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लोहिया भारत में समाजवादी राजनीति के सिद्धान्त, व्यवहार, आंदोलन सब एक साथ थे.

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: विनोद तिवारी

आज़ादी के बाद की भारतीय राजनीति को जिन विचारकों ने गहरे प्रभावित किया उनमें डॉ. राम मनोहर लोहिया का नाम प्रमुखता से आता है. आलोचक-संपादक विनोद तिवारी ने विस्तार से डॉ. लोहिया की वैचारिकी की पड़ताल की है, उनके महत्व पर प्रकाश डाला है और उनकी राजनीतिक विरासत की वर्तमान दशा-दिशा की ओर भी इशारा किया है.

डॉ.राममनोहर लोहिया आधुनिक भारतीय राजनीति के मौलिक चिंतकों में से एक हैं. गाँधी, आंबेडकर, लोहिया यह त्रयी बनती है. लोहिया एक क्रांतिकारी और रचनात्मक विचारों वाले नेता थे. उनकी सोच हमेशा ही अग्रगामी रही, वह प्रतिगामी सोच-विचार वाले नेता नहीं थे. हाँ, यह जरूर है कि उन्होंने बुनियादी सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया. वह भारत में समाजवादी राजनीति के सिद्धान्त, व्यवहार, आंदोलन सब एक साथ थे.

उनका जन्म उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में हुआ था. उस समय अकबरपुर फ़ैज़ाबाद जिले के अंतर्गत आता था. आज वह एक स्वतंत्र जिला है. लोहिया का परिवार मिर्ज़ापुर से आकर अकबरपुर में बस गया था. परिवार में शुरू से ही लोहे का व्यापार होने के नाते लोहिया उपनाम जुड़ गया. ठीक वैसे ही जैसे मोहनदास करमचंद के साथ गाँधी उपनाम. लोहिया के जन्म की तारीख पक्की नहीं है फिर भी 23 मार्च 1910 को उनका जन्म माना जाता है. लोहिया के पिता का नाम हीरालाल और माता का नाम चंद्री था. लोहिया ने खुद 23 मार्च को ही अपना जन्मदिन मान लिया था. शुरू में हो सकता है कि दोस्तों ने कभी उनका जन्मदिन मनाया हो. परंतु, 1931 के बाद लोहिया ने अपना जन्मदिन कभी नहीं मनाया, क्योंकि 23 मार्च को सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी हुई थी. भगत सिंह को फांसी दिए जाने के विरोध में राममनोहर लोहिया ने ‘लीग ऑफ नेशन्स’ की बैठक में पहुँचकर दर्शक दीर्घा से अपना खुला विरोध प्रकट किया था इसके चलते उन्हें वहाँ से बाहर निकाल दिया गया था.

लोहिया के जन्म के दो-ढाई साल बाद ही उनकी माँ का निधन हो गया. उनका लालन-पालन उनकी दादी के साथ-साथ घर पर आने वाली तथा पास-पड़ोस की कई स्त्रियों के साथ हुआ. जिनमें, जमादारिन, सुनारिन, नाइन, चूड़ीहारिन जैसी कई स्त्रियाँ शामिल थीं. बचपन के इस परिवेश ने आगे चलकर लोहिया को जात-पात की भावना से दूर रखा.

लोहिया की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अकबरपुर के टंडन पाठशाला और विश्वनाथ विद्यालय में हुई. कारोबार के सिलसिले में जब पिता हीरालाल कुछ समय के लिए बंबई में रहे तो लोहिया भी साथ में रहे और वहाँ के प्रसिद्ध मारवाड़ी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की. यहीं से उन्होंने 1925 में मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की. आगे की पढ़ाई के लिए वे ‘सेंट्रल हिंदू ब्वायज स्कूल’ (बी.एच.यू.), वाराणसी में आ गए. यहीं से उन्होंने 1927 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की. गोष्ठियों, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में उनकी विशेष रुचि थी. पिता के कलकत्ता जाकर बस जाने से उनकी स्नातक की पढ़ाई कलकत्ता के विद्यासागर महाविद्यालय से हुई. यहीं, कलकत्ता में रहते हुए 16 वर्ष की उम्र में उन्हें गुवाहाटी कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने का मौका मिला. यहाँ पर पंजाब के कांग्रेस मण्डल ने उन्हें कांग्रेस की सदस्यता देकर अपना प्रतिनिधि बनाया. इस तरह से कांग्रेस में उनका प्रवेश हुआ. पिता कांग्रेसी थे ही.

1929 में बी.ए. की परीक्षा पास कर लेने के पश्चात् पिता जी की इच्छा-अनुसार आगे के अध्ययन के लिए 19 वर्ष की अवस्था में इंग्लैंड चले गए. पर इंग्लैंड में बहुत दिनों तक रह नहीं सके. ऐसा कहा जाता है कि उनका मन गुलाम बनाने वाले देश की किसी संस्था में शिक्षा लेने की गवाही नहीं दे रहा था. मस्तराम कपूर ने लिखा है–

“इस दुविधा से उन्हें एक अंग्रेज़ विद्वान ने ही मुक्ति दिलाई. एक लाइब्रेरी में उनसे मुलाक़ात हुई तो उन्होंने मशविरा दिया कि कुछ नया सीखने-पढ़ने का इरादा हो तो बर्लिन जाओ, वहाँ तुम्हें ताज़ा और विचारोत्तेजक वातवरण मिलेगा. वे इंग्लैंड से जर्मनी चले गए.” (राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. : मस्तराम कपूर – खंड – 1).

वहाँ हम्बोल्ट विश्वविद्यालय (पूर्व में फ़्रेडरिक विलियम विश्वविद्यालय के नाम से मशहूर) में अर्थशास्त्र में पी-एच. डी. के लिए दाखिला लिया. प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन और समाजवादी चिंतक, अर्थशास्त्री और दार्शनिक ई. एम. शूमाखर इसी विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे. लोहिया ने उस समय के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. वर्नर जोम्बार्ट (Prof. Werner Sombart) के निर्देशन में ‘भारत में नमक कर कानून’ (Salt taxation in India) विषय पर शोध-कार्य किया. यह शोध-कार्य महात्मा गांधी के नमक-सत्याग्रह और उनके सामाजिक-आर्थिक दर्शन को केंद्र में रख कर किया गया है. जर्मनी विश्वविद्यालयी शिक्षा-व्यवस्था और नियम के अनुसार शोध-प्रबंध मूल्यांकन के लिए बाहर नहीं जाता था बल्कि निर्देशक के अलावा विश्वविद्यालय के ही दूसरे अनुशासनों के तीन प्रोफेसर नियुक्त किए जाते थे. लोहिया के शोध-प्रबंध के लिए निर्देशक के अलावा तीन परीक्षक थे- ई. एम. शूमाखर, इतिहासज्ञ प्रो. जान्कीन और सिगमंड फ्रायड के शिष्य मनोविज्ञान के प्रोफेसर देसनार. मौखिकी सम्पन्न होने के बाद इनमें से किसी परीक्षक ने जानना चाहा कि भारत लौटने पर वह क्या करना चाहते है. जवाब में डॉ. लोहिया ने कहा– इतना निश्चित है कि प्राध्यापक नहीं बनूँगा. पर, भारत लौटने पर, पिता के कारोबार बंद हो जाने के बाद आर्थिक तंगी के चलते उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र का अध्यापक बनने के लिए अर्जी दी थी, परंतु उनकी जगह पर किसी और की नियुक्ति की गयी. बी.एच.यू. के लिए तो यह अच्छा नहीं ही हुआ पर देश की राजनीति के लिए यह बहुत अच्छा हुआ.

सन् 1933 में जर्मनी से वापस लौटने के बाद राजनीतिक सक्रियता में लोहिया को बहुत वक्त नहीं लगा. उनके पिता हीरालाल अबतक पूरावक्ती कांग्रेसी कार्यकर्ता हो चुके थे. गांधी जी की वजह से लोहिया का कांग्रेस प्रेम पहले से ही था. परंतु कांग्रेस में पहले विश्वयुद्ध के बाद से ही समाजवादी रुझानों वाले नेताओं की एक बड़ी संख्या दिखने लगी थी. 1929 की आर्थिक मंदी के कारण पूँजीवादी देशों की दुर्गति तथा इन देशों में फासीवादी ताकतों के उभार और दूसरी ओर सोवियत संघ की आर्थिक संकट से मुक्ति तथा उसकी सफलता जैसे कई एक कारणों के चलते भारत में भी समाजवाद का ज़ोर बढ़ने लगा.

कांग्रेस के अंदर समाजवादी नेताओं में आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, डॉ. सम्पूर्णानन्द, ए. वी. मेनन, मीनू मसानी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, यूसुफ मेहर अली, अच्युत पटवर्धन और अशोक मेहता, मुंशी अहमद्दीन, फरीदुल हक अंसारी, रामवृक्ष बेनेपुरी जैसे नेताओं के नाम उल्लेखनीय हैं. कांग्रेस के अंदर इनको जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोष का समर्थन हासिल था. परंतु ये दोनों नेता कभी ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ के सदस्य नहीं बने. कांग्रेस में अपनी स्थिति और मजबूत बनाने के उद्देश्य से 21 मई 1934 को आचार्य नरेन्द्रदेव की अध्यक्षता में पटना में कांग्रेस के अंदर समाजवादी रुझानों वाले नेताओं का एक सम्मेलन हुआ जिसमें ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ का जन्म हुआ. इस सम्मेलन में ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ की नीति, कार्यक्रम और संविधान बनाने के लिए जो समिति गठित की गयी थी उसमें लोहिया को भी शामिल किया गया. माना जाता है कि लोहिया द्वारा ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ के लिए बनाए गए संविधान के आधार पर ही आगे, थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ, समाजवादी आंदोलन और राजनीति चलती रही.

‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ की स्थापना के बाद उसके बनाए कार्यक्रमों और नीतियों में से एक था ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ नमक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन. इस पत्र के सम्पादन की ज़िम्मेदारी लोहिया को दी गयी और तय हुआ कि इसका प्रकाशन कलकत्ता से होगा. राजनीतिक  पत्रकारिता लोहिया का प्रिय काम था. आगे चलकर ‘जन’ ‘चौखम्भा’ और ‘मैनकाइंड’ जैसे पत्रों के द्वारा उन्होंने राजनीतिक पत्रकारिता को एक तेवर और दिशा प्रदान की.

‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ पत्र में उस समय की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय नीतियों और कार्यक्रमों की कभी-कभी बहुत तीखे स्वरों में आलोचना होती थी. गांधी जी के ग्राम सुधार कार्यक्रम पर डॉ. लोहिया ने एक तीखी टिप्पणी लिखी और उस पर गांधी जी की प्रतिक्रिया जाननी चाही. गाँधी ने लिखा:

“चूंकि आपमें विरोधियों की मान्यताओं को समझने की सहिष्णुता नहीं है, मेरे उत्तर की इच्छा न रखें.”

रूस में जब स्टालिन ने अपने सहयोगियों पर झूठे मुकदमें चलाये तो लोहिया ने स्टालिन का विरोध करते हुए ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ में एक लंबा लेख लिखा. इस लेख में स्टालिनशाही और साम्यवाद के अंतर्विरोधों की ऐसी आलोचना थी कि कम्युनिस्ट लोग ही नहीं सोशलिस्ट धड़े के कुछ लोग भी उस लोहिया से नाराज हुए. लेकिन बाद में जब रूस में सत्ता-परिवर्तन हुआ और ख्रुश्चेव के नेतृत्व में बनने वाली नई सरकार ने स्टालिनशाही की बुराइयों का खुलासा करना शुरू किया तो लोहिया का उक्त लेख संदर्भ के रूप में याद किया गया.

लोहिया अपनी बेबाकी, निडर स्वभाव और निष्कवच आचरण के लिए जाने जाते हैं. इस संबंध में उनके साथी ही नहीं बल्कि उनके विरोधी भी उनके कायल थे. उनके इन गुणों के चलते जवाहरलाल नेहरू उन्हें बहुत पसंद करते थे. जब सन् 1936 में जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए तो उन्होंने लोहिया के सामने प्रस्ताव रखा और यह आग्रह किया कि वह कांग्रेस इलाहाबाद आकर रहें और कांग्रेस का विदेश-विभाग संभालें. लोहिया ने नेहरू के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया. कलकत्ता से इलाहाबाद आकर आनंद भवन से कांग्रेस के विदेश-विभाग का कम-काज देखने लगे. यहाँ रहते हुए लोहिया ने कांग्रेस की विदेश-नीति संबंधी कई रपटें और दस्तावेज़ तैयार किए. लोहिया की देखरेख में एक साप्ताहिक बुलेटिन भी प्रकाशित होने लगा.

“वास्तव में स्वाधीनता के बाद कांग्रेस ने जो अपनी विदेश-नीति बनाई, उसका श्रेय डॉ. लोहिया को जाता है. गुटनिरपेक्षता की नीति का प्रारूप भी उन्हीं के समय में बना था. डॉ. लोहिया ने गुटनिरपेक्षता की नीति की रूपरेखा एक पुस्तिका में रखी और इस पुस्तक की भूमिका स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी.”

(राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. : मस्तराम कपूर – भाग – 1).

पर लोहिया का यहाँ होना बहुत सारे कांग्रेसी लोगों को पसंद नहीं था. कांग्रेस ने निर्णय लिया कि अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का कोई व्यक्ति किसी अधिकार वाले पद पर नहीं रह सकता, तो लोहिया ने अपना इस्तीफा सौंप दिया और आनंद भवन को अलविदा कह कर वहाँ से निकल पड़े.

इस बीच कांग्रेस के अंदर और खुद कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के भीतर कुछ बातों को लेकर तीखे मतभेद देखने को मिले. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में साम्यवादी रुझान वाले नेताओं, ख़ासकर जयप्रकाश नारायण द्वारा कम्युनिस्टों को अधिक महत्व देना और सोशलिस्ट पार्टी को उनके द्वारा तोड़ने की कोशिशों का खुलासा. दरअसल, 1935 के बाद से जब हिटलर की शक्ति में धीरे-धीरे वृद्धि होने लगी तो रूस ने अपनी विदेश-नीति में परिवर्तन करना जरूरी समझा. रूस की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी सातवीं कांग्रेस में अंतरराष्ट्रीय नीति में परिवर्तन करते हुए यह सुझाव दिया कि साम्राज्यवादी ताकतों के साथ-साथ फासीवादी ताकतों से भी अब एकजुट होकर लड़ने का वक्त आ गया है. भारत में भी कम्युनिस्ट नेताओं ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ संयुक्त मोर्चा के रूप में कांग्रेस में कार्य करना शुरू किया. परंतु, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को यह लगने लगा कि वे लोग पार्टी में तोड़-फोड़ कर उसे खत्म करना चाहते हैं. लोहिया ने उनकी उस मंशा से पार्टी के महासचिव जयप्रकाश नारायण को आगाह भी किया. परंतु, जयप्रकाश नारायण ने इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया और कम्युनिस्ट नेताओं को कई महत्वपूर्ण विभाग दिये. इससे नाराज होकर लोहिया, अच्युत पटवर्धन,, मीनू मसानी और अशोक मेहता ने पार्टी की कार्यकारिणी से इस्तीफ़ा दे दिया. परंतु, 1938 में लाहौर अधिवेशन के समय जब कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने स्वतंत्र उम्मीदवार खड़े कर पार्टी पर अधिकार करने का प्रयत्न किया तो जयप्रकाश नारायण को झटका लगा और उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के संयुक्त-मोर्चा को तोड़ दिया. यहाँ पर लोहिया सही साबित हुए. पर एक दूसरे प्रसंग में लोहिया का व्यक्तिगत निर्णय उनके अतिशय गांधी प्रेम के चलते गलत साबित हुआ. इससे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी को बंगाल में बहुत नुकसान उठाना पड़ा. उसका जनाधार वहाँ से समाप्त हो गया.

सन 1939 में जब सुभाषचंद्र बोष कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए खड़े हुए उस समय विश्व-पटल पर दूसरे विश्वयुद्ध के घने बादल छाने लगे थे. कांग्रेस के अंदर इस संभावित युद्ध में अपनी भूमिका को लेकर एकमत नहीं बन पा रहा था. एक समूह के लोगों का विचार था कि इस युद्ध में कांग्रेस को फासीवादी ताकतों के खिलाफ लोकतान्त्रिक देशों, इंग्लैंड, फ्रांस आदि का साथ देना चाहिए. पर साम्यवादी और समाजवादी रुझान वाले नेताओं का विचार था कि युद्ध की स्थिति में इंग्लैंड पर अपना दबाव बनाते हुए भारत को अपनी आज़ादी का संघर्ष और अधिक तेज़ करना चाहिए. सुभाषचंद्र बोस के साथ  कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सभी नेता इसी पक्ष में थे. स्वयं लोहिया भी इससे सहमत थे. पर जब गांधी ने पट्टाभि सीतारमैया के लिए पूरा ज़ोर लगा दिया तो लोहिया ने तटस्थ होकर एक तरह से गांधी का समर्थन किया. उन्होंने अपना वोट ही नहीं डाला.

साम्यवादी धड़े के साथ-साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं, आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण आदि को भी इस घटना से बहुत ठेस लगी. लेकिन लोहिया ने कभी भी इसके लिए पश्चात्ताप प्रकट नहीं किया. बल्कि उनका मानना था कि “स्वाधीनता आंदोलन के हित में यह ठीक ही हुआ.” (राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. : मस्तराम कपूर – भाग – 1).

पर, दूसरे विश्वयुद्ध के छिड़ जाने पर जब लोहिया ने युद्ध-टैक्स, युद्ध-ऋण और सैनिक भर्ती के नाम पर भारत के लोगों का शोषण होते देखा तो उसका जमकर विरोध शुरू किया और गांधी को पत्र लिख कर अपनी ओर से एक ‘चार सूत्रीय योजना’ रखी और उनसे सत्याग्रह करने का आग्रह किया. गाँधी सत्याग्रह के तैयार नहीं हुए. लोहिया जगह-जगह अपने भाषणों में युद्ध-विरोधी बातों के साथ ब्रिटिश हुकूमत के रवैये का विरोध कर रहे थे. उनके इस विरोध के चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन पर मुकदमा चला. अदालत में लोहिया ने अपना बचाव स्वयं करते हुए जो दलीलें पेश कीं उसके चलते उन्हें रिहा किया गया. उनके पक्ष में अपना निर्णय सुनाते हुए मजिस्ट्रेट ने टिप्पणी करते हुए यह कहा– “अगर आप बैरिस्टर बनते तो बहुत सफल रहते.”

कांग्रेस की नीति लोहिया से भिन्न थी. कांग्रेस का मानना था कि इस समय ब्रिटेन को युद्ध में सहयोग देने के बदले उसे कहा जाये कि वह भारत को आज़ादी प्रदान करें. उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हस्ताक्षर से इस तरह का एक प्रस्ताव विश्व शांति परिषद को भेजा गया. इंग्लैंड ने प्रस्ताव को न तो पूरी तरह स्वीकार किया और न ही अस्वीकार. भविष्य में इस पर विचार किया जाएगा यह कहते हुए भारत को अपने साथ युद्ध में शामिल मान लिया. वायसराय लिनलिथिगो ने गाँधी जी को इस समर्थन के लिए मना लिया. गाँधी ने अपना बचाव करते हुए कहा–

“मैंने अपनी तरफ से पहले कांग्रेस की भूमिका स्पष्ट कर दी और कहा कि सिर्फ मानवता की दृष्टि से मेरी इंग्लैंड और फ्रांस के साथ सहानुभूति है. जो लंदन आज तक अविजित रहा है उसके विनाश की कल्पना मुझे विह्वल कर देती है मेरा हृदय काँप उठता है. ‘वेस्ट मिंस्टर एबे’ (गोएथिक शैली में बना लंदन का एक सुंदर चर्च) के विनाश की संभावना को मैं भावावेश में शब्दों में बाँध नहीं पाया.”
(राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. : मस्तराम कपूर – भाग – 1).

लोहिया को गाँधी के इस कथन से बहुत निराशा हुई कि इस आदमी कि एक चर्च के विनाश की इतनी चिंता है. पर कांग्रेस के साथ-साथ खुद लोहिया आदि के प्रबल दबाव और युद्ध-विरोधी भावनाओं के चलते ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा करते हुए कि युद्ध के बाद भारत को औपनिवेशिक स्वाधीनता (पूर्ण स्वाधीनता नहीं) दी जाएगी. पर कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं हुई और 1935 के कानून के अंतर्गत निर्वाचित अपनी प्रांतीय सरकारों को त्यागपत्र देने का आदेश दिया. इसके चलते ब्रिटिश सरकार के साथ टकराव की स्थिति और गंभीर हो गई. लोहिया के साथ-साथ कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं (गाँधी को छोड़कर) को युद्ध-विरोधी गतिविधियों के लिए 1940 में गिरफ्तार कर लिया गया.

सत्याग्रह आंदोलन के लिए गाँधी ने लोहिया के प्रस्ताव को भले ही उस समय ‘ऊँट किस करवट बैठता है’ के इंतज़ार में न स्वीकार किया हो पर अब युद्ध के नाम पर भारत में अँग्रेजी सत्ता के शोषण-दमन और भेदभाव वाली औपनिवेशिक नीति ने गाँधी को आखिरी लड़ाई के लिए सोचने को मजबूर कर दिया. उन्होंने अँग्रेजी हुकूमत पर दबाव कायम करने के लिए व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया. उधर जापान का तेज़ी से दक्षिण-एशियाई देशों को जीतते हुए आगे बढ़ते हुए भारत की सीमा तक आ पहुँचने से ब्रिटिश सरकार को अब चिंता होने लगी कि कहीं भारत भी उनके हाथों से न निकाल जाये. सभी नेताओं को तुरंत रिहा किया गया और बातचीत के मकसद से ‘क्रिप्स मिशन’ भारत आया. इसमें भी युद्ध समाप्ति के तुरंत बाद भारत को ‘डोमिनियन स्टेट’ का दर्जा देने और भारतीय संघ बनाए जाने का प्रस्ताव प्रमुख था. गाँधी ने कांग्रेस, मुस्लिम लीग और सभी नेताओं की ओर से इस प्रस्ताव को ‘एक दिवालिया हो रहे बैंक का पोस्ट डेटेड चेक’ कह कर नकार दिया. अंततः यह प्रस्ताव रद्द हो गया. अब आर-पार की लड़ाई के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था.

लोहिया ने ‘हरिजन’ में लेख लिखकर गाँधी से अपील की कि उन्हें अब अंतिम लड़ाई के लिए सामूहिक सत्याग्रह शुरू कर देना चाहिए. गाँधी ने भी अंतिम लड़ाई का मन बना लिया था. 8 अगस्त 1942 को बंबई में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की घोषणा हुई. गाँधी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया. पूरा देश उठ खड़ा हुआ. अभी नहीं तो कभी नहीं. ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में लोहिया और कांग्रेस समाजवादी पार्टी के नेताओं का योगदान अत्यंत ही सराहनीय है. जब कांग्रेस, मुस्लिम लीग और अन्य दलों के सभी नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में दाल दिया गया तो कांग्रेस समाजवादी पार्टी के कुछ नेता भूमिगत होकर इस आंदोलन को दिशा दे रहे थे. लोहिया के साथ इस भूमिगत आंदोलन में अच्युत पटवर्द्धन, एस. एम. जोशी, मधु लिमए, अरुणा आसफ अली और कांग्रेस से सुचेता कृपलानी, सादिक़ अली जैसे नेता शामिल थे. बाद में जयप्रकाश नारायण भी इससे जुड़ गए. इस भूमिगत आंदोलन की योजनाओं, वैचारिक तैयारियों, क्रियान्वयन की नीतियों को बनाने का श्रेय लोहिया को दिया जाता है.

पुलिस स्टेशनों, रेलवे, पोस्ट ऑफिस, टेलीफोन कार्यालयों, कचहरियों आदि पर अधिकार करने की योजना लोहिया की ही थी. इस भूमिगत आंदोलन की जो सबसे खास बात थी वह रेडियो-संचार का संचालन. इस रेडियो-संचार के संचालन के प्रमुख कर्ता-धर्ता थे विट्ठल दास खाकर (बाबू भाई) और उषा मेहता. रेडियो प्रसारण के तकनीकी पक्ष की ज़िम्मेदारी बाबू भाई की जन-पहचान वाले एक प्रेस ने ली. रेडियो प्रसारण की औपचारिक घोषणा 3 सितंबर 1942 को 71-78 मीटर बैंड पर किसी अज्ञात स्थान से की गयी. लगभग दो-ढाई महीने चले इस कांग्रेस रेडियो के अधिकांश वक्तव्य लोहिया के लिखे होते थे. इन वक्तव्यों में लोहिया दुनिया के सभी स्वतन्त्रता प्रेमी राष्ट्रों का लगातार आह्वान किया कि वे सब भारत के इस स्वाधीनता संघर्ष को अपना समर्थन दें. इस भूमिगत आंदोलन और रेडियो की जानकारी विस्तार से मधु लिमए ने अपनी पुस्तक ‘अगस्त क्रान्ति का बहुआयामी परिदृश्य’ में दी है.

भारतीय राजनीति में लोहिया अपना सबकुछ छोड़ कर जिस कर्तव्य और उद्देश्य को लेकर सक्रिय हुए थे, आज़ादी के साथ-साथ औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति प्रमुख उद्देश्य था. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान चलाये जा रहे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन से आज़ादी तो मिलती हुई उन्हें दिखाई दे रही थी पर जिस तरह से कांग्रेस और लीग के कुछ बड़े नेता आज़ादी के लक्ष्य में सत्ता प्राप्ति के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहे थे, उससे वह बहुत आहत और दुःखी थे. नेहरू के प्रति उनके अंदर जो सम्मान भाव था, वह लार्ड माउण्टबेटन के प्रस्ताव और नेहरू व सरदार पटेल के रवैये के चलते, मिटने लगा था. ‘लार्ड माउण्टबेटन योजना’ पर विचार करने के लिए जून 1947 में कांग्रेस कार्यकारिणी की एक बैठक दिल्ली में हुई. इस बैठक में विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में लोहिया और जयप्रकाश नारायण भी उपस्थित थे. गांधी और खान अब्दुल गफ्फार खाँ के साथ लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने इस प्रस्ताव के विरोध में मत दिया था. इस बैठक में नेहरू और पटेल का जो व्यवहार था, उससे लोहिया उचित नहीं मानते हैं. बाद में तो इन दोनों नेताओं और मुहम्मद अली जिन्ना के आगे गाँधी ने जैसे समर्पण ही कर दिया. गाँधी से जब समाजवादी दल के कुछ नेता मिले और पूछा कि आपने विभाजन को अपनी सहमति क्यों दे रहे हैं, इस पर गाँधी ने कहा–

“मेरे आज तक के निकटवर्ती लोग मुझे छोड़कर चले गए हैं और अब आप लोगों में से नया नेतृत्व लेकर विभाजन के विरुद्ध संघर्ष खड़ा करने की शक्ति मुझमें नहीं बची है.”

लोहिया ने ‘भारत-विभाजन के गुनहगार’ (लोहिया रचनावली में ‘भारत-विभाजन के अपराधी’ नाम से संकलित) नामक अपनी पुस्तिका में विस्तार से विचार किया है. कहा जाता है कि यह पुस्तक लोहिया ने मौलाना आज़ाद की पुस्तक ‘इंडिया विंस फ़्रीडम’ में विभाजन के कारणों और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किए जाने से आहत होकर, उसके जवाब में लिखा था. लोहिया इस किताब में पेश की गयी बातों और तथ्यों से इतने खफा थे कि उनकी भाषा का यह तेवर, यह मिजाज देखने लायक है :

“विभाजन तक पहुँचने वाली घटनाओं का विश्लेषण करने में श्री आज़ाद ने बालकथाओं की शैली अपनाई है. ऐसा लगता है कि सभी चीजें झट हो जाती हैं और हर घटना के पीछे कुछ असाधारण प्रयोजन है. इस प्रकार हिंदुस्तान के विभाजन को ऐसे बतलाया गया है जैसे वह लार्ड माउण्टबेटन के दिमाग से उपजा फल हो. वे सरदार पटेल को उसे चखने के लिए माना लेते हैं. यह उनकी पहली सफलता है. सरदार पटेल और अपनी पत्नी की मदद से लार्ड माउण्टबेटन श्री नेहरू को भी विभाजन की योजना मानने के लिए मना लेते हैं. यह उनकी दूसरी सफलता है. उनकी तीसरी और चरम सफलता तब होती है जब महात्मा गांधी भी मना लिए जाते हैं. मौलाना ने उस मोहिनी या गुप्त विद्या को प्रकट करने की परवाह नहीं की है जिससे गाँधी जी बदल गए. वे अकेले ही आखिर तक विभाजन के विरोधी रहे. समूचा किस्सा बे-लज्जत झूठ है. इस पुस्तक में लोहिया ने जिन कारणों को प्रमुखता से विश्लेषित किया है उनमें से कुछ कारण अगर रेखांकित करने हों तो वे होंगे– अंग्रेजों का कपट, कांग्रेस नेताओं की थकान और सत्ता का लोभ, हिन्दू-मुस्लिम दंगों की विकट परिस्थिति, जनता में दृढ़ता और सामर्थ्य का अभाव, गाँधी की ढुलमुल नीति, मुस्लिम लीग की कूटनीति, कांग्रेस की अवसरों से लाभ उठाने की असमर्थता और हिन्दू अहंकार. लोहिया ने पुस्तक में स्पष्ट रूप से आरोप लगाते हुए यह लिखा है कि “नेहरू, पटेल और मौलाना आज़ाद ने गाँधी को अँधेरे में रखकर विभाजन की योजना (माउण्टबेटन योजना) स्वीकार कर ली थी….यदि सत्ता पाने की संभावना के समय ये लोग शर्मीली बहू जैसा आचरण भी करते तो देश को इतना अधिक नुकसान न होता….सरदार पटेल अपने राजनीतिक हेतुओं में जितने असंदिग्ध हिन्दू थे, मौलाना आज़ाद उतने ही असंदिग्ध मुस्लिम थे. इन विपरीत दृष्टिकोणों का तथा व्यक्तिगत पद और सत्ता के लिए पतित कलह का मेल हो गया.” (राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा.: मस्तराम कपूर – भाग – 1).

विभाजन की शर्त पर भारत को आज़ादी मिल जाने के बाद कांग्रेस समाजवादी पार्टी के नेताओं को कांग्रेस के अंदर रह कर कार्य करने में अब घुटन महसूस होती थी. पर लोहिया का गाँधी प्रेम बीच में आड़े आ रहा था. गाँधी की हत्या के एक दिन पूर्व 29 जनवरी 1948 को लोहिया गाँधी जी से मिले. इस संबंध में कुछ बातें हुई होंगी. गाँधी ने इतना भर कहते हुए कि- “कांग्रेस और आपकी पार्टी को लेकर कुछ निर्णय अब किए जाने चाहिए”

उन्हें कल आने को कह कर विदा किया. पर वह कल नहीं आया. 30 जनवरी 1948 को गाँधी की हत्या कर दी गयी. गाँधी के जीते जी कांग्रेस से संबंध तोड़ने को लेकर जो एक दुविधा थी वह खत्म हो गयी. मार्च 1948 में नासिक के अधिवेशन में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने कांग्रेस से अपने को अलग करते हुए एक स्वतंत्र पार्टी के रूप में कार्य करने की घोषणा की. आगे चलकर आचार्य जे बी कृपलानी की किसान मज़दूर प्रजा पार्टी का इस दल में विलय हो जाने के बाद इस दल को प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का नाम दिया गया. लेकिन इस दल के गठन के कुछ वर्षों बाद ही कुछ आपसी मतभेदों के चलते सोशलिस्ट पार्टी में विभाजन की प्रकिया शुरु हो गई. जयप्रकाश नारायण क्षुब्ध होकर भूदान आंदोलन में शामिल हो गए. डॉ. लोहिया ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नाम से अलग दल बना लिया और नरेंद्र देव के नेतृत्व में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का अलग अस्तित्व बना रहा. 1952, 57 और 1962 में हुए आम चुनावों में समाजवादी दल संख्या के लिहाज़ से तो ज़्यादा सीटें नहीं जीत सके लेकिन संसद में उन्होंने प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाई.

1963 में हुए संसदीय उप-चुनावों में आचार्य जे. बी. कृपलानी और डॉ. लोहिया के चुनाव जीतने से संसद में विपक्ष की भूमिका और मज़बूत हुई और पहली बार लोक सभा में नेहरू सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास-प्रस्ताव लाया गया. इसी साल कलकत्ता में हुए संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के वार्षिक सम्मेलन में डॉ. लोहिया ने ग़ैर-काँग्रेसवाद की रणनीति पेश करते हुए सभी विपक्षी दलों से कांग्रेस के ख़िलाफ़ एक साझा गठबंधन बनाने का प्रस्ताव पेश किया. उन्होंने कहा “ज़िंदा क़ौमें पाँच साल इंतज़ार नहीं करतीं.”

जो लोहिया कभी नेहरू के प्रशंसकों में से थे वही लोहिया आज़ादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में सरकार और कांग्रेस की नीतियों से इतने ख़फा थे कि उन्होंने यहां तक कह डाला कि- “कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए वे शैतान से भी हाथ मिलाने के लिए तैयार हैं.”

ग़ैर-कांग्रेसवाद की रणनीति के तहत सभी विपक्षी दलों का एक साझा मंच बनाने में लोहिया कामयाब रहे. इसका नतीजा यह हुआ कि 1967 के आम चुनावों न केवल संसद में बड़ी तादाद में विपक्षी सदस्य चुनकर आए बल्कि उत्तर भारत के नौ राज्यों में विपक्षी संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनीं जिनमें समाजवादियों से लेकर वामपंथी दल और भारतीय जनसंघ से लेकर रिपब्लिकन पार्टी जैसे दलित आधार वाले दल भी शामिल हुए. ग़ैर-कांग्रेसी सरकारों के लिए जो न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया गया उसमें समाजवादी विचारधारा और नीतियों-रीतियों का प्रभाव अधिक था. इसी कार्यक्रम में पिछड़ों को 60 प्रतिशत आरक्षण देने, ग़रीब किसानों का लगान माफ़ करने, महिलाओं को आगे लाने और उन्हें ज़्यादा प्रतिनिधित्व देने, मजदूरों के श्रम के बदले दाम बांधने और जाति तोड़ने जैसी बातें सामने आयीं.

ग़ैर-कांग्रेसवाद की रणनीति से समाजवादी दलों को आंशिक सफलता मिली और वे उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे उत्तरी राज्यों में अपना जनाधार बनाने में सफ़ल रहे. 1967 के आम चुनावों में ही डॉ. लोहिया के साथ मधु लिमए और जॉर्ज फ़र्नानडीज़ जैसे तेज़तर्रार समाजवादी नेता लोकसभा में पहुँचे और कांग्रेस के ख़िलाफ़ विपक्षी मुहिम को और अधिक शक्ति प्रदान की. लेकिन अगले वर्ष 1968 के अक्टूबर माह में प्रोस्टेट की बीमारी के चलते दिल्ली के लेडी इरविन अस्पताल (आज का राममनोहर लोहिया अस्पताल) में डाक्टरों और अस्पताल की लापरवाही से लोहिया का निधन हो गया. 57 साल की उम्र में ही लोहिया के निधन के कारण समाजवादी आंदोलन को काफ़ी बड़ा आघात लगा और उस की गति धीमी होती गई.

आगे चलकर नवें दशक से उत्तर प्रदेश और बिहार में जो समाजवादी राजनीति का विकास हुआ उसमें से लोहिया के लोकतान्त्रिक समाजवाद और उनकी नीतियों से किनारा कर लिया गया. समाजवाद के नाम पर जातिवाद, परिवारवाद, सत्तामोह आदि की राजनीति हावी हो गयी. लोहिया जीवन भर भारतीय समाज से ‘जाति’ व्यवस्था के उन्मूलन की वकालत करते रहे. उनकी सोच जाति के मसले पर बिलकुल साफ़ और स्पष्ट थी इसीलिए वे अन्य राजनीतिक दलों या नेताओं के इस दृष्टिकोण का, कि जाति-पाँति के भेद को मिटाना ज़रूरी है, को एक छल मानते हुए स्पष्ट करते हैं कि जाति-पाँति के भेद को मिटाने वाली बात में चालाकी है, असल बात जाति को ही मिटाने की होनी चाहिए–

“जाति-पाँति खराब है, कहते वक्त वे इतना नहीं कहेंगे, वे कहेंगे जाति-पाँति के भेद मिटने चाहिए. यह काफ़ी चालाक जुमला है. एक तो है जाति-पाँति मिटना और एक है जाति-पाँति के भेद मिटना….इस फ़रक को भी आप याद रखना.”
(राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. : मस्तराम कपूर – भाग – 2).

दुर्भाग्य से लोहिया का चिंतन, उनकी राजनीतिक इच्छाएँ, साधनाएं आज भी अधूरी हैं. राममनोहर लोहिया का भारतीय राजनीति, संसदीय-प्रणाली और समाजवादी समाज के निर्माण और विकास के लिए किया गया योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता. संसदीय प्रणाली में ‘प्रतिपक्ष’ की संस्कृति का निर्माण लोहिया की देन है. उनके तीन सपने ‘जाति-तोड़ो’ ‘दाम-बाँधो’ और ‘वर्गसंघर्ष-वर्णसंघर्ष’ आज भी एक अनिवार्य अनिवार्यता की तरह हैं. लोहिया को देश और दुनिया की राजनीति और कूटनीति की जितनी समझ थी, उससे ज्यादा वे भारतीय परंपराओं और भारतीय समाज को जानने समझने वाले नेता थे. लोहिया ने हमेशा इस देश के आम लोगों के हितों की बात की. संसद में ‘तीन आने बनाम पंद्रह आने’ की बात उठाते उन्होंने जिस तरह से आवाम की गरीबी और परेशानियों को लेकर बहस चलायी वह आज भी नजीर है–

“हमारे देश में 60 सैकड़ा कुटुंब 25 रुपए महीना पर गुजारा करते हैं यानी 27 करोड़ आदमी तीन आने रोज के खर्च पर जिंदगी निर्वाह करते हैं. जबकि प्रधानमंत्री के कुत्ते पर तीन रुपया रोज खर्च होता है. जो सरकार में सबसे बड़ा आदमी है, प्रधानमंत्री उस पर पच्चीस-तीस हज़ार रुपये रोज खर्च होते हैं….मेरा प्रधानमंत्री से कोई निजी द्वेष नहीं है. मैं माफ कर देता. लेकिन पचास लाख बड़े लोगों ने उनकी नकल करते हुए आज हिंदुस्तान को बर्बाद कर दिया है.” (राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा.: मस्तराम कपूर – भाग – 1).

लोहिया इसके प्रति सावधान रहते थे कि उनके मुंह से छोटे से छोटे व्यक्ति के लिए भी बेअदबी के शब्द न निकलें. बड़े लोगों तथा सिंहासन पर बैठे या वैभव में अकड़े लोगों के प्रति तो वे अक्सर कठोर शब्दों का इस्तेमाल भी करते थे. किन्तु छोटे आदमी के लिए न वे इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करते थे न किसी को करने देते थे. कहा जाता है कि अपने निजी सेवक शोभन के प्रति उनका व्यवहार छोटे भाई की तरह था. वह गरीब या जरूरतमंद लोगों की हर संभव मदद के लिए सदैव तैयार रहते थे. इस संबंध में उनके बारे में अनेक किस्से प्रचलित हैं. ठंड के दिनों की बात है, फ़र्रूखाबाद की एक सभा में एक बूढ़े मुसलमान के बदन गरम कपड़े न देखकर वे जनेश्वर मिश्र से बोले, ‘अटैची से मेरा स्वेटर ले आओ’. जनेश्वर जी पूरी बाँह का स्वेटर न लाकर आधा बाजू वाला स्वेटर लेकर आए. लोहिया जी ने उन्हें तरेरते हुए कहा,

‘जब किसी को कुछ देना हो तो अपनी सबसे अच्छी चीज ही देनी चाहिए’.

(डॉ. लोहिया की कहानी उनके साथियों की जुबानी– संपादक : श्री हरिश्चंद्र और श्रीमती पद्मिनी).

समाज में महिलाओं को बराबरी देने की बात कही हो, ऐसे में लगता है कि वे भारतीय राजनीति के सबसे दूरदर्शी नेताओं में शामिल थे, लेकिन उनके अंदर एक आग हमेशा धधकती रहती थी. वे लगातार पढ़ते-लिखते रहने वाले एक चिंतन और चेतना सजग राजनेता थे. उन्होंने समाजवाद, पूंजीवाद, साम्यवाद, औद्योगीकरण (नेहरू की औद्योगीकरण की नीति को वह बधिया किया हुआ खस्सी मार्क्सवाद कहते हैं जो किसी काम का नहीं होता), विदेश नीति, राष्ट्रीयता, भाषा, जाति-प्रथा, सामाजिक विकास के लिए पिछड़े लोगों को आरक्षण, कृषि-नीति, किसानों, मजदूरों, छात्रों, आदि क्षेत्रों में अपने मौलिक विचारों और आंदोलनों से रौशनी दी है.

1949 में ‘चीनी क्रांति’ के बाद लोहिया तिब्बत पर चीन की नज़र को लेकर अपनी चिंता से सरकार को आगाह कराते हैं. पर सरकार इस ओर से बेफिक्र रहती है. अंततः तिब्बत चीन के कब्जे में आ जाता है. लोहिया इसे ‘शिशु हत्या’ कहते हैं. लोहिया ने हिमालय के सीमावर्ती राष्ट्रों से भारत की नीति कैसी होनी चाहिए इसके लिए एक ‘हिमालय नीति’ बनाई थी. जो अमल में न लाया जा सका. पाकिस्तान और कश्मीर पर लोहिया के विचार बिल्कुल स्पष्ट हैं. लोहिया कश्मीर-विभाजन के पक्ष में कभी नहीं रहे. इस मुद्दे पर उनका जयप्रकाश नारायण से विरोध था. कश्मीर मुद्दे पर लोहिया श्यामप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय की नीतियों से भी असहमत हैं. इस सिलसिले में उनका ‘राष्ट्रीयता’ शीर्षक लेख जरूर पढ़ा जाना चाहिए. लोहिया मानते हैं कि भारत और पाकिस्तान दो स्वतंत्र और सार्वभौम राष्ट्र हैं पर देश एक ही हैं. उनका कहना था कि “व्यापारिक और सांस्कृतिक स्तर पर किए जाने वाले यातायात करार, महासंघ आदि राजनीतिक स्तर पर किए गए प्रयत्न तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक सात सौ वर्षों से चली आ रही हिंदू-मुस्लिम सहजीवन प्रणाली की परिणति दोनों धर्मानुयायियों की मानसिक और सांस्कृतिक एकरूपता और संवाद में नहीं होती.”

प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के समय 1967 में जब भारतीय संसदीय प्रणाली में ‘संसद की सर्वोच्चता’ को कानून बनाए जाने का प्रस्ताव श्री नाथ पाइ द्वारा सदन के पटल पर रखा गया, वह दिन भारतीय संविधान और संसदीय लोकतन्त्र के लिए सबसे बुरा दिन साबित हुआ. इस बिल का पुरजोर विरोध करते हुए डॉ. राम मनोहर लोहिया ने चेतावनी दी थी,

“अगर इस प्रस्ताव को मंजूर कर इसे कानून में ढाला गया तो इससे देश की वह दुर्गति होगी कि उसकी भरपाई नहीं हो सकेगी.”

क्या लोहिया की यह भविष्यवाणी सच नहीं हुई ?

अपने समकालीन राजनीतिज्ञों में लोहिया इकलौते राजनेता थे जिनकी साहित्यिक रुचि बहुत ही तीक्ष्ण और साफ थी. देश भर के बहुत सारे साहित्यकारों, कलाकारों, पत्रकारों आदि के साथ उनका दोस्ताना रवैया था. उनके साथ बैठकर साहित्य, संस्कृति और कलाओं पर वह विचार-विमर्श किया करते थे. रघुवंश, विजयदेव नारायण साही, कृष्णनाथ, यू. आर. अनंतमूर्ति, मक़बूल फिदा हुसैन, कुलदीप नैयर, जे. स्वामीनाथन आदि नाम लिए जा सकते हैं. यू. आर. अनंतमूर्ति ने उनके बारे में लिखा है–

“लोहिया उस सृजनशील कलाकार की भाँति थे जो समय के हर पल को उस अनंत पल के रूप में देखा करता है जो इतिहास के दायरे के बाहर स्थित रहता है. उन्होंने एक राजनीतिक क्रांतिकारी के रूप में, इतिहास की प्रज्ञा रखने वाले के रूप में यह भी देखा था कि समय गतिशील है, वह बदल सकता है और उसे बदलना ही चाहिए. वे इस संकल्प से निकले थे कि वे अपने दर्शन के अनुरूप, अपनी अनुभूति के अनुरूप ईमानदारी के साथ जीएंगे, इसलिए उन्हें लोकतंत्रवादी और क्रांतिकारी दोनों बनना पड़ा. कभी शरारती बनकर, कभी दुखिया बनकर, कभी गंभीर व्यक्ति बनकर, नाना रूपों में उन्हें पेश होना पड़ा. दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि मूर्त और संदिग्ध कर्तव्यों द्वारा भारतीय जीवन-विधान के परिवर्तन के लिए ही उन्हें सदा अपनी चेतना सजग रखनी पड़ी. इस बीच उन्होंने जीवन तथा उसकी वैविध्यपूर्ण संदिग्धता को कभी भुलाया नहीं.” (किस प्रकार की है यह भारतीयता – यू. आर. अनंतमूर्ति, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली).

लोहिया ने साहित्य और दर्शन की एक अवधारणा ‘सगुण-निर्गुण’ को जिस व्यावहारिक चिंतन के साथ राजनीति के मूर्त-अमूर्त, सिद्धान्त-व्यवहार, आदर्श-वास्तविकता, हवाई-जमीनी कारनामों के संबंध में विवेचित करते हैं वह अद्वितीय है. उन्होंने अपने निबंध ‘सगुण-निर्गुण’ में जिस मौलिकता के साथ राजनीतिक सिद्धांतों, कार्यक्रमों, वादों, चुनावी घोषणापत्रों के निर्गुण अर्थात कहीं न दिखने वाले, कभी न लागू होने वाले आदर्श को विवेचित और आलोचित किया है वैसी व्याख्या, वैसा विवेचन कोई राजनेता न पहले कर सकता था न आज. वह कहते हैं की ‘सिद्धान्त दूरगामी कार्यक्रम होता है पर कार्यक्रम तात्कालिक सिद्धान्त.’

सिद्धान्त और व्यवहार की ऐसी व्याख्या लोहिया ही कर सकते थे. इस निबंध में एक जगह वह लिखते हैं–

‘महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर नहीं, महात्मा गांधी के भूत पर जितना खर्च किया जाता है, उससे सरकारी योजना के असली शक्ल का पता चलता है.’

यह कथन तब की सरकार के लिए भी एक बड़ा आईना था और आज की सरकारों के लिए भी. लोहिया ने राम, शिव, सावित्री आदि पर लिखा. उन्होंने रामायण मेला का आयोजन किया. एक ऐसा मेला जिसमें जो इस सोच और उद्देश्य के तहत आयोजित किया गया था कि भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परंपराओं को एक महाकाव्यात्मक समारोह के अंतर्गत एक साथ लाया और दिखाया जा सके. ‘रामायण–मेला’ को लेकर बाद में धर्मनिरपेक्ष ताकतों द्वारा लोहिया पर आरोप लगाया जाता है कि वे जनसंघ की और प्राकारांतर से सांप्रदायिक शक्तियों को मदद पहुंचा रहे थे.

हमें यह समझना चाहिए कि लोहिया ‘धर्मवादी’ और ‘संप्रदायवादी’ नहीं थे. वह एक नास्तिक व्यक्ति थे. किसी तरह के धर्म और ईश्वर और उसके आडंबर, लोकाचार, अंधविश्वास आदि में उनकी कोई आस्था नहीं थी. उन्होंने रामायण मेला का आयोजन किया न कि राम मेला का. हम जानते हैं कि इस देश में रामायण एक नहीं है ‘रामयाणें’ हैं. लगभग जितनी भाषाएँ उतने रामायण. तीन सौ से ऊपर रामायण उपलब्ध हैं. प्रख्यात चित्रकार मक़बूल फिदा हुसैन को लोहिया ने यह सलाह दी थी कि आपको रामायण और महाभारत की कथाओं को अपनी पेंटिंग का विषय बनाना चाहिए. मक़बूल फिदा हुसैन की रामायण और महाभारत आधारित यादगार चित्र-शृंखलाएँ उसी का नतीजा हैं. फिर भी जो लोग यह मानते हैं कि लोहिया ‘हिंदूवादी’ थे उन्हें उनकी एक पुस्तिका ‘भारत विभाजन के अपराधी’ का यह अंश जरूर देखना पढ़ना चाहिए:

“भारत में जो लोग सार्वजनिक बातचीत से अधिक निजी बातचीत में पाकिस्तान को हथियार की ताकत से बर्बाद करने की धमकी देते हैं, वे या तो पागल हैं या धोखेबाज ज्यादा. इस सदी के अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में ऐसी बात असंभव है. शायद इसी वजह से आमतौर पर पाकिस्तान विरोधी भावना मुसलमान विरोधी में पतित हो जाती है. चूंकि पाकिस्तान पर हमला करना नामुमकिन है, पागल लोग या बदमाश, जब कभी उन्हें मौका मिलता है, मुसलमानों पर हमला करने का फैसला करते हैं. ऐसी हरकतों से देश के विभाजन की दीवार और मजबूत होती है.”

इसी जगह पर लोहिया यह प्रस्तावित करते हैं कि हिंदूओं और मुसलमानों के बीच ज़्यादा एकसानियत से ही इस नफ़रत और दुश्मनी को कम किया जा सकता है. इसके लिए लोहिया सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में एकसानियत कायम किए जाने का सुझाव देते हैं और कहते हैं कि -‘सामाजिक क्षेत्र में पूरी एकसानियत विवाह से संबन्धित होती है. मुझे यकीन है कि जब तक देश में होने वाला सौ में से एक विवाह हिंदू और मुसलमान के बीच न होगा तब तक यह समस्या पूरी तौर पर नहीं सुलझेगी’.

‘लव-जेहाद’ के मिथ्या प्रचार के नाम पर दो क़ौमों के बीच नफ़रत की ऊँची दीवार बनाने वालों के साथ भला लोहिया को कैसे रखा जा सकता है. गोरक्षा और गोवध को लेकर आज फिर से बहस बहुत तेज हो गयी है. लोहिया इस संबंध में क्या विचार रखते हैं उसे देखना चाहिए:

“गोवध अगर बिलकुल बंद हो जाए, गऊओं का क्या होगा. आखिर आज भी हिंदू ही अपनी बेकार गऊओं को बेचते हैं, यह जानते हुए कि वे मारी जाएंगी, चाहे वे उनको खुद न मारें. जैसे-जैसे गाय दूध देना कम करती है वैसे-वैसे उसका भोजन कम होता जात है. चाहे हत्या के मामले में हिंदू संस्कार जो भी हों, लेकिन गाय को कम खिलाने अथवा दुर्व्यवहार में हिंदू संसार में सर्वोपरि हैं….गोवधबंदी आंदोलन को पोंगापंथी अधिकतर अपने हाथों में ले लेते हैं. इसलिए गोवधबंदी आंदोलन के समर्थन में कई और असंगत और अनुचित चीजों का समर्थन हो जाया करता है.”

(राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. मस्तराम कपूर – भाग – 5).

राष्ट्रीयता संबंधी बहस में इसी (राष्ट्रीयता) शीर्षक से लिखे अपने लेख में वह जनसंघियों के चरित्र पर जो टिप्पणी करते हैं वह देखने लायक है–

“भारतीय जनसंघ भी एक पंथ के साथ जुड़ा है लेकिन उसके तौर-तरीके स्वतंत्र पार्टी वालों या कम्युनिस्टों से ज्यादा परिष्कृत हैं. वे चतुरता से राजनीति में सनातनी हिंदूओं के तरीके अपनाते हैं और चरित्र, भाषण, कर्म और नीति को अलग-अलग रख कर किन्तु सबमें एकता बनाए रखकर, किसी एक बात के सहारे जरूरत के अनुसार आगे बढ़ते हैं. चरित्र में वे कुछ अलगाववादी होते हैं, नीति में यथास्थितिवादी और उसके साथ अवसरवादी और कर्म में छुद्र, संकीर्ण और स्वार्थी.”

(राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. मस्तराम कपूर – भाग – 9).

लोहिया की राजनीतिक दृष्टि जितनी पैनी थी, उनका सामाजिक दृष्टिकोण उतना ही स्पष्ट. हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता की बात हो, ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ में सुधार की बात हो या फिर नदियों, तीर्थ-स्थानों, इबादत की जगहों, मकबरों आदि की सफ़ाई का मुद्दा हो, जाति-प्रथा और स्त्रियों की दशा और अधिकार का मामला हो, आरक्षण का मुद्दा हो, इन सब मुद्दों पर लोहिया ने बहुत ही स्पष्ट योजना के साथ अपनी बात रखी है. लोहिया-“मनुष्य को उसके अतीत से काटकर देखने के हिमायती थे. मनुष्य अपने अतीत की निर्मिति है, यह विचार उनके लिए असह्य रहा होगा क्योंकि इसी विचार से जाति-व्यवस्था, रंग-भेद और लिंगभेद की व्यवस्थाएं पैदा हुईं, जिन्हें लोहिया बेहद नफरत करते थे. अतीत से मिले गुणों अथवा अवगुणों के आधार पर किसी के व्यक्तित्व का आकलन करना जातिवाद, नस्लवाद और लिंगवाद को खाद-पानी देने के समान है. इसलिए लोहिया व्यक्ति को उसके कामों और इरादों से जानने-समझने के पक्ष में थे. (राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. मस्तराम कपूर – भाग – 1).

लोहिया हिंदुस्तान की दुर्गति का सबसे बड़ा कारण वर्ग, वर्ण जाति, योनि, भाषा जैसे अनेक फिरकों में बंटा होना मानते हैं. ‘जाति’ और ‘योनि’ (जेंडर) के विभेदकारी संरचना को तो वह सबसे बड़ी सामाजिक बीमारी मानते हैं. ‘जाति-तोड़ो’ उनकी राजनीति का एक प्रमुख एजेंडा था. वह अपने एक भाषण जो रचनावली में ‘जाति’ शीर्षक से छपा है, में सभी राजनीतिक दलों को जाति के मुद्दे पर आड़े हाथों लेते हुए यह कहते हैं कि जीभ से तो सभी कहते हैं कि जात-पाँत टूटनी चाहिए, लेकिन दरअसल जात-पाँत तोड़ने का काम कोई नहीं करता.

भारत में जाति-प्रथा को लेकर लोहिया की दृष्टि एकदम स्पष्ट थी. वह जातिगत भेदभाव को नहीं बल्कि जाति-व्यवस्था को ही समाप्त करना चाहते थे. लोहिया जब पिछड़ा वर्ग को साठ प्रतिशत आरक्षण देने की बात उठाते हैं तो उसमें औरत, शूद्र, हरिजन, आदिवासी, मुसलमान, ईसाई और अन्य अल्पसंख्यक धर्मावलम्बियों के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को शामिल किए जाने की बात करते हैं. लोहिया की नज़र में इस देश की सामाजिक संरचना में एक औरत कई स्तरों पर सबसे अधिक मजलूम होती है. योनि (जेंडर) भेद के आधार पर परिवार से लेकर समाज तक एक औरत का जितना अधिक दलन और शोषण होता है उतना किसी व्यक्ति का नहीं. लोहिया समाज में औरतों की गैर-बराबरी के सख़्त खिलाफ थे. स्त्रियों के प्रति लोहिया के मन में समानता और सम्मान का बहुत गहरा भाव था. वे किसी भी स्त्री को असुंदर नहीं मानते थे. सामाजिक व राजनीतिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी और महत्व को वह बराबर उठाते रहे. अपने एक निबंध ‘जाति और योनि के दो कटघरे’ में वह लिखते हैं:

“जो लोग यह सोचते हैं कि आधुनिक अर्थतंत्र के द्वारा गरीबी मिटाने के साथ ही साथ ये कटघरे अपने आप ही खत्म हो जाएंगे, बड़ी भारी भूल करते हैं. गरीबी और ये कटघरे एक दूसरे के कीटाणुओं पर पनपते हैं.”

योनि, यौन-शुचिता, विवाह, विवाह की सामाजिक-नैतिक मर्यादाएँ आदि को लेकर एक स्त्री के प्रति ‘पितृसत्तात्मक’ समाज की जो संरचना है लोहिया उसकी जबरदस्त आलोचना करते हैं.

‘योनि-शुचिता और नर-नारी’ विषयक उनका एक निबंध ही है. एक औरत की सामाजिक बराबरी के पक्ष में लोहिया के विचार न केवल अपने समय के लिए क्रांतिकारी हैं, बल्कि हमारे अपने समय से भी बहुत आगे हैं –

“हिंदुस्तान आज विकृत हो गया है, यौन-पवित्रता की लंबी-चौड़ी बातों के बावजूद, आम तौर पर विवाह और यौन के संबंध में लोगों के विचार सादे हुए हैं….लड़की की शादी करना माँ बाप की ज़िम्मेदारी नहीं, अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा दे देने पर उनकी ज़िम्मेदारी खत्म हो जाती है. अगर कोई लड़की इधर-उधर घूमती है और किसी के साथ भाग जाती है और दुर्घटना वश उसके अवैध बच्चा होता है, तो यह औरत और मर्द के बीच स्वाभाविक संबंध हासिल करने के सौदे का एक अंग है, उसके चरित्र पर किसी तरह का कलंक नहीं….समय आ गया है कि जवान औरतें और मर्द ऐसे बचकानेपन के विरुद्ध विद्रोह करें. उन्हें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि यौन-आचरण में केवल दो ही अक्षम्य अपराध हैं: बलात्कार और झूठ बोलना या वादों को तोड़ना.”

(राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा.: मस्तराम कपूर– भाग – 2).

लोहिया आजीवन कुँवारे रहे. विवाह नहीं किया. पर आज, यह बहुत कम लोगों को पता है कि वह मिराण्डा कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) की एक अध्यापक रमा मित्रा के साथ ‘लिवइन रिलेशनशिप’ में रहे. इसको उन्होंने किसी से कभी छिपाया नहीं. जानने वाले सभी जानते हैं. दोनों के एक दूसरे को लिखे पत्रों की किताब भी प्रकाशित है. लोहिया के संपर्क में रहे बिहार के सामाजवादी नेता शिवानंद तिवारी बताते हैं:

“लोहिया ने अपने संबंध को किसी से छिपाकर नहीं रखा था. लोग जानते थे, लेकिन उस दौर में निजता का सम्मान किया जाता था. लोहिया जी ने जीवन भर अपने संबंध को निभाया और रमा जी ने उसे आगे तक निभाया.”

राम मनोहर लोहिया इस देश के किसानों और मजदूरों से बहुत प्रेम करते थे. उन्होंने भारतीय किसानों और मजदूरों के लिए कई लड़ाइयाँ लड़ी हैं. यह लोहिया ही थे जिन्होंने जमींदारी प्रथा को खत्म कर दिए जाने का प्रस्ताव कांग्रेस के समक्ष रखा था. उन्होंने किसानों की बेहतरी के लिए एक ‘छह सूत्रीय उद्देश्य’ प्रस्तावित किया था. ‘भारत का किसान’ नाम से प्रकाशित उनके प्रसिद्ध भाषण में इन उद्देश्यों पर विस्तार से चर्चा की गयी है. इस प्रस्ताव में वह स्पष्ट करते हैं कि जमीन जोतने और बोने वाले को फसल का मालिकाना हक मिलना चाहिए. बंजर जमीन को खेती योग्य बनाने के लिए भूमि-सेना का गठन किया जाना चाहिए. कृषि और उद्योग के उत्पादन की कीमतों में समानता होनी चाहिए. किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए चौखम्भा राज कायम होना चाहिए. चौखम्भा राज से उनका तात्पर्य था– संघवाद की जगह शासन-प्रशासन का विकेंद्रीकरण. जिसका ढाँचा नीचे से ऊपर की ओर हो– गाँव, जिला, प्रांत और फिर केंद्र. लोहिया किसानों और मजदूरों से तो प्रेम करते ही थे लेकिन इस देश के युवाओं से उनका विशेष अनुराग था. उन्होंने जनवरी 1965 में ‘समाजवादी युवजन सभा’ के नेता ब्रजभूषण तिवारी को एक पत्र लिखा था जो देश के युवाओं के नाम संबोधित था. यह पत्र रचनावली के पाँचवें खंड में ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक से प्रकाशित है. इस पत्र में उन्होंने ‘परमार्थिक अनुशासनहीनता’ शब्द का प्रयोग किया था और इस सिद्धांत के माध्यम से वे युवाओं का आह्वान करना चाहते थे कि देश और समाज हित में जहां भी जरूरत पड़े वे सरकार के कानूनों को मानने से इनकार कर दें. विद्यार्थियों के अंदर आज तेजस्विता की जरूरत है, बकवास की नहीं.

लोहिया की जातीय भावना जाति, धर्म, वर्ण, भाषा, भूगोल सभी क्षेत्रों में किसी भी तरह के कर्मकांड, ढकोसले और पाखंड की विरोधी थी. हिन्दी, मराठी, बांग्ला, अवधी, अँग्रेजी, जर्मन आदि भाषाएँ जानते थे. उनकी अँग्रेजी बहुत अच्छी थी. पर वह अँग्रेजी की गुलामी उन्हें बिलकुल पसंद नहीं थी. उनके द्वारा चलाया गया अँग्रेजी-विरोध का आंदोलन जगजाहिर है. वह अँग्रेजी और अँग्रेज़ियत से इस कदर चिढ़ते थे कि अपने को उनका शत्रु घोषित कर दिया था-

“मैं अँग्रेजी का घोर शत्रु हो गया हूँ. उसे खत्म करना चाहिए. हमारे यहाँ अदालत, कचहरी, बहीखाता, पढ़ाई-लिखाई, सरकारी दफ्तरों आदि में अँग्रेजी का जो प्रभाव हो गया है, उसको हमेशा के लिए खत्म करना चाहिए. उसके बिना हम प्राणवान नहीं हो सकते.”

परंतु, लोहिया के अँग्रेजी विरोध को हिंदी के प्रचार-प्रसार और उसे जबरिया थोपने से जोड़ कर प्रचारित किया गया. जो कि सच नहीं है. वह कहते हैं–

“अँग्रेजी जबान को हटाने का काम आप हिंदी भाषा के प्रचार के साथ मत जोड़ देना. दोनों में फर्क है. मैं तो आपको सलाह दूंगा और यह जो हिंदी का प्रचार करते हैं उनको भी सलाह दूंगा कि हिंदी का प्रचार बंद करो. यह अच्छा नहीं है, इसने हिंदी का बहुत ज्यादा नुकसान किया है. हिंदी का जो रचनात्मक काम है उसको करो.” (राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. : मस्तराम कपूर – भाग – 4)

मैकाले की संताने उस समय भी और आज भी अँग्रेजी को आधुनिकता का वाहक मानकर उसके समर्थन में तर्क देती हैं, लोहिया का यह कथन उन्हें जरूर देखना चाहिए:

“बुनियादी सवाल है कि आधुनिकता क्या है ? क्या यह ऐसी चीज है जो अँग्रेजी के माध्यम से ही आ सकती है? आधुनिकता आदमियों और समस्याओं के प्रति वह रवैया है जिसे विज्ञान और टेक्नोलॉजी के विकास के साथ आज के आदमी ने विकसित किया है. यह रवैया मूलभूत रूप से तर्क, ज्ञान और सत्य पर आधारित है, न कि भावुकता, अंधविश्वास और पुराणपंथिता पर. यह मानवीय सम्बन्धों की गतिशील कल्पना है, पोथीनिष्ठ कल्पना नहीं. एक भारतीय को यह अँग्रेजी से नहीं मिल सकता. अँग्रेजी उसे पाखंडी बनती है. यह आदमी को कई ग्रंथियों का शिकार बनाती है, ऐसा व्यक्ति जिसका कोई मानवीय व्यक्तित्व नहीं होता, वह बिना दिमाग का नकलची बंदर बन जाता है.”

(राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. : मस्तराम कपूर – भाग – 9).

लोहिया स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि वे न तो मार्क्सवादी हैं और न ही मार्क्सविरोधी. वे अपने को गांधीवादी भी नहीं मानते हैं. उन्होंने खुद को कुजात गांधीवादी कहा है. पर गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा उनकी प्रबल आस्था थी. निहत्थापन और प्रतिरोध, इन दो प्रबल के चलते गुणों को चलते वह अहिंसा को बहुत महत्व देते थे. सत्याग्रह के संबंध में वह लिखते हैं:

“सत्याग्रह हथियार के रूप में तब तक रहेगा जब तक अन्याय और अत्याचार रहेगा और इसे रहना भी चाहिए क्योंकि यदि यह नहीं रहा तो गोली और बंदूक रहेगी.” (राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. मस्तराम कपूर – भाग – 1).

मार्क्स से मतभेद के बावजूद उनसे प्रेरणा पाने लायक बहुत सारी बातें वह स्वीकार करते हैं. वह मार्क्सवाद की सबसे बड़ी देन इस बात में मानते हैं कि मार्क्स ने संपत्ति के मोह से नफरत करना सिखाया. खासकर उस व्यक्तिगत संपत्ति से जो दूसरे मनुष्यों को नौकर बनाए. पर वह मार्क्स के पूँजीवाद संबंधी निष्कर्षों से सहमत नहीं. वह अपनी एक अधूरी पुस्तक ‘मार्क्स के बाद अर्थशास्त्र’ (Economics after Marx) में लिखते हैं:

“किसी एक व्यक्ति के विचारों को राजनीति कर्म का केंद्र नहीं बनाना चाहिए. वे विचार सहायता तो करें, परंतु नियंत्रण नहीं. स्वीकृति और अस्वीकृति, दोनों ही अंधविश्वास के बदलते पहलू हैं. मेरा विश्वास है कि गांधीवादी अथवा मार्क्सवादी होना मतिहीनता है और गांधीवाद-विरोधी या मार्क्सवाद-विरोधी होना भी उतनी ही बड़ी मूर्खता है. गांधी और मार्क्स दोनों ही के पास अमूल्य भंडार है, किन्तु तभी ज्ञान प्राप्त हो सकता है जब विचारों का ढाँचा किसी एक युग या व्यक्ति के विचार तक सीमित न हो.”

अपनी इसी पुस्तक में लोहिया विस्तार से पूँजीवाद, मार्क्सवाद और समाजवाद के रिश्ते पर गहराई से विचार करते हैं. वह मार्क्स के पूँजीवाद संबंधी अध्ययन और निष्कर्ष को यूरोसेंट्रिक बताते हुए पूँजी की गतिकी की मार्क्स की समझ को भ्रांत और दोषपूर्ण मानते हैं. वह वाह्य प्रतिक्रिया से अधिक पूँजी के आंतरिक ढांचे के समझ को महत्व देते हैं:

“मार्क्स ने आरंभ में ही यह गलती की कि उसने पूंजीवाद को उसके साम्राज्यवादी प्रसंगों से अलग अमूर्त रूप में देखा. मार्क्स साम्राज्यवादी शोषण से अनभिज्ञ नहीं थे और उनके अनुयायी लेनिन उसे और भी अधिक तीव्रता से महसूस किया था, लेकिन उनकी दृष्टि में साम्राज्यवाद पूंजीवाद का ट्यूमर, फालतू बदबूदार अंग था और इस कारण उनमें औपनिवेशिक जातियों के प्रति सपाट समझ रही जिसमें गहराई से छानबीन की गुंजाइश नहीं थी. अतः मार्क्सवाद पूंजीवादी विकास की तर्ककोचित व्याख्या प्रस्तुत नहीं कर सका. उसके पूंजीवाद की तस्वीर पश्चिम यूरोप की तस्वीर है, जिसमें अमरीकी और जापानी पूंजीवाद बाद में जुड़ गए….मार्क्स का पूंजीवाद एक स्वतः चालित पश्चिमी यूरोप के घेरे का पूंजीवाद है, जिसका बाहरी दुनिया पर प्रभाव तो निश्चय ही पड़ता है किन्तु जिसकी गति के सिद्धान्त और नियम पूर्णतः आंतरिक हैं. मार्क्सवाद आज दिन तक इसी तस्वीर के साथ बंधा हुआ है. वह वाह्य प्रतिक्रियाओं के संबंध में सिद्धान्त तो निश्चित ही बनाता है किन्तु पूँजी की वाह्य और आंतरिक गति के आपसी सम्बन्धों में बुनियादी सिद्धान्त को प्रकट करने में पूर्णतः असमर्थ है. इस मार्क्सवादी भ्रांति को सदा के लिए नष्ट करना समाजवाद है.”

(राममनोहर लोहिया रचनावली, संपा. मस्तराम कपूर – भाग – 1).

मार्क्सवाद से इतर लोहिया की स्पष्ट मान्यता है कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद जुड़वां संतानें हैं. वह इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की अंतिम अवस्था है. उनका मानना है कि दोनों एक साथ पैदा हुए, एक साथ पाले बढ़े और एक साथ परिपक्व हुए. अतः कोई अगर मार्क्सवाद और समाजवाद में भेद करना चाहेगा तो उसे यह जानना चाहिए कि मार्क्सवाद या साम्यवाद केवल पूंजीवादी-उत्पादन सम्बन्धों को ख़त्म करने पर ज़ोर देता है पर समाजवाद पूंजीवादी-उत्पादन सम्बन्धों तथा पूंजीवादी उत्पादन शक्तियों दोनों को ख़त्म करने या कम से कम उन्हें बड़े पैमाने पर बदलने का प्रयास करता है. इसलिए समाजवाद का काम दोहरा है, पूंजीपति वर्ग को ख़त्म करने के साथ-साथ पूंजीवादी उत्पादन के तरीकों और विधियों को भी ख़त्म करना उसका दायित्व है. समाजवाद का अर्थ है सम्पूर्ण बराबरी, संभव बराबरी.

लोहिया का समता और समानता पर विशेष ज़ोर था. अपने एक निबंध ‘समानता का अर्थ’ में वह विस्तार से इस पर अपने विचार प्रस्तुत करते हैं. उनका मानना है कि समानता खून बहाने से कभी नहीं आएगी. समानता के लिए खून बहाने के अप्रत्याशित और विपरीत परिणाम निकलेंगे. वह बताते हैं कि विभिन्न क्षेत्रों में समानता कैसे और किस तरह से लाई जाए. इस संबंध में वह परिवर्तन के तीन औज़ार देते हैं–

दबाव, अनुरोध और उदाहरण. ये ही तीन काल सिद्ध और लोक सिद्ध तरीके हैं. लोहिया जीवन भर अपने चिंतन और अपनी कार्यवाहियों में इन्हीं तरीकों से लोकतान्त्रिक समाजवाद को जमीन पर उतारने का संघर्ष करते रहे. भारतीय राजनीति में उनके जितना ईमानदार और तेजस्वी नेता आज दुर्लभ हैं.
(विनोद तिवारी की शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली पुस्तक ‘आधुनिक भारतीय चिंतक: लोहिया’ की भूमिका)

विनोद तिवारीजन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया में. अध्यापक, आलोचक और संपादक. प्रारंभिक शिक्षा देवरिया से. उच्च-शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, से. इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हिन्दी का अध्यापन. संप्रति दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी के प्रोफ़ेसर. दो वर्षों तक अंकारा विश्वविदयालय, अंकारा (तुर्की) में विजिटिंग प्रोफ़ेसर रहे.अब तक, ‘परम्परा, सर्जन और उपन्यास,’ ‘नयी सदी की दहलीज पर’, ‘विजयदेव नारायण साही (साहित्य एकेडेमी के लिए मोनोग्राफ)’, ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’, ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी’, ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के श्रेष्ठ निबंध’, ‘कथालोचना : दृश्य-परिदृश्य’, ‘उपन्यास : कला और सिद्धान्त ( दो खंड ), ‘नाज़िम हिकमत के देश में’ (तुर्की पर यात्रा-संस्मरण), ‘आलोचना की पक्षधरता’, ‘राष्ट्रवाद और गोरा’, ‘विचार के वातायन’, नलिन विलोचन शर्मा रचनावली (5 खंड),  जैसी पुस्तकों का लेखन और सम्पादन कर चुके हैं. बहुचर्चित और हिन्दी जनक्षेत्र की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘पक्षधर’ का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे हैं.आलोचना के लिए देश भर में प्रतिष्ठित ‘देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान – 2013’ और ‘वनमाली कथालोचना सम्मान – 2016’ से सम्मानित. सम्पर्क: C-4/604, ऑलिव काउंटी, सेक्टर-5, वसुंधरा, गाज़ियाबाद-201012 (उ. प्र.)
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