गत 19 जून, 2024 को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब बिहार के नालंदा जिले के राजगीर प्रखंड के पिलखी गांव में नालंदा विश्वविद्यालय की नवनिर्मित इमारत व परिसर का उद्घाटन कर रहे थे तब उन्होंने इस माैके पर एक भाषण दिया। इस भाषण में कुछ मुख्य बातें रहीं–
“नालंदा सिर्फ एक नाम नहीं है, नालंदा एक पहचान है, एक सम्मान है, एक नैतिक मूल्य है, एक मंत्र है, गौरव है और एक गाथा है।”
“नालंदा भारत की शैक्षणिक विरासत और जीवंत सांस्कृतिक आदान-प्रदान का प्रतीक है।”
“नालंदा केवल भारत के अतीत का पुनर्जागरण नहीं है, बल्कि विश्व और एशिया के कई देशों की विरासत इससे जुड़ी हुई है।”
“मुझे विश्वास है कि नालंदा वैश्विक हित का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनेगा।”
प्रधानमंत्री जब बोल रहे थे तब पार्श्व में नालंदा के खंडहर थे। वही खंडहर जो नालंदा जिले के ही कपटिया गांव में अब भी मौजूद है। हालांकि इस खंडहर की चौहद्दी कुछ ऐसी है कि इसके सटे उत्तर में बड़गांव और सुरजपुर गांव है। इसके दक्षिण में मुजफ्फरपुर और कपटिया गांव है। पूरब में सारिलचक गांव है। इस पूरे इलाके में कुशवाहा, कुर्मी, यादव और दलित जातियों के लोग बहुतायत में हैं। कुछेक गांवों में ऊंची जातियों के लोग भी हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है।
जहां नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना अब की गई है, वह पिलखी गांव में है, जो कि राजगीर के मुख्य शहर से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर है। इस गांव के सामाजिक ताने-बाने के बारे में पूछने पर स्थानीय निवासी सतीश प्रसाद (जो कि स्वयं को कुशवाहा जाति का बताते हैं) का जवाब है कि यहां कुल मिलाकर करीब सौ घर होंगे, जिनमें करीब 40 घर कुशवाहा जाति के लोगों का है। कुछ घर यहां यादवों और राजपूतों के भी हैं। इनके घरों की संख्या दस-पंद्रह होगी। इसके अलावा यहां रजवार (मुसहर) जाति के लोग रहते हैं।
पिलखी गांव की सामाजिक संरचना का वर्णन इसलिए कि यहीं के लोगों से बिहार सरकार ने करीब साढ़े तीन सौ एकड़ जमीन अधिग्रहित किया ताकि विश्व स्तरीय विश्वविद्यालय का निर्माण हो सके और जिसके बारे में प्रधानमंत्री ने भी कहा कि “नालंदा वैश्विक हित का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनेगा”।
स्थानीय लोगों को एक शिकायत यह भी है कि उनकी जमीन ली गई है, लेकिन इस विश्वविद्यालय में उनके लिए कोई स्थान नहीं है। न तो उनको इस विश्वविद्यालय में किसी तरह की नौकरी दी गई है और न ही कोई ऐसा प्रावधान किया गया है कि पिलखी गांव के बच्चों को विश्वविद्यालय में दाखिले में किसी तरह की सुविधा मिले। सबसे अधिक हताश इस गांव के मुसहर जाति के लोग हैं, जिन्हें अब विश्व स्तरीय विश्वविद्यालय के नाम पर अपने गांव से उजाड़ दिया गया है। वे पहले उसी जमीन पर रहते थे, जहां विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ है। पिलखी गांव और विश्वविद्यालय के बीच एक सड़क का फासला है। मतलब यह कि विश्वविद्यालय के ठीक सामने यह गांव है।
खैर, जहां कहीं भी जमीन अधिग्रहण का मामला सामने आता है, लोगों की रोजी-रोटी का सवाल सामने आता ही है। यह अकेले केवल पिलखी गांव की बात नहीं है। वैसे भी यह नालंदा जिला का हिस्सा है, जिसे बिहार के मुख्यमंत्री का गृह जिला कहा जाता है। स्थानीय लोगों के मुताबिक यहां रोजी-रोटी पर संकट का मसला न तो स्थानीय अधिकारियों को नजर आता है और न ही राज्य सरकार को।
दरअसल, वह तारीख थी 28 मार्च, 2006 जब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे कलाम ने बिहार विधानमंडल को संबोधित करते हुए कहा था कि “यह विश्वविद्यालय राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विचारकों के मिलन का स्थान हो सकता है, जहां प्राचीन और आधुनिक सोच के संदर्भ में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अर्थव्यवस्था और आध्यात्मिकता को जोड़नेवाले दर्शन पर ध्यान केंद्रित करते हुए विचारों की एकता पर शोध किया जा सकता है। इस विश्वविद्यालय का ध्यान अपराध, आतंकवाद और युद्ध से मुक्त विश्व के विकास पर हो सकता है। सबसे बढ़कर यह संस्थान सार्वभौमिक विकास और शांति के लिए मानवीय मूल्यों और नैतिकता की भूमिका पर शोध करेगा। इस विश्वविद्यालय को प्रबुद्ध नागरिकों के निर्माण के लिए काम करना चाहिए।”
डॉ. एपीजे कलाम के उपरोक्त संबोधन के बाद 15 जनवरी, 2007 को फिलीपींस में दूसरे दक्षिण-पूर्वी एशिया सम्मेलन और 25 अक्टूबर, 2009 को थाईलैंड में हुए चौथे दक्षिण-पूर्वी एशिया सम्मेलन में सामूहिक रूप से यह निर्णय लिया गया कि बिहार में नालंदा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना हो ताकि बौद्धिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक और अध्यात्मिक अध्ययन को बढ़ावा दिया जा सके।
इसके बाद वर्ष 2010 में डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली केंद्र सरकार ने इस विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए संसद में एक कानून पारित करवाया, जिसे नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम, 2010 के नाम से जाना जाता है। इसके बाद यह केंद्रीय विश्वविद्यालय बना। इसके पहले इस परियोजना को लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने स्वयं पहल की और इस संबंध में राज्य सरकार ने एक प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा, जिसके बारे में तत्काल ही सैद्धांतिक सहमति दे दी गई थी।
खैर, अब ये सब बीती बातें हैं, जिन्हें गत 19 जून, 2024 को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने संक्षेप में दुहराया, हालांकि उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार पर धीमी गति से काम करने का राजनीतिक आरोप भी लगाया और 2014 से केंद्र में सत्तासीन नरेंद्र मोदी सरकार की तारीफ इस मायने में की कि केंद्र सरकार ने तेजी से इस विश्वविद्यालय को पूरा किया। मुख्यमंत्री ने इसमें अपना योगदान भी शामिल करते हुए कहा कि राज्य सरकार ने अपनी तरफ से इस विश्वविद्यालय के लिए करीब साढ़े तीन सौ एकड़ जमीन मुहैया कराया है।
इस विश्वविद्यालय द्वारा सर्टिफिकेट, डिप्लोमा और एमए व पीएचडी पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इनमें हिंदू धर्म को खास तवज्जो दिया गया है। मसलन, इस विश्वविद्यालय ने ‘एमए इन हिंदू स्टडीज’ (सनातन धर्म) पाठ्यक्रम चलाया है। इस कोर्स के बारे में विश्वविद्यालय के आधिकारिक वेबसाइट पर यह जिक्र किया गया है कि इस कोर्स की रूपरेखा विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. सुनैना सिंह ने तैयार की है। इस पाठ्यक्रम का परिचय इस तरह दिया गया है–
“सहस्राब्दी से भी अधिक समय से सिंधु नदी के पार रहने वाले प्राचीन ऋषियों और संतों ने शाश्वत आध्यात्मिक सत्य (सत्य) का सहज बोध प्राप्त किया है। उन्होंने उन मूल सिद्धांतों की कल्पना की जो दुनिया को नियंत्रित करते हैं और प्रत्येक जीवित प्राणी की भौतिक और आध्यात्मिक प्रगति का कारण बनते हैं, जिसे धर्म के रूप में जाना जाता है।
जगत:स्थितिकरणंप्राणिनांसाक्षात्अभ्युदयनि:श्रेयसहेतुर्य: स धर्म:
(शंकराचार्य द्वारा भगवद्गीता पर टिप्पणी से)”
इसे और विस्ताारित करते हुए कहा गया है–
“सनातन धर्म के नाम से जाने जाने वाले मूल और शाश्वत सिद्धांत, भारतीय सभ्यता की शक्तिशाली इमारत, विभिन्न ज्ञान परंपराओं और प्रथाओं के माध्यम से मौखिक और शाब्दिक, दोनों रूपों में प्रकट और प्रसारित होती है। ऐसी समृद्ध मौखिक और साथ ही शाब्दिक परंपराओं और प्रथाओं का अध्ययन हिंदू अध्ययन का मूल है।”
नालंदा विश्वविद्यालय के आधिकारिक वेबसाइट पर प्रदर्शित विभिन्न कार्यक्रमों की तस्वीरें यह बताती हैं कि यहां आरएसएस से जुड़े राम माधव जैसे लोगों की सक्रियता रहती है। वहीं विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 2019-20 में जारी वार्षिक रिपोर्ट में हिंदू धर्म से संबंधित एमएम और पीएचडी कोर्स की जानकारी उल्लेखित नहीं है।
खैर, विश्वविद्यालय के आधिकारिक वेबसाइट पर इस पाठ्यक्रम के विषयों की चर्चा की गई है, जिनमें शामिल हैं– वेदों का परिचय : ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, प्रमुख एवं लघु उपनिषदों का परिचय, इतिहास ग्रंथों का परिचय : रामायण और महाभारत, पुराण ग्रंथों का परिचय : विष्णु पुराण और अग्नि पुराण, हिंदू दर्शन में नैतिकता, हिंदू दर्शन के मूल सिद्धांत, भगवद्गीता और ‘आत्म’ की समझ, पुरुषार्थ : मानव जीवन के लक्ष्य, पतंजलि का योगसूत्र : सिद्धांत और अभ्यास, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का अध्ययन (प्रथम अध्याय), प्रमुख उपनिषदों के मूल सिद्धांत : छांदोग्य उपनिषद और बृहदारण्यक उपनिषद, प्राचीन ज्ञान परंपरा, भाषा दर्शन : महाभाष्य और वाक्यपदीयम् का परिचय, पंचतंत्र का अध्ययन, सर्वोच्च जागृति के कवि एवं दार्शनिक, ज्ञान के कैप्सूल : सूत्र, वार्तिक और भाष्य (टिप्पणी), स्मृति ग्रंथों का अध्ययन : याज्ञवल्क्य स्मृति, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य और सदानंद के साथ वेदांत दर्शन का अध्ययन, संस्कृत भाषा में निपुणता, सेमिनार कोर्स, निबंध आदि।
नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम-2010 के प्रावधानों के मुताबिक इस विश्वविद्यालय के शासी निकाय में राज्य सरकार के दो प्रतिनिधि शामिल होते हैं। इनमें से एक अंजनी कुमार सिंह भी हैं, जो बिहार के पूर्व मुख्य सचिव हैं तथा वर्तमान में मुख्यमंत्री के परामर्शी सचिव हैं। दूरभाष पर फारवर्ड प्रेस से बातचीत में इसकी पुष्टि करते हुए अंजनी कुमार सिंह ने कहा कि वे विश्वविद्यालय के शासी निकाय के सदस्य हैं। इस निकाय के बारे में उन्होंने कहा– “विश्वविद्यालय की जो गवर्निंग बॉडी है, वह मुख्य रूप से पॉलिसी, बजट, स्ट्रेटेजी और सब मिलाकर जो कुछ भी होता है, उसके ऊपर फोकस करती है। अन्य कामों के लिए विश्वविद्यालय की अलग-अलग कमेटियां हैं। जैसे एकेडमिक कमेटी है जो पाठ्यक्रम तय करती है। ऐसे ही इंफ्रास्ट्रक्चर कमेटी है, वह इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधी कामों को देखती है। इस तरह विश्वविद्यालय सिस्टम में अलग-अलग कमेटियां होती हैं, जो प्लान बनाती हैं, और उन्हें एक्जिक्यूट करवाती हैं। लेकिन जब कोई नया चीज स्थापित करना है, जैसे कोई नए स्कूल का गठन किया जाना है, कोई नया विषय पढ़ाया जाना है, फंडिंग से जुड़ा कोई सवाल हो, या किसी चीज के लिए बजट स्वीकार किया जाना है तो इस तरह के जो महत्वपूर्ण कार्य हैं, वे गवर्निंग बोर्ड के पास आता है। बाकी जो काम होते हैं वे सीधे वाइस चांसलर के अधीन होते हैं।”
यह पूछे जाने पर कि विश्वविद्यालय में हिंदू धर्म से जुड़े पाठ्यक्रमों को बढ़ावा दिया जा रहा है और इसमें बौद्ध धर्म से जुड़े विषय भी हैं, तो इस्लाम, ईसाई, सिक्ख और जैन धर्म आदि से जुड़े विषय क्यों नहीं हैं, अंजनी कुमार सिंह ने कहा– “मैं नहीं जानता कि फैक्ट क्या है। यह जो नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है, वह पुराने नालंदा विश्वविद्यालय के पैटर्न पर आधारित है। इसलिए बौद्ध धर्म के बारे में तो यहां पढ़ाना ही था, जो उस समय बहुत इम्पोर्टेंट था। यह इसलिए भी कि यह साउथ एशियन देशों के संयुक्त पहल से इसकी स्थापना हुई है, इसलिए अन्य देशों के साथ जो हमारे देश भारत को जाेड़ता है, वह बौद्ध धर्म ही है। इसलिए बुद्धिज्म और हिंदुइज्म अभी लिया गया हो। हो सकता है कि बाद में अन्य धर्मों के विषयों को भी शामिल किया जाय। मुझे इसका डिटेल मालूम नहीं है।”
वे यह स्वीकार करते हैं कि विश्वविद्यालय में कौन से विषय पढ़ाए जाएंगे, इसके फैसले में शासी निकाय के सदस्य शामिल होते हैं। यह संकेत देता है कि नालंदा विश्वविद्यालय में क्या पढ़ाया जा रहा है और क्या नहीं पढ़ाया जा रहा, इसकी जानकारी शासी निकाय में राज्य सरकार के दो प्रतिनिधियों, जिनमें एक अंजनी कुमार सिंह भी शामिल हैं, के जरिए राज्य सरकार को रहती है।
खैर, नालंदा विश्वविद्यालय में हिंदू धर्म को प्राथमिकता के आधार पर पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ाए जाने के संबंध में पूछने पर प्रख्यात भाषाविद् और बौद्ध धर्म विशेषज्ञ प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह कहते हैं– “सबसे पहला सवाल तो यही है कि विश्वविद्यालय का लोगो (प्रतीक चिह्न) क्या है। चूंकि नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध धर्म की शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र रहा था, जिसमें देश-विदेश के छात्र पढ़ने आया करते थे। जहां तक हिंदू धर्म के विषय पढ़ाए जाने का सवाल है तो यह देखा जाना चाहिए कि विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म व अन्य धर्मों को लेकर किस तरह का रवैया अख्तियार किया गया है।”
फारवर्ड प्रेस से बातचीत में प्रो. सिंह कहते हैं– “हाल ही में मैं नेपाल गया था। वहां एक बौद्ध विश्वविद्यालय में गया था। वहां की आधारभूत संरचना से लेकर तमाम विषय बौद्ध धर्म से संबंधित थे।”