अग्नि आलोक
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दीपावली को वाह्य नहीं, अंतर्प्रकाश का उत्सव बनाएं 

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              ~डॉ. विकास मानव

     कम्पन से नाद और फिर शब्द की उत्पत्ति होती है। नाद और शब्द के बीच  के समय में एक अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि जन्म लेती है। इससे व्यापक प्रकाश प्रादुर्भूत होता है। योग और तंत्र के सिद्धांतानुसार ध्वनि और प्रकाश की गति में प्रतिक्षण एक मील का अन्तर पड़ता है।

         उदाहरण के रूप में मेघ को लिया जा सकता है। मेघ से उत्पन्न बिजली का प्रकाश धरती पर पहले पहुँच जाता है, उसके कुछ क्षण बाद बिजली की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है। प्रकाश और ध्वनि के बीच जितने क्षण का अन्तर है, उतने ही मील पर बादल को समझना चाहिए।

      जिस प्रकार जहाँ कम्पन है, वहां शब्द है, उसी प्रकार जहाँ नाद है, वहां प्रकाश अवश्य है। अर्धमात्रा से उत्पन्न प्रकाश को ‘महाकाल’ कहा गया है और इसके अन्धकार पक्ष को ‘महाकाली’ कहते हैं।

         वर्ष के अन्दर एक बार इस महाकाली का निकट संपर्क जगत से होता है। उस समय को ‘महारात्रि’ या ‘काल-रात्रि’ कहते हैं–यही दीपावली की रात्रि होती है।

         दीपावली को दीयों के प्रकाश करने के पीछे का वास्तविक रहस्य यही है। इस अवसर पर जहाँ काल-रात्रि रूपा महाकाली इस जगत से विशेष रूप से संपर्क करती है, वहीँ उसकी अन्य शक्तियां, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, गुह्यक, अप्सरा आदि भी इस संसार में प्रच्छन्न रूप से विचरण करने के लिए आ जातीं हैं।

     वे किसी भी वेश में हो सकते हैं हमारे-आपके द्वार पर। भिखारी के वेश में महाकाल, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, गुह्यक, आदि और भिखारिन के वेश में महाकाली और अप्सरा द्वार पर दस्तक दे सकती है।

    होली को दारुणरात्रि, कृष्ण जन्माष्टमी को मोहरात्रि और शिवरात्रि को महारात्रि कहते हैं। सभी शक्तियां एक ही महाशक्ति के ही भिन्न- भिन्न रूप हैं।

 *अंतर्प्रकाश का उत्सव :*

       दीपावली बाहर रोशनी करने का नाम नहीं, अंतर को प्रज्ज्वलित/प्रकाशित करने का पर्वोत्सव है। हमारी चेतना बाहर की ओर देखती है, अगर हम अंदर की ओर देखें तो कायाकल्प हो सकता है।

          अगर अंदर की रोशनी जल गई तो पूरा जीवन जगमग जगमग हो जाएगा। अपने अंतर में दीया जलाने की प्रक्रिया को ही ध्यान कहते हैं।

  प्रज्ज्वलित है प्राण में अब भी व्यथा का दीप,

 ढाल उसमें शक्ति अपनी लौ उठा!

लौह-छेनी की तरह आलोक की किरणें

काट डालेंगी तिमिर को,

ज्योति की भाषा नहीं बंधती कभी व्यवधान से!

मुक्ति का बस है यही पथ एक!!

      हाथ मत जोड़ो आकाश के समक्ष, क्योंकि आकाश हाथ जोड़ने को नहीं समझता। न मंदिर-मस्जिदों में प्रार्थनाएं करो। वे प्रार्थनाएं शून्य में खो जाती हैं। प्रज्ज्वलित है प्राण में अब भी व्यथा का दीप। व्यर्थता दिखाई पड़ रही न; यह काफी शुभ लक्षण है।

   ज्योति जलाओ। भीतर के दीये की ज्योति को उकसाओ। बुझ नहीं गई है, क्योंकि आपको बोध हो रहा है कि जीवन व्यर्थ गया। किसे यह बोध हो रहा है? उस बोध का नाम ही ज्योति है।

   यह कौन तिलमिला गया है? यह कौन नींद से जाग उठा है? यह कौन- जिसका स्वप्न टूट गया है? इसी को पकड़ो। इसी को सम्हालो। इसी धीमी-सी उठती हुई आवाज को अपना सारा जीवन दो। इसी धीमी-सी जगमगाती लौ को अपनी पूरी ऊर्जा दो।

    आपके भीतर जलेगी प्रज्ज्वलित अग्नि, जो न केवल प्रकाश देगी, वरन शीतल भी करेगी। जलेगी प्रज्ज्वलित अग्नि, जो तुम्हारे अहंकार को गलाएगी, जो आपके अंधकार को काटेगी, और जो आपके लिए परम प्रकाश का पथ बन जाएगी।

    जितना जल्दी कर लो, उतना शुभ, क्योंकि जितना समय नहीं होगा, उतना समय दुख-स्वप्नों में बीतेगा। उतना समय व्यर्थ कूड़ा-करकट बटोरने में बीतेगा। उतना समय व्यर्थ ही गया।

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