मणेन्द्र मिश्रा ‘मशाल’
भारतीय समाजवादी आंदोलन के वैचारिक नायक डॉ राममनोहर लोहिया की 114 वीं जयंती ऐसे समय में हैं जब देश में आम चुनाव शुरू हो गए हैं। सत्ताधारी दल जहां चार सौ के आकड़े को पाने की घोषणा कर रही है वहीं विपक्षी दल संविधान/लोकतंत्र बचाने के लिए जनता से अपील कर रहे हैं। ऐसे में लोहिया की वैचारिक और राजनैतिक यात्रा का स्मरण करना बेहद प्रासंगिक है। देश की स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस की एकतरफा जीत के बाद प्रधानमंत्री बने पंडित जवाहरलाल नेहरू की नीतियों को लेकर लोहिया सड़क से संसद तक विरोध दर्ज कराते थे। कांग्रेस सरकार की अनेक योजनाओं का उन्होंने तथ्य और तर्क दोनों आधार पर विरोध किया। आम चुनाव में लोहिया ने
जनता को आंदोलित करने के लिए जवाहर लाल नेहरू के संसदीय क्षेत्र फूलपुर से चुनाव लड़कर जनहित के अनेक मुद्दों पर जनता को जागरूक करते हुए लोकतंत्र में विपक्ष के महत्व को बताया। लोहिया ने सप्त क्रांति, दाम बांधों सहित अर्थ नीति, भाषा नीति को जनता के बीच विमर्श का केंद्र बनाकर लोकतंत्र को सशक्त किया। अहिंसात्मक और सत्याग्रही सिविल नाफरमानी को लोहिया भारत के लिए जरूरी लोकतांत्रिक साधन मानते थे। उन्होंने राजनीति में पाँच सुधारों क्रमशः अनुशासन दंड, निर्वाचन सावधानी,
ओहदेदार की आंतरिक मर्यादा, साथियों और निर्वाचकों का जनमत, कमिटी की सदस्यता या ओहदे से अलगाव पर जोर दिया। इसी क्रम में समाजवादी सदस्यों को लोहिया ने साहित्य, जानकारी एवं ज्ञानवृद्धि की भूख पर जोर देने का आग्रह किया।
लोकतंत्र में राजनैतिक कार्यकर्ताओं को अरमान, कर्म , अनुशासन और संगठन पर जोर लोहिया की प्राथमिकता में शामिल था। लोहिया भारत के एकलौते मौलिक चिंतक थे जो वैचारिक और हाशिये के समाज दोनों में लोकप्रिय थे। जिसका कारण वैश्विक एवं स्थानीय मुद्दों की लड़ाई लड़ने की उनकी जिजीविषा थी। सोशलिस्टों की सदन में संख्या कम होने के बाद भी वे नेहरूनीत कांग्रेस सरकार को सदन में ही घेर लेते थे। लोहिया की पार्टी के सदस्य राम सेवक यादव, कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया, मधू लिमए, महाराज सिंह भारती की बहस ने संसदीय परंपरा को जनकेंद्रित बनाने में सहयोग किया। लोहिया की धारा से निकले समाजवादी नेताओं ने उत्तर भारत से लेकर तटीय प्रदेशों तक अपनी नेतृत्व क्षमता से सत्ता के केंद्र में बने रहे। यूपी बिहार में लोहिया की धारा से निकले समाजवादी दलों ने जातीय जनगणना और पीडीए का जो मुद्दा उठाया है उसकी आधारशिला साठ के दशक में सोशलिस्टों ने ही रखी थी।
पिछड़े पाँवें सौ में साठ का नारा लोहिया के दौर में ही मुखर हुआ था। आरक्षण और प्रतिनिधित्व की समस्या के समाधान के लिए वंचित समूहों को राजनीति की मुख्य धारा में लाने के प्रबल पैरोकार लोहिया ही थे। लोहिया नौजवानों विशेषकर छात्र राजनीति के प्रबल समर्थक थे। इसी कारण वे देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में नवयुवकों/ युवतियों से संवाद करते रहते थे। पचास और साठ के दशक में इलाहाबाद विश्वविद्यालय उनका प्रिय केंद्र था। लोहिया के प्रभाव का ही असर था कि कांग्रेस के
गढ़ प्रयागराज (तत्कालीन) इलाहाबाद में समाजवादी युवजन सभा के लगातार आधे दर्जन से अधिक छात्रसंघ अध्यक्ष निर्वाचित हुए। जिनमें श्याम कृष्ण पाण्डेय, बृजभूषण तिवारी, मोहन सिंह की ख्याति राष्ट्रीय क्षितिज पर लंबे समय तक बनी रही। छात्र राजनीति के दौर में ही लोहिया के अनुयायी जनेश्वर मिश्र छोटे लोहिया के नाम से लोकप्रिय हुए और केंद्र की कई सरकारों में केन्द्रीय मंत्री रहे। उत्तर प्रदेश में लोहिया के व्यक्तित्व से आम जनता को परिचित कराने में पद्मविभूषण, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव का बड़ा योगदान रहा जिसे यूपी के मुख्यमंत्री रहे अखिलेश यादव ने और अधिक गति देते हुए लोहिया की समाजवादी नीतियों पर आधारित अनेक सरकारी
योजनाओं को अमली जामा पहनाया। लोहिया के नारे दवा पढ़ाई मुफ्ती हो, रोटी कपड़ा सस्ती हो का जो प्रभाव साठ के दौर में था वह आज भी उतना ही सामयिक बना हुआ है।
आज जब लोकसभा चुनाव सर पर है ऐसे में मतदाताओं को उनका अधिकार एवं कर्तव्य बताते हुए मुद्दा आधारित राजनीति करने वाले दलों को समर्थन देना ही लोहिया को सच्ची श्रद्धांजलि होगा। राजनीति में सक्रिय नेताओं और कार्यकर्ताओं को अध्ययन,जमीनी संघर्ष से उपजे अनुभव के आधार पर जनता के बीच संवाद करना चाहिए यही लोहियावादियों की धारा रही है। लोहिया का जीवन दर्शन यह संदेश देता है कि निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की संख्या कम होने के बाद भी पूर्ण बहुमत की सरकार पर भी दबाव बनाया जा सकता है और उसे जनहित में कार्य करने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। लोहिया को समग्रता में जानते और समझते हुए हम सतत संघर्ष करते हुए एक आदर्श नागरिक समाज के सपनें को धरातल पर ला सकते है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में लोहिया सदैव प्रकाश स्तम्भ की तरह आम जनता के हितों के लिए समर्पित व्यक्तित्व के रूप में चिर स्मरणीय बने रहेंगे।
मणेन्द्र मिश्रा ‘मशाल’
यश भारती सम्मानित, संस्थापक: समाजवादी अध्ययन केंद्र