अग्नि आलोक
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पुरुष बनती स्त्री

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जूली सचदेवा (दिल्ली)

गुज़श्ता सालों को
सुनती,
पढ़ती,
भोगती,
सहती स्त्री ने
पढ़ा कि :
सशक्त होना होगा उसे.
अबला के आवरण को
तोड़ना होगा
भर ताकत उसे.

उसने ताकत के
तमाम स्रोत पढ़े
ताकतवर होने की
तमाम क्रियाएं समझी
सत्ता,
पूंजी,
हिम्मत,
सब स्त्रीवादी शब्द थे.
पुरूष की
हद में थे लेकिन
तमाम शब्द
पुरुष की ज़द में थी
इन शब्दों की
पूरी कायनात.

स्त्री ने ताकत
का मतलब
पुरुष होना
समझा
स्त्री
पुरुष के लिए
हवस का
सामान थी
जैसे पूँजी, सत्ता
स्त्री को क्या
हासिल होना था
पुरुष होकर
स्त्री ने नही समझा.

स्त्री होना
पुरूष के लिये
एक कदम आगे
की यात्रा थी
पुरुष होना
स्त्री के लिए
एक कदम पीछे
की यात्रा थी
उसने पीछे मुड़ने की
यात्रा चुनी.

स्त्री पुरूष होने लगी
सोचने लगी
सशक्त होना
यही है शायद
पुरुष के लिए
स्वाभाविक थे
जो कृत्य
उनमे अतिरिक्त बल
झोंकना पड़ा
स्त्री को
अतिरिक्त
पैदा करना
पड़ा उसे.

स्वाभाविक
छिटकने लगा
स्त्री से
पुरुष होने की
अधोगामी यात्रा में
स्त्रीत्व से दूर
होती गयी स्त्री

पुरुष को जब
जरूरत पड़ी
स्त्री की किसी पल,
तब वह
स्त्री देह को ही
स्त्री मानकर
भटकता रहा
एक देह से
दूसरी देह
स्त्री उसे कहीं
नही मिली.

स्त्री को खो देने की
पुरुष की यह
सर्वाधिक बड़ी
हार थी
स्त्री का स्त्री से
छिटक जाना भी
महान दुर्घटना थी
लेकिन दर्ज
नही हुई कहीं.
अनकहा दर्द लिए
स्त्री स्वयं से दूर
जाने की ना जाने
किस मंजिल की यात्रा में
चल रही है अनवरत…!
(चेतना विकास मिशन)

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