मधुकर पवार
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर मैंने बंदरों के दो वीडियो देखे जिससे मुझे दृढ़ विश्वास हो गया कि बंदरों की अनेक आदतें मनुष्यों से मिलती जुलती हैं। पहला वीडियो —- कुछ स्कूली छात्राएं रास्ते में खड़ी थी। उन छात्राओं से कोई पचास मीटर की दूरी पर एक बंदर बैठा था। अचानक वह बंदर उन छात्राओं की ओर दौड़ कर जाता है और पीछे खड़ी एक छात्रा की पीठ पर ज़ोर हाथ मारता है जिससे वह लड़की जमीन पर पाँच –सात फुट दूर जाकर गिर जाती है। वह छात्रा कुछ समझ और उठ पाती कि किसने ज़ोर से धक्का दिया…. जब तक बंदर वहाँ से भाग जाता है। वीडियो में स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि उन छात्राओं ने बंदर को देखा भी नहीं और वे तो उससे काफी दूर खड़ी थीं। छात्राओं ने बंदर से छेड़छाड़ भी नहीं की थी। बिना वजह छात्रा पर हमला …। दूसरा वीडियो— एक व्यक्ति नल के पास बैठा हुआ है और वहीं पर बंदर भी। दोनों को देखकर लगता है, दोनों में दोस्ती है। वह व्यक्ति बंदर के हाथ में कुछ वस्तु देने के लिए हाथ बढ़ाता है।तभी बंदर अचानक उस व्यक्ति के सिर पर हाथ रखता है और ज़ोर – ज़ोर से बाल खींचते हुये चांटा मारने लग जाता है।
इन दोनों घटनाओं को देखकर बचपन के दिन याद आ गए जब बिना किसी द्वेष और कारण के ही अपने सहपाठियों को धक्का देकर भाग जाते थे। कोई छात्र कुर्सी पर बैठ रहा होता था, तभी कुर्सी हटा लेते थे और वह नीचे जमीन पर गिर जाता था। ऐसी अनेक हरकतों की यादें ताजा हो गयीं।
आमतौर पर बंदरों के मनुष्यों को काटने, सामान छुड़ाकर या रखा हुआ सामान लेकर पेड़ पर चढ़ जाने और सामान को फेंकने जैसी घटनाओं के बारे मेँ आए दिन देखते और सुनने को खबरें मिलते रहती हैं। ऐसे अनेक स्थल मिल जाएँगे जहां बंदरों और मनुष्यों के बीच आत्मीय संबंध भी दिखाई देते हैं। कुछ अपवाद स्वरूप मामलों को छोड़ दें तो बंदर मनुष्यों को किसी भी तरह से नुकसान नहीं पहुंचाते। बस दाँत किटकिटाते हुये डराते हैं और मौका मिल जाये तो एकाध झापड़ मारकर भाग जाते हैं। लेकिन इन सब के पीछे केवल यही एक मात्र कारण है कि वे अपने भोजन के लिए हमारे ऊपर निर्भर होने लगे हैं।
वैसे बंदरों की बहुत कुछ आदतें मनुष्य के समान होती हैं। नकल करने मेँ भी बंदर बहुत उस्ताद होते हैं। बचपन मेँ एक कहानी पढ़ी थी जिसमें एक सौदागर अपनी टोपी से भरी टोकनी लेकर एक पेड़ के नीचे सो जाता है। पेड़ पर बैठे बंदर उस टोकनी से पूरी टोपी लेकर पेड़ पर चढ़ जाते हैं। जब सौदागर की नींद खुलती है तब वह देखता है कि है कि बंदर उसकी टोकनी से टोपी लेकर पेड़ के ऊपर ले गए हैं। वह काफी प्रयास करता है लेकिन बंदर टोपी नीचे नहीं फेंकते। सौदागर भी थकहार कर जमीन पर बैठ जाता है और अपनी टोपी को नीचे जमीन पर रख देता है। सौदागर को जमीन पर अपनी टोपी रखते देखकर सभी बंदर भी टोपी जमीन पर फेंक देते हैं और सौदागर टोपियाँ समेटकर गंतव्य को चल देता है।
उपर्युक्त कहानी बताने का मकसद केवल इतना ही है कि बंदरो की आदतें भी मनुष्यों के समान ही होती हैं। और वे भी मनुष्यों के समान ही बदला लेने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते है। कुछ मामलों में तो बंदरों ने मनुष्यों को भी मात दे दी है। मैंने बचपन में एक कुत्ते द्वारा एक बंदर को मारने की घटना के बारे में सुना था। बंदर भी बदला लेने के लिए कुत्ते को घसीट कर ले गए थे। लेकिन हाल ही मेँ आकाशवाणी से प्रसारित एक समाचार सुनकर विश्वास करना ही पड़ा कि बंदरों के मूल स्वभाव में बदला लेना कूट – कूटकर भरा हुआ है । मामला महाराष्ट्र के बीड़ जिले की माजलगांव तहसील के ग्राम लावूल मेँ बंदरों से संबन्धित था। कुछ कुत्तों ने बंदर के एक बच्चे को मार दिया। इसका बदला लेने के लिए तीन बंदर गाँव में आकर कुत्तों के पिल्ले को पकड़कर ऊंचे पेड़ पर या ऊंचे मकान पर ले जाकर नीचे फेंक देते । यह सिलसिला कुछ दिनों तक चलता रहा। काफी मशक्कत के बाद बंदरों को पकड़ा गया तब कुत्तों को बंदरों के आतंक से मुक्ति मिल पाई। मुझे तो लगता है कि जैसे – जैसे समय बदल रहा है, मनुष्यों की बदला लेने की आदतों के समान ही बंदरों की भी आदतें बदल रही हैं। अब बंदर भी मनुष्यों के समान बदला लेने में माहिर हो गए हैं।
बदला लेना मनुष्यों का स्वाभाविक गुण है और बंदरों का भी। बंदरों की हरकतें भी मनुष्यों के समान ही होती हैं। जब कभी भी बंदरों को देखता हूँ तो यह प्रश्न हमेशा कचोटने लग जाता है कि क्या बंदर हमारे पूर्वज थे। लोग कहते हैं शायद थे और अपनी बात को सिद्ध करने के लिए यह भी कहते हैं कि पहले मानव की भी पूंछ हुआ करती थी और जब पूंछ का उपयोग कम होने लगा तो वह विलुप्त हो गई। यह जरा असहज करने वाला तर्क लगता है। वह इसलिए कि यदि बंदर हमारे पूर्वज थे और लाखों वर्षों की जीवन यात्रा के बाद मनुष्यों की पूंछ गायब हो गई तो बंदरों की पूंछ जैसी की तैसी क्यों है ?
डार्विन का सिद्धान्त भी यही कहता है कि मानव के पूर्वज भी पहले बंदर हुआ करते थे. लेकिन कुछ बंदर अलग जगह अलग तरह से रहने लगे । इस कारण धीरे-धीरे जरूरतों के अनुसार उनमें बदलाव आना शुरू हो गए. उनमें आए बदलाव उनकी आगे की पीढ़ी में दिखने लगे, जो बदलते वक्त के साथ और बदली. इस तरह क्रमिक विकास होते-होते बंदर की प्रजाति मानव जाति बन गई.
यदि डार्विन का सिद्धान्त सही है तो अब हमे सतर्क हो जाना चाहिए क्योंकि बंदरों के व्यवहार में बदलाव दिखाई देने लगा है। जंगलों से जब गुजरते हैं तो वन विभाग द्वारा लगाई तख्तियाँ ध्यान आकर्षित करती हैं। वन विभाग आगाह करता है कि वे बंदरों को कुछ भी खाने की वस्तुएं नहीं दे। इसके पीछे एकमात्र कारण यही है कि बंदरों को जब खाने को मिल जाता है तो वे जंगलों में कंद, फल आदि नहीं खाते। इससे उनके मूल स्वभाव में परिवर्तन आ रहा है जो न केवल बंदरों की प्रजाति के लिए बल्कि मनुष्यों के लिए भी अशुभ है। राहगीर अपने साथ बिस्कुट, रोटी, पुड़ियाँ, फल और अन्य खाने की वस्तुएं लेकर जाते हैं तथा बंदरों को देखते ही उनकी ओर उछाल देते हैं। यही कारण है कि बड़ी संख्या में जंगलों के बंदर सड़कों के किनारे मँडराते रहते हैं।
मेरी चिंता केवल इतनी ही है… यदि डार्विन के सिद्धान्त की पुनरावृत्ति होने की आशंका सही हो गई तो….. । क्योंकि बंदरों के व्यवहार और आदतों में बदलाव के संकेत दिखाई दे रहे हैं। हाल ही समाचार पत्रों में पढ़ा… अगली जनगणना 2031 में होगी ।