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धन बनाम सत्ता की लड़ाई थी मंदिरों की लूट

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मनोज अभिज्ञान

इतिहास केवल अतीत की घटनाओं का संकलन नहीं है, बल्कि यह मानव समाज के विकास को समझने का विज्ञान भी है। इतिहास को विश्लेषण की कसौटी पर परखा जाना चाहिए, न कि केवल विजेताओं और पराजितों के नैरेटिव के आधार पर गढ़ा जाना चाहिए।

हर ऐतिहासिक घटना के पीछे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण होते हैं, जिन्हें समग्रता में समझे बिना किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना भूल ही साबित होगी। वैज्ञानिक इतिहासकार इसी दृष्टिकोण को अपनाते हैं-वे घटनाओं के पीछे छिपे संरचनात्मक कारणों को देखते हैं और ऐतिहासिक तथ्यों की जांच प्राथमिक स्रोतों के आधार पर करते हैं, न कि पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर।

लेकिन जब इतिहास लेखन को संकीर्ण जातिवादी और सांप्रदायिक दृष्टिकोण से देखा जाता है, तो यह अतीत की सच्चाई को विकृत कर देता है। वैज्ञानिक इतिहासकारों के विपरीत, सांप्रदायिक इतिहासकार इतिहास को एक खास नैरेटिव में ढालते हैं, जिससे समाज में कृत्रिम विभाजन पैदा होता है। वे विजेताओं को नायक और पराजितों को खलनायक बनाने की प्रवृत्ति अपनाते हैं, जिससे ऐतिहासिक घटनाओं की जटिलता को दरकिनार कर दिया जाता है।

इस प्रक्रिया में, वे आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक कारकों की अनदेखी कर केवल धर्म या जाति के आधार पर घटनाओं की व्याख्या करने लगते हैं। यही कारण है कि आज भी इतिहास को लेकर समाज में तनाव बना रहता है, क्योंकि इसे तर्क और प्रमाण के बजाय भावनाओं और पूर्वाग्रहों के आधार पर गढ़ा गया है।

इतिहास को जब सांप्रदायिक चश्मे से देखा जाता है, तो सच को मनमाफिक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है और एक खास एजेंडा गढ़ा जाता है। इससे समाज में पूर्वाग्रह और विद्वेष को बढ़ावा मिलता है, जिससे ऐतिहासिक तथ्यों की सच्चाई धुंधली हो जाती है। गजनी के महमूद को मुख्यतः मंदिरों को लूटने और मूर्तियों को तोड़ने वाले के रूप में चित्रित किया गया है, लेकिन इतिहासकारों ने इसे केवल धार्मिक कारणों से जोड़कर एकतरफा नैरेटिव बना दिया।

यह दावा किया जाता है कि चूंकि महमूद मुसलमान था और इस्लाम मूर्ति पूजा का विरोध करता है, इसलिए उसने मंदिरों को लूटा और मूर्तियां तोड़ीं। लेकिन अगर इस कथानक को ऐतिहासिक रूप से परखा जाए, तो भिन्न तस्वीर उभरती है, जो दर्शाती है कि मंदिरों की लूट का मूल कारण आर्थिक था, न कि केवल धार्मिक।

ग्यारहवीं शताब्दी के कश्मीर के राजा हर्ष का उदाहरण इस बात को पुष्ट करता है। राजतरंगिणी के अनुसार, हर्ष ने एक विशेष अधिकारी ‘देवोत्पाटननायक’ की नियुक्ति की थी, जिसका कार्य ही मंदिरों को लूटना था। हर्ष स्वयं कोई इस्लामी शासक नहीं था, बल्कि हिंदू राजा था, लेकिन उसने संगठित रूप से मंदिरों की संपत्ति पर हाथ साफ किया। यदि मंदिरों की लूट केवल धार्मिक कारणों से होती, तो हर्ष जैसे हिंदू राजा ऐसा क्यों करते? इससे यह स्पष्ट होता है कि मंदिरों की लूट का संबंध मुख्यतः धन-संपत्ति से था, न कि किसी धर्म विशेष से।

मंदिर उस काल में केवल पूजा स्थलों तक सीमित नहीं थे, बल्कि वे राजस्व एकत्र करने के महत्वपूर्ण केंद्र भी थे। इनमें राजाओं और धनी लोगों द्वारा दिया गया अपार धन एकत्रित रहता था। साथ ही, कई मंदिरों के पास बड़ी मात्रा में ज़मीन, पशुधन और अन्य संसाधन होते थे, जिनका उपयोग प्रशासनिक और आर्थिक कार्यों के लिए किया जाता था। ऐसे में मंदिरों की लूट केवल धार्मिक कट्टरता का परिणाम नहीं थी, बल्कि यह आर्थिक-राजनीतिक रणनीति थी। कोई भी विजेता, चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम, मंदिरों को इसलिए निशाना बनाता था क्योंकि वहां संपत्ति संचित होती थी।

इतिहासकारों ने मंदिरों की लूट को एकतरफा ढंग से प्रस्तुत करके इस्लामी आक्रमणकारियों को विशेष रूप से खलनायक बना दिया, लेकिन वे हिंदू शासकों द्वारा की गई लूट को नजरअंदाज कर गए। यही नहीं, उन्होंने इस तथ्य को भी दबा दिया कि कई मुस्लिम शासकों ने भी मंदिरों को संरक्षण दिया और उन्हें अनुदान दिए।

उदाहरण के लिए, बंगाल के सुल्तान हुसैन शाह और गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह ने कई मंदिरों को सुरक्षा दी और अनुदान दिए। मुगल शासकों में जहां एक ओर औरंगजेब ने कुछ मंदिरों को ध्वस्त किया, वहीं दूसरी ओर उसने कई मंदिरों को अनुदान भी दिए। लेकिन सांप्रदायिक इतिहासकारों ने केवल एक ही पक्ष को उजागर किया और दूसरे पक्ष को पूरी तरह अनदेखा कर दिया।

यह ऐतिहासिक धूर्तता है, जो न केवल तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करती है, बल्कि समाज में वैमनस्य भी पैदा करती है। इस धूर्तता की जड़ें उस जातिवादी मानसिकता में हैं, जो अपनी सुविधानुसार तर्कों का चयन करती है। जी.एस. सरदेसाई इसका प्रमुख उदाहरण हैं। उन्होंने माधवराव और नारायणराव के शासनकाल में देशस्थ ब्राह्मणों और कोंकणस्थ ब्राह्मणों के बीच संघर्ष को नकारते हुए कहा कि दोनों पक्षों में ऐसे लोग थे जो एक-दूसरे के साथ संबद्ध थे। लेकिन जब यही तर्क हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर लागू होता है, तो वे चुप्पी साध लेते हैं।

अगर यह कहा जाए कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच स्थाई शत्रुता नहीं थी, क्योंकि दोनों पक्षों में एक-दूसरे के साथ सहयोग करने वाले लोग थे, तो यह तर्क उन्हीं जातिवादी सांप्रदायिक इतिहासकारों को असुविधाजनक लगता है। यह दोहरे मानदंड केवल इतिहास को विकृत करने का कार्य नहीं करते, बल्कि समाज में कृत्रिम विभाजन को भी गहरा करते हैं। इन इतिहासकारों के लिए जब बात ब्राह्मण बनाम ब्राह्मण की आती है, तो वे समाज में व्याप्त जटिलताओं और आंतरिक संघर्षों को स्वीकार करने लगते हैं, लेकिन जब बात हिंदू बनाम मुस्लिम की आती है, तो वे इसे शाश्वत संघर्ष के रूप में पेश करते हैं।

इतिहास में अगर जातीय और धार्मिक संबंधों का निष्पक्ष अध्ययन किया जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज हमेशा से बहुस्तरीय और जटिल रहा है। मध्यकालीन भारत में हिंदू और मुस्लिम केवल एक-दूसरे के विरोधी के रूप में नहीं थे, बल्कि वे आपस में व्यापार, प्रशासन और संस्कृति में घुलमिल चुके थे। फिर भी, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों और सांप्रदायिक इतिहासकारों ने अलग कथा गढ़ी, जिसमें हिंदू और मुस्लिम को दो अलग-अलग, परस्पर विरोधी इकाईयों के रूप में चित्रित किया गया।

यदि हम 17वीं शताब्दी की बात करें, तो उस समय भारत में मराठा विद्रोह, सिख विद्रोह और जाट विद्रोह जैसे बड़े-बड़े जन-आंदोलन हुए। मराठों और मुगलों, सिखों और मुगलों के बीच जबरदस्त संघर्ष हुए, लेकिन इन सबके बावजूद समाज में सामुदायिक स्तर पर सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए।

औरंगजेब के शासनकाल को अक्सर ‘आततायी शासन’ के रूप में चित्रित किया जाता है, लेकिन उनके समय में कोई बड़ा हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ। इसके विपरीत, आज जब भारत संवैधानिक रूप से पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है, सांप्रदायिक दंगे इतने अधिक हो चुके हैं कि वे समाज के लिए सामान्य घटना बन गए हैं।

यह विडंबना है कि जिस युग में सांप्रदायिक सद्भाव ज्यादा मजबूत होना चाहिए था, उसी युग में सांप्रदायिक हिंसा अधिक हो गई। इसका मुख्य कारण यही है कि इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया और एक ऐसी धारणा बनाई गई, जिससे समाज को विभाजित किया जा सके।

सांप्रदायिक इतिहास लेखन के कारण ही आज हिंदू और मुस्लिम के बीच कृत्रिम वैमनस्य पैदा किया गया है। इसने समाज को इस हद तक प्रभावित किया है कि आज भी जब किसी ऐतिहासिक घटना का विश्लेषण किया जाता है, तो उसे हिंदू-मुस्लिम दृष्टिकोण से देखने की प्रवृत्ति बनी रहती है। इस विकृति को दूर करने के लिए यह जरूरी है कि इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाए और जातिवादी-सांप्रदायिक इतिहासकारों की धूर्तता को उजागर किया जाए।

आज जब सांप्रदायिकता गंभीर समस्या बन चुकी है, तब यह और भी आवश्यक हो जाता है कि इतिहास को निष्पक्ष रूप से समझा जाए। यह आसान कार्य नहीं है, क्योंकि सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले लोग सत्ता और संसाधनों पर कब्जा जमाए हुए हैं। लेकिन अगर हम समाज को सच्चाई से अवगत नहीं कराएंगे, तो यह बार-बार उन्हीं गलतियों को दोहराने के लिए अभिशप्त रहेगा। इसलिए, समय आ गया है कि इतिहास को सही संदर्भ में देखा जाए और जातिवादी-सांप्रदायिक इतिहास लेखन की धूर्तता को पूरी तरह से उजागर किया जाए।

इतिहास की धूल में दबी कहानियां जब सांस लेती हैं, तो वे सत्य और मिथ्या के बीच की उस महीन रेखा को प्रकट करती हैं, जिसे समय ने धुंधला कर दिया है। लेकिन सत्य की नदी चाहे जितनी भी मोड़ ले, वह अंततः सागर से मिलने के लिए बाध्य होती है। इतिहास की परछाइयों में भटकते लोगों को यह समझना होगा कि अतीत को तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है, पर उसके वास्तविक स्वरूप को मिटाया नहीं जा सकता। जो इसे धर्म, जाति और संप्रदाय की संकीर्ण सीमाओं में बांधने का प्रयास करते हैं, वे दरअसल समय के उस चक्र को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, जो सतत प्रवाहमान है।

लेकिन इतिहास केवल स्मृतियों का भार नहीं, चेतना की मशाल भी है। यह न केवल अंधकार से टकराने का साहस देता है, बल्कि भविष्य की राह भी दिखाता है। अगर हम इसे पूर्वाग्रहों के बोझ से मुक्त करें, तो यह उन झूठे तिलिस्मों को भी उजागर कर देगा, जो समाज को छलते रहे हैं। जो मंदिरों के टूटने की कहानियों में केवल धर्म देखते हैं, वे शायद उस श्रम को नहीं देख पाते जिसने उन मंदिरों को खड़ा किया था।

जो अतीत के संघर्षों में केवल रक्त देखते हैं, वे उन स्वप्नदर्शियों को भूल जाते हैं जिन्होंने इन सभ्यताओं को रचा था। जब इतिहास को निष्पक्ष दृष्टि से पढ़ा जाएगा, तब हमें केवल संघर्ष नहीं, बल्कि मनुष्यता के वे पुल भी दिखेंगे, जो घृणा की खाइयों को पाट सकते हैं।

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