संजय कनौजिया की कलम”✍️
डॉ० लोहिया का, डॉ० अंबेडकर को लिखा जबाबी पत्र…
प्रिय डॉ० अंबेडकर – हैदराबाद, 01-10-1956
आपके 24 सितम्बर के कृपा पत्र के लिए बहुत धन्यवाद ! हैदराबाद लौटने पर मैंने आज आपका पत्र पढ़ा परन्तु आपके सुझाये समय पर दिल्ली पहुंच सकने पर असमर्थ हूँ !
में उत्तर प्रदेश में अक्टूबर के बीच रहूँगा और आपसे दिल्ली में 19 या 20 अक्टूबर को मिल सकूंगा ! अगर आप 29 अक्टूबर को बम्बई में हो तो मिल सकता हूँ ! कृपया मुझे तार से सूचित करें कि इन तारीखों में कौनसी आपको ठीक रहेगी !
अन्य मित्रों से आपकी सेहत के बारे में जानकार चिंता हुई ! आशा है कि आप आवश्यक सावधानी बरत रहे होंगे ! में अलग से मैनकाइंड के तीन अंक आपको भिजवा रहा हूँ ! विषय का सुझाब देने का मन हो रहा था लेकिन में ऐसा नहीं करूँगा ! मैनकाइंड के तीनो अंक आपको विषय चुनने में मदद करेंगे ! में केवल इतना ही कहूंगा कि हमारे देश में बौद्धिकता निढाल हो चुकी है ! में आशा करता हूँ कि यह वक्ती है और इसलिए आप जैसे लोगों को बिना रुके बोलना जरुरी है !
आपका
राममनोहर लोहिया
डॉ० अंबेडकर का जबाव, डॉ० लोहिया को…
प्रिय डॉ० लोहिया – दिल्ली,
05, 10, 1956
आपका 1 अक्टूबर, 1956 का पत्र संख्या 8821 मिला ! अगर आप 20 अक्टूबर को मुझसे मिलना चाहते हैं तो में दिल्ली में ही रहूँगा ! आपका स्वागत है, समय के लिए टेलीफोन कर लेंगे !
आपका
बी. आर. अंबेडकर
दुर्योग से 5 अक्टूबर के पत्र लिखने के बाद डॉ० अंबेडकर गंभीर बीमार हो गए और 6 दिसम्बर 1956 को उनका परिनिर्वाण हो गया..कहना मुश्किल है कि उस समय अगर लोहिया और अंबेडकर साथ आए होते तो देश की राजनीति पर इसका क्या असर होता..अंबेडकर और लोहिया के बाद उनके अनुयायिओं ने इन दोनों नेताओ के दर्शन को आगे बढ़ाने की बजाए..अंबेडकरवादी और लोहियावादी बनकर ही काम किया और अपने-अपने नेताओं के महिमामंडन तक सीमित रहे..वर्तमान स्थिति को समझते हुए, जहाँ सत्ता पक्ष और विपक्ष के कहे किसी भी वाक्य का जिस प्रकार विवादों में एक दूसरे को घेरने की होड़ लग जाती है या लगा दी जाती है, यह लोकतान्त्रिक प्रणाली की एक महत्वपूर्ण परंपरा रही है, सही और अच्छी व सत्य बातों का भी प्रतिद्वंदी इतनी बारीकी से शल्य कर देते है, कि उसका सीधा असर आम जनता पर पड़ता है..बीसवीं सदी के मध्य में भी समसामायिकों के मध्य यही स्थिति हुआ करती थी..तभी डॉ० अंबेडकर और गांधी या लोहिया-नेहरू या उस दौर के अन्य नेतागण के कहे वक्तव्यों को उनके अपने-अपने अनुयायी, दिशा विहीन कर दिया करते थे..जिसके कारण जनता दिग्भ्रमित हो जाया करती थी और वैचारिक मतभेद उभर आया करते थे..परन्तु इक्कसवीं सदी के शुरुआत से ही..चिंतकों ने, अध्ययनकर्ताओं ने, विद्वान लेखकों ने, या नई पीढ़ी के शोध कर्ताओं ने इस ओर गंभीरता से खोज कर वैचारिक समानताओं पर दस्तावेज तैयार किये, और सिद्ध करना शुरू किया कि डॉ० अंबेडकर और डॉ० लोहिया समकालीन थे..और फिर शनै: शनै: जमीन पर लाना शुरू किया, हालांकि आज भी यह गति शनै: शनै: ही बनी हुई है, इस खोज का मुख्य स्त्रोत 1993 का मुलायम-कांशीराम गठबंधन भी रहा..और 2009 का गठबंधन सिर्फ इसलिए असफल रहा कि अधर्म की राजनीति करने वालो ने इस स्रोत को गंभीरता से ले लिया और इस ओर अध्ययनकर्ताओं और शोध कर्ताओं ने संसाधनों के आभाव में जमीन पर इसकी गति शनै: शनै: ही रखी..शोध दस्तावेजों से यह सिद्ध होना शुरू हुआ कि शब्दों के शाब्दिक अर्थ के बदलने की बाजीगिरी ने वैचारिक सिद्धांत व दिशा की दशा को उलझाकर, देश की राजनीति पर विपरीत प्रभाव ही डाला..!
डॉ० अंबेडकर और डॉ० लोहिया पर एक रिसर्च पेपर को, फारवर्ड प्रेस पोर्टल में, 10 जुलाई, 2017 में पंकज कुमार का प्रकाशित हुआ है, साथियों को उसे जरूर पढ़ना चाहिए..गूगल में दर्ज़ एक महत्वपूर्ण शोध का संक्षिप्त पत्र जिसे एक भारतीय कार्येकर्ता, चुनाव विज्ञानी और राजनीतिज्ञ तथा सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसायटी (सी एस डी एस) के दिल्ली फेलो व विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू जी सी) और शिक्षा के अधिकार पर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के पूर्व सदस्य प्रोफ० योगेंद्र यादव ने, अपने किये शोध द्वारा “अंबेडकर और लोहिया : जाति पर एक संवाद”..इस शोध पत्र के एक बिंदु (वाक्य) को छोड़कर पूरे पत्र ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया..जिसके मुख्य अंश शब्दाश: प्रेषित हैं…
धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है)