अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

*मायाराम सुरजन:व्यक्ति नहीं, पिछली पीढ़ी का अध्याय थे*

Share

कनक तिवारी

मायाराम सुरजन अब नहीं हैं, लेकिन हर वक्त हैं। हमारी पीढ़ी ने उन्हें बाबूजी कहा था। उनका व्यक्तित्व उनकी बढ़ती उम्र के बावजूद तेज़ हवा के झोंके की तरह था। वे जहां जाते, खुशनुमा मौसम बुन देते। कोई सपाटबयानी का बुरा न माने तो यही कहना चाहूंगा कि अखबारनवीस अमूमन ठर्र किस्म के होते हैं। {कुछ अपवादों को छोड़कर} गंभीर बने दीखते रहना, चिंता का लबादा ओढ़े रहना इस देश के पत्रकारों की नीयत और नियति है। 

पत्रकारिता सुनिश्चित व्यवसाय नहीं है। इसमें खतरे हैं, अनिश्चितता उससे ज्यादा है। आर्थिक दुश्चिंताएं इंतजार करना जानती हैं तो मध्यवर्गीय परिवार के काव्यपूतों और श्रमजीवी अखबारनवीसों के लिए शायद उससे भी ज्यादा। मायाराम सुरजन भी अनिश्चितता के हिचकोले खाते नौजवान का नाम था। वर्धा से स्नातकीय पढ़ाई खत्म करने के बाद पत्रकारिता का जोखिम लेकर कलम के सहारे आगे बढ़े। 

मायाराम सुरजन मेरी विनम्र समझ में संस्था हो गए थे। नवभारत, नई दुनिया, देशबंधु, नवीन दुनिया और जाने कितने छोटे-बड़े अखबारों की रीढ़ की हड्डी बने बाबूजी परम्परावादी पत्रकार किसी अर्थ में नहीं थे। उन्होंने दूसरे अखबार मालिकों की तरह सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। देशबंधु ज़्यादा बड़ा अखबार क्यों नहीं बन सकता था? उसमें व्यावसायिकता की अक्ल क्यों नहीं आ पाई? मायाराम सुरजन ने अपने पुत्रों को व्यापारहीनता के गुर भी तो घुट्टी में डालकर पिलाए होंगे। जबलपुर के रिश्ते के कारण मेरी पत्नी को अपनी बेटी मानते थे। सांस्कारिक होने के कारण उसके पैर छूते थे। मुझसे कहते धर्म के लिहाज़ से तुम दामाद हो लेकिन कर्म और छत्तीसगढ़िया होने के लिहाज़ से पुत्र। उनके जीवन भर मुझे डबल रोल निभाना पड़ा। 

मुझे दम्भ है और इसके गवाह भी हैं कि मैं उनसे छूट ले सकता था। ऐसा नहीं है कि मैं उनका कोई घनिष्ठ रिश्तेदार या सहकर्मी रहा हूं। उनसे औरों की घनिष्ठता मेरे बनिस्बत बहुत ज़्यादा रही है। उम्र के फासले के बावजूद बाबूजी से कहता आपको बौद्धिक प्रतिबद्धताओं के कारण ‘न माया मिली और न ही राम,‘ तो वे निरुत्तर होकर हंसते थे। उनकी मुस्कान निश्छल होती थी और मेरी पूरक मुस्कान कुटिल। पितातुल्य उन पर कटाक्ष करने के बाद फिर मैं कहता ‘माया और राम दोनों ने भले आपको छलावा दिया हो बाबूजी लेकिन हैं तो आप सुरजन।‘ उनकी पीढ़ी ने गांधी के तेवर देखे थे और सुभाष बोस की ऊर्जा। मायाराम सुरजन अपना कायिक संसार समेटे अचानक वर्ष के आखिरी दिन पुराने कैलेण्डर के पृष्ठ की तरह चले गए। उस नए साल का सूरज बौद्धिक दुनिया में मनहूस शक्ल लेकर उगा। उस दिन सभी अखबारों के मुख पृष्ठ झुंझलाए हुए थे। 

पांच पुत्रों के पिता ने मध्यप्रदेश में पत्रकारिता की इबारत में हर तरह की मूल्यहीनता के खिलाफ महाभारत के योद्धा की तरह अनथक संघर्ष किया था। प्रदेश के साहित्यकारों के रचनात्मक कर्म की धर्मशाला भी थे मायाराम सुरजन। छोटे से छोटा लेखक उनकी सदाशयता और स्नेह से वंचित नहीं था। बड़े से बड़े साहित्यकार से खौफ नहीं खाना भी उनकी विनयशीलता में शामिल था। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन धीरे धीरे मायाराम सुरजन का समानार्थी बन रहा था। 

मध्यप्रदेश लघु उद्योग निगम के अध्यक्ष के रूप में मेरी नियुक्ति पर प्रदेश में सर्वाधिक खुशी किसी व्यक्ति को हुई थी, तो वे भी मायाराम सुरजन थे। दो मंज़िलें चढ़कर मेरे दफ्तर में सहज चपलता के साथ बार बार आकर मुझसे चुहलबाजी की मुद्रा में बाबूजी अक्सर आते। एक वर्ष दो बार मैंने उनका सम्मान भी मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री से करवाया। दोनों बार वे साफ बच निकलने की तैयारी में थे। सम्मान करवाना उनकी फितरत के खिलाफ था। मुझे दोनों बार उनसे यही कहना पड़ा कि क्या मुझे नाराज करके भी वे मुझसे रिश्ता रख पाएंगे। तब कहीं जाकर बाबूजी एक आज्ञाकारी छात्र की तरह कार्यक्रमों में आए थे। जाने कितनी योजनाओं को हमने एक साथ बैठकर उसी मनहूस 1994 में जन्म दिया, जिस मनहूस बरस ने मायाराम सुरजन को आखिरी नींद ही दे दी। हम लोग व्यस्तता को व्यक्तित्व पर आक्रमण समझते हैं। उसे बहाना बनाकर भी इस्तेमाल करते हैं। इसके बरक्स मायाराम सुरजन के लिए व्यस्तता स्नेहसिक्तता का समानार्थी रही है। व्यस्तता ने उन्हें यायावर की तरह लगातार चलते रहना सिखाया था। 

वैश्य ने गरीबी विरासत में पाई थी। रुपया उन्हें जीवन भर काटता रहा और वे रुपए को। उन्होंने धीरे धीरे अखबार की चुनौतियों में रुपयों के प्रभाव को देखा लेकिन मुद्रा के संस्थागत महत्व से प्रभावित नहीं हुए। देशबंधु ने नए नए प्रयोग रुपया इकट्ठा करने के लिए किए। उनका दरअसल असली मकसद होता जल्दी जल्दी और ज्यादा से ज्यादा रुपया किस तरह खर्च कर दिया जाए। मैं उनसे कहता था कि आपने पिछले जन्म में कोई गड़बड़ की होगी वरना ब्राह्मण वंश के संस्कार और क्षत्रिय वंश के तेवर होने के बावजूद कहां विधाता ने आपको वैश्य कुल में जन्म दिया। इस पर वे खिलखिलाकर हंसते थे और कहते थे कि इस जन्म के कर्म की वजह से अगला जन्म तो शूद्र के यहां लूंगा। बौद्धिक जंग में मायाराम सुरजन ने उन पिछड़े, नामालूम और उपेक्षित प्रश्नों के लिए ही तो संघर्ष किया जो पत्रकारिता के असली पाथेय हैं। उनके नेतृत्व में देशबंधु अनेक उपेक्षित सवालों का अनाथालय बनता गया था। ग्रामीण जीवन के अनगिन सवालों को उठाने का काम भी जिस तरह देशबंधु ने किया, वह बाबूजी के नेतृत्व में अनेक संवाददाताओं से सजी टीम का ही हो सकता था। यही वजह है कि इस क्षेत्र में की गई रिपोर्टिंग के सभी मुख्य पुरस्कार इसी पत्र समूह को मिलते रहे। 

कभी कभी झुंझलाकर कहते भी थे कि मुझे उनसे खुलकर उन मुद्दों पर बात करनी चाहिए जो मुद्दे वे उठा रहे हैं। वे कहते ‘क्या मैंने कोई ठेका ले रखा है और तुम क्या केवल श्रोता हो?‘ कभी कभार वन डे क्रिकेट की शैली में जब मैं अचानक चौके छक्के लगाने की मुद्रा में उनके तर्कों पर टूट पड़ता तो मेरे अकेले श्रोता बनकर मेरी धुंआधार बैटिंग पर ताली बजाने की मुद्रा में समर्थन की स्वीकृति में सिर हिलाते जाते थे। उनकी मुस्कान उस समय इन्द्रधनुषी होती थी। वह एक के बाद सप्त सुरों के आरोह अवरोह की तरह गहराती जाती थी। उनके जाने के बाद मुझे एक ऐसे बुजुर्ग की तलाश रही है जो उनकी तरह हमारी ज़िंदगी के रास्तों की मंज़िलों का पता लिखते हुए मुस्कान के समीकरण लिख सके। आज के ज़माने में खुश करना तो दूर, खुश होना भी दूभर है। मायाराम सुरजन व्यक्ति नहीं, पिछली पीढ़ी का अध्याय थे। अब पाॅकेट बुक्स के ज़माने के हम लोग महाकाव्यों की उन जैसी उदात्तता क्या खाक देख भी पाएंगे? खाक होना ही तो सबकी नियति है। 

Add comment

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें