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मधु लिमये ने नेहरू के जीवनकाल में ही  मुंगेर का कांग्रेसी किला ध्वस्त कर दिया

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शशि शेखर प्रसाद सिंह

बिहार राज्य का मुंगेर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र भारत की राष्ट्रीय राजनीति के मानचित्र पर सबके लिए तब आकर्षण का केंद्र बन गया जब महाराष्ट्र के समाजवादी नेता, ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ लगभग चार साल तक जेल में बंद रहने वाले स्वतंत्रता सेनानी तथा पुर्तगाल से गोवा की मुक्ति के आंदोलन के नायकों में एक मधु लिमये को संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) ने मुंगेर लोकसभा सीट से 1964 के उपचुनाव में उम्मीदवार बनाने का निर्णय ले लिया। मुंगेर में यद्यपि समाजवादी आंदोलन का काफी प्रभाव था किंतु 1952, 1957 तथा 1962 के तीन संसदीय आम चुनावों में वे कांग्रेस को कोई गंभीर राजनैतिक चुनौती देने में सफल नहीं हो पाए थे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आसानी से चुनाव जीतती रही थी।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन बार के सांसद बनारसी प्रसाद सिंह की 1964 में मृत्यु के कारण चुनाव आयोग ने मुंगेर में उपचुनाव कराने की घोषणा की, इसी के साथ मुंगेर की राजनीति में जबरदस्त हलचल शुरू हो गयी।कांग्रेस मुंगेर को अपना गढ़ मानती थी और उपचुनाव में जीत के प्रति आश्वस्त थी किंतु तभी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने मुंगेर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के उपचुनाव में महाराष्ट्र के 42वर्षीय प्रसिद्ध समाजवादी नेता मधु लिमये को संसोपा का उम्मीदवार घोषित कर कांग्रेसी खेमे में हड़कंप मचा दिया और मुंगेर के समाजवादियों में नई ऊर्जा और जोश भर दिया।

यद्यपि मुंगेर के कांग्रेसी नेता श्रीकृष्ण सिंह आजादी के बाद से 1961 में मृत्यु के पूर्व तक बिहार के लगातार मुख्यमंत्री रहे थे किंतु राष्ट्रीय राजनीति और संसद में मुंगेर लगभग एक गुमनाम संसदीय निर्वाचन क्षेत्र ही बना रहा। 1962 के तीसरे लोकसभा चुनाव के बाद 1963 के उपचुनाव में समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया की उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद से जीत के बाद 1964 का यह उपचुनाव समाजवादियों के लिए महत्त्वपूर्ण हो गया था क्योंकि मधु लिमये, डॉ लोहिया के बेहद करीबी नेता थे और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से लेकर गोवा मुक्ति आंदोलन में गौरवमयी भूमिका के कारण अपनी अलग अखिल भारतीय राजनीतिक पहचान बना चुके थे।

यद्यपि अपनी जीत के प्रति आश्वस्त कांग्रेस ने बिहार की राजनीति में दिग्गज माने जाने वाले स्थानीय नेता को चुनाव मैदान में उतारने का फैसला किया था और बिहार के बाहर के किसी नेता की उनके मुकाबले उतरने से ‘बिहारी बनाम बाहरी’ का नारा देकर उन्हें अपनी जीत सुनिश्चित दिखाई देती थी किंतु मधु लिमये जैसे समाजवादी के मैदान में आते ही उनके मनमोहक व्यक्तित्व, गंभीर भाषण की कला और लोक संपर्क की अद्भुत शैली के कारण मुंगेर की जनता और खासकर युवाओं के बीच उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी और चुनाव का परिणाम साफ-साफ उनके पक्ष में दिखाई देने लगा।

अंततः समाजवादी मधु लिमये प्रधानमंत्री नेहरू के जीवनकाल में ही मुंगेर के कांग्रेसी गढ़ को ध्वस्त कर मुंगेर में समाजवाद का परचम लहराने में कामयाब हो गए।

1967 के लोकसभा चुनाव में हिंदीभाषी क्षेत्रों में जब डॉ लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद का नारा कांग्रेसियों के लिए सरदर्द बना हुआ था तब मधु लिमये जैसे लोकप्रिय नेता के लिए दुबारा चुनाव जीतना कोई मुश्किल काम नहीं था और उन्होंने बिहार के दिग्गज कांग्रेसी और मुंगेर के ही नेता चंद्रशेखर सिंह उर्फ लल्लू बाबू को 96,000 से अधिक मतों से पराजित कर दिया और वे मुंगेर से दुबारा सांसद बने। हिंदीभाषी क्षेत्रों में राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में भी डॉ लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद ने कांग्रेस को चुनावी हार का स्वाद चखा दिया था और बिहार तथा उत्तर प्रदेश सहित कई हिंदीभाषी राज्यों में गैर-कांग्रेसी संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकारें बनीं हालांकि ये सरकारें अस्थिर रहीं। 1967 में डॉ राममनोहर लोहिया की अचानक मृत्यु से समाजवादी आंदोलन को गहरा आघात लगा था और मधु लिमये सहित सभी समाजवादी नेताओं के लिए वह काफी कठिन दौर था लेकिन मधु लिमये ने लोकसभा में मुंगेर के प्रतिनिधि होने के नाते अमिट छाप छोड़ी! कहते हैं जब मधु लिमये लोकसभा में पहुँचते थे तो मंत्रियों सहित प्रधानमंत्री तक में घबराहट हो जाती थी क्योंकि मधु लिमये किसी भी विषय पर बोलने के पहले इतनी तैयारी करते थे कि सरकारी पक्ष के लिए उनके तीखे तर्कों और ठोस तथ्यों पर आधारित प्रश्नों का जवाब देना मुश्किल हो जाता था।

मैं, मुंगेर और मधु लिमये

मुंगेर मेरा गृह जिला है और मेरा गाँव ‘बिंदवारा’ मुंगेर संसदीय क्षेत्र का हिस्सा रहा है और गाँव होकर भी मुंगेर शहर के बहुत करीब होने के कारण चुनावी राजनीति में काफी सक्रिय रहता है। 1964 के चुनाव के बारे में बहुत धुंधली यादें मेरे मस्तिष्क में हैं क्योंकि उस समय मैं बहुत छोटा था और घर या दरवाजे पर किसी अजनबी के आने पर कौतूहलवश निहारने के सिवा कुछ करता नहीं था; 1967 के चुनाव में मधु लिमये और उनकी पत्नी चंपा लिमये लोकसभा चुनाव के समय मेरे घर आते थे क्योंकि मेरे सबसे छोटे चाचा हरीनंदन सिंह ट्रेड यूनियन लीडर थे और मुंगेर में समाजवादी आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़े थे। इस कारण गाँव में मेरा घर समाजवादी आंदोलन का एक छोटा-मोटा केंद्र बना हुआ था और अक्सर चुनावी गहमागहमी घर और दरवाजे पर बनी रहती थी। चुनाव आते ही दरवाजे पर चुनाव का आफिस खुल जाता था और चुनाव होने तक गहमागहमी बनी रहती बल्कि जश्न का माहौल बना रहता। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण मधु लिमये का संसोपा का उम्मीदवार होना था।

मैं यदि कहूं कि मुझमें समाजवाद के प्रति आकर्षण छोटी सी उम्र में घर के चुनावी माहौल के कारण हुआ और उसका श्रेय मधु लिमये को जाता है, तो वह गलत नहीं होगा।

1967 के चुनाव के बाद 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का आजाद भारत में पहली बार विभाजन हो गया था और कांग्रेस (संगठन) और कांग्रेस (सत्तारूढ़) दो अलग दल बन गए थे। 1971 में मध्यावधि चुनाव की घोषणा श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार ने कर दी थी। इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे के बीच 1971 का लोकसभा चुनाव हो रहा था और इंदिरा गांधी उस समय कोयला खानों, बैंकों के राष्ट्रीयकरण के प्रगतिशील नीतिगत निर्णयों के कारण लोकप्रियता के शिखर पर थीं और इस बीच मुंगेर लोकसभा क्षेत्र से मधु लिमये को हराने की एक पूरी साजिश रची गई थी जिसमें मुंगेर के स्थानीय महाविद्यालय के एक डेमोंस्ट्रेटर देवेंद्र प्रसाद यादव को कांग्रेस ने जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखकर टिकट देने का निर्णय लिया था।

पहले चर्चा यह थी कि गिद्धोर के पूर्व राजा प्रताप नारायण सिंह को कांग्रेस टिकट दे रही है किंतु कांग्रेस ने अपना फैसला बदला और प्रताप नारायण सिंह को टिकट देने के बजाय देवेंद्र प्रसाद यादव को टिकट दे दिया। इस बदलाव के पीछे एक बहुत बड़ा राजनीतिक कारण यह था कि टिकट न मिलने के कारण प्रताप नारायण सिंह नाराजगी में चुनाव में स्वतंत्र रूप से उम्मीदवार हो जाएं तो चुनाव में राजपूतों के वोट प्रताप नारायण सिंह बांटने में कामयाब हो जाएंगे और समाजवादी उम्मीदवार मधु लिमये का चुनावी नुकसान होगा और कांग्रेसी उम्मीदवार देवेंद्र प्रसाद यादव को कामयाबी मिल सकती है। ऐसा ही हुआ, चुनाव में मधु लिमये हार गए क्योंकि राजपूत जाति के लगभग 97,000 वोट प्रताप नारायण सिंह को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मिले और यह मधु लिमये के लिए बहुत नुकसानदेह साबित हुआ। मधु लिमये लगभग 26,000 वोटों से हार गए… ।

पिछले दो चुनावों में समाजवादी मधु लिमये ने जातिवाद की चुनावी राजनीति को बुरी तरह झुठला दिया था किंतु मैंने अपने गाँव में भी इसबार जातिवाद का कुरूप चेहरा करीब से देखा था, जो गाँव पिछले दो चुनाव में मधु लिमये के पीछे चट्टान की तरह खड़ा रहा था उसमें भी दरार साफ दिखाई दे रही थी और चाचाजी जैसे समाजवादी के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती थीं। मुंगेर लोकसभा क्षेत्र में निर्दलीय प्रताप नारायण सिंह के समर्थक ‘यादव बनाम राजपूत’ का नारा देकर राजपूतों को अपने पक्ष में गोलबंद करने में कामयाब रहे और यादवों ने कांग्रेसी यादव उम्मीदवार का पूरा साथ दिया। परिणामत: 1971 में मधु लिमये चुनाव हार गये।

चुनाव परिणाम आते ही पूरे शहर में यह चर्चा होने लगी थी कि देवेंद्र प्रसाद यादव यद्यपि पहली बार लोकसभा के चुनाव में जीते हैं किंतु श्रीमती इंदिरा गांधी, मधु लिमये जैसे दिग्गज समाजवादी नेता को हराने के लिए उन्हें जरूर कोई इनाम देंगी और ऐसा ही हुआ। इतना ही नहीं, यह खबर भी उस समय अखबारों में छपी कि देवेंद्र प्रसाद यादव जीतकर जब दिल्ली पहुंचे तो संसद भवन में घुसने के पहले उनसे जब चुनाव आयोग का प्रमाणपत्र मांगा गया तो उन्होंने बहुत विश्वास के साथ कहा कि वही तो मधु लिमये को चुनाव में हराकर आए हैं! सच में देवेंद्र प्रसाद यादव, इंदिरा गांधी की सरकार में शिक्षा और संस्कृति उपमंत्री बनाए गए। यह तोहफा देवेंद्र प्रसाद यादव को मधु लिमये जैसे समाजवादी नेता को हराने के कारण ही मिला था।

मुंगेर संसदीय क्षेत्र से लोगों को मधु जी जैसे नेता के हारने का बेहद दुख था किंतु राजनीति के खेल में कांग्रेसी ऐसी चाल खेलने में माहिर थे।

यह मधु लिमये का मुंगेर से अंतिम चुनाव था। बाद में मधु लिमये 1973 में बिहार के बांका संसदीय क्षेत्र से उपचुनाव में संसोपा के प्रत्याशी बने और चुनाव जीते। 1977 में वे जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में बांका से पुनः चुनाव जीते। 1980 में जनता पार्टी की सरकार के पतन और पार्टी के विघटन के बाद 1980 के मध्यावधि संसदीय चुनाव में इंदिरा गांघी की वापसी हुई और मधु लिमये बांका से चुनाव हार गए। इस बार इंदिरा गांधी ने मधु लिमये को हराने वाले चंद्रशेखर सिंह को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह देकर इनाम दिया। यह राष्ट्रीय राजनीति में समाजवादी मधु लिमये के विपक्षी राजनीतिक कद और कांग्रेस सरकार में उनको लेकर पैठी दहशत को दर्शाता है।

जब मधु लिमये छात्रों से मिलने जेल आए

1973 में गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन के बाद 1974 में बिहार में कांग्रेस की अब्दुल गफूर सरकार के समय बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ छात्र आंदोलन शुरू हो गया था। आजादी के आंदोलन में अगस्त क्रांति के महानायक और समाजवाद से सर्वोदय को समाज परिवर्तन का मार्ग बनाने वाले जयप्रकाश नारायण छात्र आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। आज मेरे मस्तिष्क में वो दिन घूम रहा है जब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था और 1975 के अप्रैल महीने में जयप्रकाश जी के आह्वान पर सत्याग्रह करते हुए मुंगेर में जिलाधिकारी दफ्तर के बाहर हम स्कूल और कॉलेज के सैकड़ों छात्र गिरफ्तार हुए थे और मुंगेर के बजाय हमें भागलपुर की कैंप जेल में रखा गया था। अचानक एक दिन जेल में हम विद्यार्थियों के बीच में जंगल की आग की तरह एक खबर फैली कि सत्याग्रहियों से मिलने के लिए मधु लिमये आए हैं। हम सभी जेल के फाटक की ओर भागे और मधु लिमये ने हम लोगों से मुलाकात की, एक संक्षिप्त संबोधन किया और कहा कि आप सारे सत्याग्रही जल्द छोड़ दिये जाएंगे।

यह मुंगेर के लोगों के लिए सदा गर्व की बात होती थी कि उनके सांसद रहे मधु लिमये आज जेपी आंदोलन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मधु लिमये की बातें लंबे समय तक मुंगेर शहर और गांव गांव में होती रहती थीं।

शहर के बीचोबीच टाउनहॉल में कितनी बार मधु जी ने जनता से खचाखच भरी सभा को संबोधित किया। जेपी आंदोलन के दौरान इमरजेंसी लगने के बाद अन्य नेताओं के साथ मधु लिमये भी गिरफ्तार कर लिये गए और जेल में बंद रहे।

आपातकाल के बाद 1977 में जब जेपी की प्रेरणा से कई गैर-कांग्रेसी दलों के विलय कर जनता पार्टी का निर्माण हुआ तो उसमें भी मधु लिमये का महत्त्वपूर्ण योगदान था और मुंगेर के लोग तब भी मधु लिमये को अपना ही मानते थे। मधु जी बांका के सांसद हो चुके थे और मुंगेर में उनका उतना आना जाना नहीं था लेकिन मुझे याद है जब भी मुंगेर आते थे चाचा जी के साथ घर पर जरूर आते थे। सच तो यह है कि मुंगेर को संसदीय निर्वाचन क्षेत्र के रूप में भारतीय राजनीति में जो पहचान मिली उसका श्रेय मधु लिमये जैसे दिग्गज समाजवादी नेता को ही जाता है।

जनता पार्टी का गठन होने के बाद मधु जी जनता पार्टी के महासचिव बनाए गए थे और उन्होंने कोई भी मंत्री पद लेने से साफ इनकार कर दिया था। 1979 में जनता पार्टी में जब दोहरी सदस्यता का मामला उठा तो मामले को उठाने वालों में वे अग्रणी थे और उन्हें लगता था कि जनता पार्टी के जनसंघ घटक को हिंदूवादी सांप्रदायिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस) से अपना रिश्ता तोड़ना जरूरी है। यद्यपि दोहरी सदस्यता के मामले पर जनता पार्टी टूट गई और इसका दुख भी हुआ क्योंकि जनता पार्टी के गठन से ऐसा लगा था कि भारत में कांग्रेस के विकल्प के रूप में एक गैर-कांग्रेसी गैर-साम्यवादी दल का निर्माण हुआ है और यह भारत में मजबूत दो दल पर आधारित दलीय व्यवस्था को विकसित करने में सहायक सिद्ध हो सकता है लेकिन लगभग ढाई वर्षों के अंदर ही जनता पार्टी के विघटन के साथ यह सपना टूट गया।

दोहरी सदस्यता के मामले पर जनता पार्टी के विघटन से दुख तो जरूर हुआ था लेकिन तब भी यह विश्वास था कि किसी भी सरकारी या मंत्रिपद को बार-बार ठुकराने वाले ईमानदार राजनीतिज्ञ, समर्पित समाजवादी तथा संवेदनशील नेता मधु लिमये गलत नहीं कर सकते!

आज जब देश में उन्हीं हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राजनीतिक दल और विचार की सरकार है और देश में सांप्रदायिक नफ़रत और हिंसा सरकारी संरक्षण में फैलाई जा रही है तो मधु लिमये के स्पष्ट समाजवादी राजनीतिक विचार और निःस्वार्थ कार्य उनके जन्मशताब्दी वर्ष में बहुत याद आ रहे हैं।

समता मार्ग से साभार

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