरीर से मनोमय लोक में रहती है। विज्ञानमय जगत् में केवल चेतना का साम्राज्य है, इसलिए आत्मा इस जगत् में चेतन शरीर (विज्ञानमय शरीर) में रहती है। 

      इस जगत् में न है प्राण का अस्तित्व और न तो है मन का अस्तित्व ही। इसीलिये यहाँ न श्वास है, न भाव है, न विचार है, न रूप है और न तो है कोई रंग ही। लेकिन फिर भी सब कुछ है। तात्पर्य यह कि भाव में अभाव और अभाव में भाव है।कितना शान्त, कितना निर्विकार, कितना मोहक, कितना सुन्दर, कितना आकर्षक था और कितनी अद्भुत छटा से भरा हुआ था वह वैश्वानर लोक कि शब्दों में नहीं बतला सकता मैं !–चारों ओर वातावरण में शुभ्र् प्रकाश बिखरा हुआ था और बिखरी हुई थी घोर निस्तब्धता। 

     दिव्य कैवल्य ने जैसा कि कहा था–भाव में अभाव और अभाव में भाव–उसीकी अनुभूति कर रहा था मैं उस समय और उस स्थिति में।

सर्व प्रथम यह बतला देना आवश्यक है कि वैश्वानर जगत् तो है ही उच्चकोटि की दिव्य आत्माओं का निवास स्थान, लेकिन विज्ञानमय जगत् एक दृष्टि से अपनी विशिष्टता रखता है और वह विशिष्टता यह कि भूलोक की योग-आत्माएं तथा दिव्य-आत्माएँ और साथ ही पुण्यात्माएं तो अपना यहाँ कालक्षेम करती ही हैं, इसके अतिरिक्त अन्य लोकों की उच्च आत्माएं भी वहां आती हैं और निवास करती हैं इसलिए कि विज्ञानमय जगत् का सम्पर्क विश्व ब्रह्माण्ड के अंतर्गत जितने लोक-लोकान्तर और ग्रह-नक्षत्र हैं, उन सबसे है।

       जिन उच्च लोकों की आत्माओं को भौतिक जगत् में अवतरित होना होता है, वे सर्व प्रथम विज्ञानमय जगत् में आती हैं। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि चेतना के कई स्तर हैं। सभी लोकों की चेतना समान नहीं, भिन्न-भिन्न स्तर की है। स्थूल शरीर से लेकर आनंदमय शरीर तक चेतना का स्तर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतर से सूक्ष्मतम होता जाता है। 

     चेतना सदैव शरीर की सीमा में रहती है, भले ही पांचों शरीरों में कोई भी शरीर क्यों न हो। आनंदमय शरीर के बाद है–निर्वाण शरीर। इस शरीर में चेतना का भी अस्तित्व नहीं है। यदि अस्तित्व है तो केवल आत्मा का। इसीलिये इसे योग की भाषा में आत्मशरीर कहते हैं। इसके बाद किसी भी प्रकार का शरीर नहीं है। शरीर का अभाव है।

       निर्वाण शरीर में निवास करने वाली आत्मा को दिव्यात्मा कहते हैं। निर्वाण शरीर में रहने वाली आत्मा पिछले किसी भी शरीर को स्वीकार नहीं करती। निर्वाण शरीर का यथासमय त्याग होने पर संपूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के सभी प्रकार के जागतिक और शारीरिक बंधनों से मुक्त हो जाती है वह हमेशा-हमेशा के लिए और इसीलिए उसे ‘मुक्तात्मा’ कहते हैं। 

     फिर भी विश्व ब्रह्माण्ड में कहीं न कहीं उसका अस्तित्व बना रहता है।

यदि किसी वस्तु का अस्तित्व है तो उस अस्तित्व को आधार भी चाहिए, क्योंकि बिना आधार के अस्तित्व रहता ही नहीं, भले ही वह आधार कोई भी हो। इस दृष्टि से मुक्तात्मा के अस्तित्व का आधार होता है– संपूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड। मुक्तावस्था में आत्मा आधार रूप में जिस काया में रहती है, उसे ही ‘ब्रह्माण्ड काया’ (cosmic body) कहते हैं। 

      यदि काया है तो उसका क्षीण होना भी अनिवार्य है। तो एक समय ऐसा भी आता है जब मुक्तात्मा से ब्रह्माण्ड काया भी छूट जाती है। इतना ही नहीं इस समस्त विश्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व शून्य में समा जाता है। वही शून्य परम ब्रह्म की निराकार अवस्था है। इसी अवस्था को ‘परम निर्वाण’, ‘परम मोक्ष’ की अवस्था कहते हैं। इसी अवस्था में आत्मा का अस्तित्व सदैव के लिए समाप्त हो जाता है। फिर कुछ भी शेष नहीं रहता।

        विज्ञानमय जगत् में चार प्रकार के लोग अन्य लोक-लोकान्तरों की आत्मा को किसी कार्यविशेष् के लिए, ईश्वर् से प्रेरित होकर भौतिक जगत् में आना होता है  तो वह आत्मा सर्वप्रथम विज्ञानमय जगत् में वहाँ के स्तर की चेतना के अनुसार विज्ञानमय शरीर ग्रहण करती है और उसके बाद क्रमशः मनोमय शरीर और सूक्ष्मशरीर धारण करती है। 

        फिर अन्त में सुयोग्य माता-पिता द्वारा जन्म लेती है स्थूल शरीर में। किसी भी लोक की, किसी भी प्रकार की आत्मा क्यों न हो, उसे स्थूल शरीर तभी उपलब्ध् होगा जब उसके पास भौतिक स्तर की चेतना होगी, मन होगा और होगा प्राण और यही कारण है कि इन तीनों को प्राप्त करने के लिए आत्मा को विज्ञानमय शरीर, मनोमय शरीर और प्राणमय शरीर यानि सूक्ष्मशरीर क्रमशः स्वीकार करना पड़ता है और वह फिर जन्म लेती है मानव शरीर में। 

      उस अवस्था में प्रकृति के नियामानुसार वे सभी शरीर बीज रूप में जिन्हें ‘कोश’ कहते हैं, स्थूल शरीर में विद्यमान रहते हैं। लेकिन स्थूल शरीर त्यागने के बाद वह आत्मा सीधे अपने निज लोक को चली जाती है। उस अवस्था में उनके लोक का शरीर रहता है वाहक रूप में। जितने भी लोक हैं, उन सभीके अपने-अपने शरीर होते हैं जिनका निर्माण उन्हीं लोकों के तत्वों से हुआ रहता है। 

       सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि ऐसी आत्मायें अपने निज शरीर द्वारा अपने लोक में गमन करती हैं तब उस समय स्थूल शरीर के साथ उसका बीज जल कर भस्म हो जाता है और उसी के साथ भस्म हो जाता है सूक्ष्मशरीर और मनोमय शरीर का बीज भी। 

     शेष रह जाती है केवल विज्ञानमय शरीर की बीज- चेतना जो अपने आप में भौतिक स्तर की होती है और पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की सीमा के भीतर विद्यमान रहती है न जाने कबतक। उसका अस्तित्व कब नष्ट होगा–यह बतलाया नहीं जा सकता और यह भी बतलाया नहीं जा सकता कि इस प्रकार की और इस स्तर की कितनी चेतनाएं भटक रही होंगी पृथ्वी के वायुमण्डल में।

       योग का एक परम लक्ष्य है–चेतना का विस्तार करना। जिस योगी की चेतना का विस्तार हुआ रहता है, उसे जिस लोक से संपर्क स्थापित करने की आवश्यकता पड़ती है, उसी अभौतिक स्तर की भटकती हुई चेतना से अपनी चेतना का सम्बन्ध जोड़ते हैं और उस लोक में प्रविष्ट हो जाते हैं जिस लोक का ज्ञान प्राप्त करना होता है उन्हें। 

     योग की अत्यन्त रहस्यमयी क्रिया है यह। विरला ही कोई योगी इस दुर्लभ क्रिया से परिचित होता है।

       उनकी अपनी मण्डली थी और उस मण्डली में अनेक उच्चकोटि के विद्वान् और ज्ञान-विज्ञान मर्मज्ञ थे। वहां उपस्थित सभी लोगों के शरीर पारदर्शी और प्रकाशवान थे। विज्ञानमय शरीर इसी प्रकार का होता है। मेरा शरीर भी वैसा ही था। महात्मा वेदश्री का शरीर सर्वाधिक तेजोमय था। गहरी शान्ति थी उनके दिव्य मुख मण्डल पर। विज्ञानमय जगत् में मुझे चार प्रकार के लोग दिखाई दिये :

   1-पहले वे जो विज्ञानमय जगत् के स्थायी निवासी हैं.

 2–दूसरे वे जो ऊपर के लोकों से आये हुए होते हैं.

 3–तीसरे वे जो अपनी साधना के बल से वहां पहुंचकर निवास कर रहे हैं.

 4–चौथे वे जो मेरी तरह हैं जिनका स्थूल शरीर तो स्थूल जगत् में साधना रत है और विज्ञानमय शरीर के माध्यम से और विज्ञानमय जगत् के महात्माओं की मण्डली के संपर्क में आकर अस्थायी रूप से पहुँचते हैं।

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