गाँव से शहर तक : ज़िंदगी हर दिन नया पाठ पढ़ाती है

- तेजपाल सिंह ‘तेज’
(वरिष्ठ कवि/लेखक/आलोचक तेजपाल सिंह तेज एक बैंकर रहे हैं। वे साहित्यिक क्षेत्र में एक प्रमुख
लेखक, कवि और ग़ज़लकार के रूप ख्याति लब्ध हैं। उनके जीवन में ऐसी अनेक कहानियां हैं जिन्होंने उनको जीना सिखाया। उनके जीवन में अनेक ऐसे यादगार पल थे, जिनको शब्द देने का उनका ये एक अनूठा प्रयास है। उन्होंने एक दलित के रूप में समाज में व्याप्त गैर-बराबरी और भेदभाव को भी महसूस किया और उसे अपने साहित्य में भी उकेरा है।
वह अपनी प्रोफेशनल मान्यताओं और सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहे हैं। इस लेख में उन्होंने अपने जीवन केकुछ उन खट्टे-मीठे अनुभवों का उल्लेख किया है, जो अलग-अलग समय की अलग-अलग घटनाओं पर आधारित हैं। अबतक उनकी विविध विधाओं में लगभग तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार (1995-96) तथा साहित्यकार सम्मान (2006-2007) से भी आप सम्मानित किए जा चुके हैं। अगस्त 2009 में भारतीय स्टेट बैंक से उपप्रबंधक पद से सेवा निवृत्त होकर आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।)
दो दिवसीय प्रथम अन्तराष्ट्रीय दलित साहित्यकार सम्मेलन चंडीगढ़ – 2001
जैसे-जैसे दलितों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो रहा है वैसे-वैसे समाज में जागृति आ रही है।परिणामस्वरूप,दलित/बहुजन जातियों में सामाजिक/ धार्मिक/ राजनीतिक तथा साहित्यिक संगठनों की बाढ़ सी आती जा रही है। मौजूदा संदर्भ में हमारा फोकससाहित्य और इसके संवाहक साहित्य संगठनों को केन्द्र में रखकर अपनी चर्चा का आगे बढ़ाना है। विदित हो कि दलितों के सामाजिक परिवर्तन की दिशा में निरंतर बढ़ते कदमों के साथ-साथ दलितों द्वारा रचित साहित्य का दिनों-दिन निखरना भी स्वाभाविक है। दलित-साहित्य के लगातार बदलते तेवर के किस्से आजकल कहीं न कहीं, किसी न किसी पत्र-पत्रिका में पढ़ने को मिलते ही रहते हैं। आजकल दलित साहित्य , अम्बेडकर साहित्य,बहुजन साहित्य, मूलनिवासी साहित्य आदि को केंद्र में रखकर अनेक पत्रिकाएं भी प्रकाशित की जा रही हैं। कुछ अपनीनिर्बाध गति से चल रही हैं और कुछ बीच में दम तोड़ गई हैं। इतना ही नहीं, नित्य-प्रति कहीं न कहीं दलित-साहित्य कोलेकर अलग-अलग विषयों पर विभिन्न संस्थाओं द्वारा क्रमवार गोष्ठियाँ होती नज़र आती हैं। इतना परिवर्तन जरूर हुआ है कि साक्षात बैठकों की अपेक्षा आजकल डिजिटल मीडिया की बदौलत ऑन लाइन बैठकों का चलन काफी बढ़ गया है।
डिजिटल मीडिया की बदौलत ही आजकल इन गोष्ठियों की रिर्पोट भी रोज किसी न किसी डिजिटल प्लेटफार्म
पर पढ़ने को मिल जाती हैं। इससे साहित्यकारों का समय और ऊर्जा दोनों बचते हैं। लेकिन जहां एक ओर इसके अनेकफायदे हैं वहीं साक्षात बैठकों के अभाव परेशान करता है। जाहिर है, साक्षात बैठकें साहित्य, समाज और निजता से जुड़ेअनेक मसलों को आपसी साक्षात चर्चा का जो अवसर प्रदान करती हैं, उसकी पूर्ति डिजिटल मीडिया/माध्यम कभी पूरानहीं कर सकता। अगर यह कहा जाए कि डिजिटल मीडिया के चलते साहित्य जगत में एक अजीब-सा रूखापन देखने का मिलता है। इसके चलते साहित्य प्रेमियों और साहित्यकारों में आपसी दूरियां बढ़ना एक बड़ी समस्या के रूप में हमारे सामने उपस्थित है। इस डिजिटल मीडिया/माध्यम के युग में मेरी स्मृति का काफिला मुझे साक्षात बैठकों के एक विस्मरणीय सम्मेलन जो चंडीगढ़ में हुआ था, की ओर आकर्षित करता है और इसकी यादों को पाठकों से साझा करने को विवश करता है।
यह दो दिवसीय प्रथमअन्तर्राष्ट्रीय दलित साहित्यकार सम्मेलन 26 जनवरी 2001 शुरू हुआ और दो
दिन तक चला। यह उल्लेखनीय हकीकत है कि यह सम्मेलन डा० अम्बेडकर स्टडी सर्कल, सेक्टर 37-
ए, चंडीगढ़-160036,में आयोजित किया गया था। इस स्टडी सर्कल में जहां एक ओर ठहरने की
शानदार व्यवस्था थी, वही दूसरी ओर एक विशाल और सभी आधुनिक सुविधाओं से लैस कांफ्रेस
हाल था। यह हाल एक हजार प्रतिभागी व श्रोताओं को बिना किसी असुविधा के समायोजित कर
सकता था और इसने बखूबी किया भी।यह सम्मेलन विभिन्न समसामयिक विषयों में विभाजित था
जो दलित जीवन के उपयुक्त मूल्यांकन करने और प्रगति के संबंध में निर्णायक दिशा देने में सक्षम थे।
देश/विदेश के अनेक कवियों/लेखकों/आलोचकों/विद्वानों ने विशेष रूप से आयोजित सम्मेलन/ कविता
पाठ सत्र में बढ़ चढ़कर भाग लिया और इसे यादगार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
इस सम्मेलन में भाग लेने वालों में कुछेक साहित्यकारों में सर्वश्री मोहनदास नैमिशराय, बुद्ध शरण हंस,
चमन लाल , डा. सुशीला टाकभौरे, समाजशास्त्री सुन्दर लाल, रघुवीर सिंह, महिला आन्दोलन सेजुड़ी
श्रीमती रजनी तिलक, हिन्दी साहित्यके जाने माने समीक्षक के एल बालू, अपेक्षा पत्रिका के संपादक
डा. तेज सिंह, लेखक/ आलोचकईश कुमार गंगानिया, शिव नाथ शीलबोधि, अशोक भारती
(आस्ट्रेलिया), उदय परमार (नेपाल),डा. शत्रुघ्नकुमार (रोमानिया) स्टीफन गिल (कनाडा), भंते
माननीय मन्तरा (थाईलैंड) तथाकार्यक्रम के चीफ संयोजकडा. कुसुम ‘वियोगी’ आदि अनेक
साहित्यकारों ने अपने-अपने मत देकर साहित्य को समृद्ध किया।कला एवं सांस्कृतिक प्रदर्शनी के लिए
Alternative Dalit Media (कदम) का मुकेश मानस और रजनी तिलक के द्वारा पोस्टर प्रदर्शनी द्वारा
सबको रूबरू करवाया।दो दिवसीय प्रथमअन्तर्राष्ट्रीय दलित साहित्यकार सम्मेलनका एक मुख्य
आकर्षण दलित कवियों का कवितापाठ रहा। काव्य पाठ के इस सम्मेलन का मंच संचलन स्वयं मैंने (
तेजपाल सिंह ‘तेज’) किया।
सम्मेलन में पधारे सभी अतिथि गणों के रहने व खाने सुव्यवस्था इन्द्रराज, वरिष्ठ उपाध्यक्ष स्टडी
सर्कल, श्री बी. एस. लमधारियाउपाध्यक्ष, श्री एम आर भाटिया महासचिव, चौ.धनसिंह, जे. पी. सिंह
व श्री टेक चन्द कोषाध्यक्ष,श्री शान्ति राम ‘आनन्द’ संगठन सचिव, एडवोकेट अनिल लमधारिया युवा
कार्यकारिणी सदस्य,जीत सिंह चौकीदार, महेन्द्र सिंह सफाई कर्मचारी एवं डा. अम्बेडकर भवन के
प्रबंधक दादा श्रीबलवंत सिंह की देखरेख में की गयी थी।
यह साझा करते हुए अपार खुशी की अनुभूति हो रही है कि डा० अम्बेडकर स्टडी सर्कल, सेक्टर 37-ए,
चण्डीगढ़-160036 में बने सम्मानित बुद्ध विहार का भवन बहुत भी भव्य और विशाल बना हुआ है।
पूजा स्थल, पेंटरी तथा रिहायशी कमरों की व्यवस्था एक दूसरे से हटकर अलग-अलग इस प्रकार से
बनाए गए हैं कि किसी को किसी प्रकार की असुविधा न हो। चंडीगढ़ विहार करने वाले पर्यटकों के रहने
के लिए एक डॉरमेटरी की भी व्यवस्था है।
इस सम्मेलन का जिक्र इसलिए करना जरूरी है कि कार्यक्रम के दौरान जो खास बात हुई वह मेरे लिए
केवल विशिष्ट ही नहीं अपितु स्मरणीय भी है। सम्मेलन के दूसरे दिन प्रथम सत्र में कवि सम्मेलन की व्यवस्था थी। उसका संचालन भी मेरे ही हाथ में था। मंच संचालन के लिए किसी सहयोगी की व्यवस्था
भी नहीं थी। जाहिर है खड़े-खड़े मेरी टांगे जैसे कीर्तन करने लगी थीं। कवियों की इतनी बड़ी थी कि
कवियों को आमंत्रित करने में बड़ी ही असुविधा हो रही थी। कुछेक लोग ऐसे भी थे जो अपना नम्बर
लंच से पहले लगाने के लिए मुझ पर विविध प्रकार से दवाब बना रहे थे तो इस हड़बड़ी कुछ के नाम
बोलने से रह जाने का संदेह भी बना ही रहता था। इतने पर भी कार्यक्रम सुचारू रूप से चल रहा था।
लंच के बाद का सत्र अब शुरू हो चुका था। कुछ कवि अपना-अपना कविता पाठ कर भी चुके थे। जैसे
ही मैंने अगले कवि को कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया तो सभागार से एक आवाज उभरी कि क्या
हम यहाँ आलू छिलने के लिए बुलाए गए हैं जो मेरा नाम अभी तक भी नहीं पुकारा गया जबकि मेरी
बारी इनसे पहले थी। इतना सुनकर मैं चौंका तो अवश्य किंतु मैंने उनसे नाम पूछा तो उन्होंने चेहरे पर
गुस्सा समेटे अपना नाम “ ईश कुमार गंगानिया” बताया। प्रत्युत्तर में मैंने उन्हें बताया कि मैं आपका
नाम दो बार पुकार चुका हूँ …हो सकता है कि आप बाहर घूम रहे हों। किंतु उन्होंने मेरी बात से
असहमति दर्ज कराई। खैर! मैंने मंच से ही उनसे क्षमा याचना की और उन्हें कविता पाठ के लिए
आमंत्रित किया। उन्होंने अपना कविता पाठ किया और मामला शांत हो गया। थोड़ी देर बाद महिला
कवि सम्मेलन शुरू होना था। अब तक मैं थक भी गया था सो मैंने महिला कवि सम्मेलन का संचालन
का काम रजनी तिलक जी को सौंप दिया और मंच के नीचे यानि कि सभागार में जाकर बैठ गया।
अब मेरे दिमाग में गंगानिया जी के उग्र व्यवहार को लेकर कई प्रकार के विचार उमड़ने-घुमड़ने लगे।
नकारात्मक भी और सकारात्मक भी। लेकिन बाद में मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि उनके व्यवहार के
नकारात्मक पर सकारात्मक पक्ष भारी पड़ गया। वह इसलिए कि उन्होंने अपने अधिकार को पाने के
लिए जिस प्रकार से व्यवहार किया, सभी को अपने अधिकार को पाने के लिए, यदि जरूरत पड़े तो,
वैसा व्यवहार ही करना चाहिए। अम्बेडकरी विचारधारा अपने हकों को प्राप्त करने के लिए ऐसे ही
आवाज उठाने का आह्वान करती है। उनसे मेरा पहले से कोई परिचय नहीं था। किंतु अब उनके करीब
आने की जिज्ञासा ने जन्म जरूर लिया। इसी सम्मेलन में शिव नाथ शीलबोधि से भी मेरा संकेतात्मक
परिचय हुआ। खैर! इस दो दिवसीय सम्मेलन के बाद सब अपने-अपने गंतव्य के ओर रवाना हो चले
और जाहिर है, मैं भी अपनी सुखद अनुभूतियों के साथ घर लौट आया।
दिल्ली वापिस आने के बाद जो करिश्मा हुआ, उसे कैसे बताऊँ, कुछ समझ नहीं पा रहा हूं क्योंकि
लाख कोशिशों के बावजूद, मेरी स्मृति मेरा साथ नहीं दे रही है। खैर! हुआ यूँ कि मैं, गंगानिया जी और
शीलबोधि जी कब और कैसे एक दूसरे के इतने करीब आ गए कि आज एक दूसरे को अलग-अलग करके
देखना, मेरे लिए जैसे परीक्षा की घड़ी है। डा. तेज सिंह और डा. कुसुम वियोगी जी से तो मेरी पहले ही
जान पहचान थी। दरअसल डा. कुसुम वियोगी जी ने ही डा. तेज सिंह से मुझे अपने ही घर पर
मुलाकात कराई थी। साहित्यिक गोष्ठियों में आने-जाने से जान-पहचान अंतरंगता में बदल गई और इस
तरह हमारा साहित्यिक सफर भी बराबर बढ़ता चला गया।
समय गुजरने के साथ-साथ खास बात ये हुई कि ईश कुमार गंगानिया जी और मैं साहित्यिक गोष्ठियों
में अक्सर साथ-साथ आते-जाते रहे। हम दोनों का ये साहित्यिक प्रेम घर के चूल्हे तक पहुँच गया। यदि
ये कहूँ कि साहित्यिक मित्रता जैसे पारिवारिक संबंधों में बदल गई। शिव नाथ शीलबोधि भी इस यात्रामें मेरा सहचर रहा। उसका भी निजता का भाव प्रबल होता चला गया। जो कुछ भी हम लिखते-पढ़ते
एक दूसरे से साझा करते और किसी अंतिम निर्णय पर पहुँचने का उपक्रम करते रहे। यही अवस्था आज
भी उसी सघनता और अपनेपन के भाव से निरंतर बनी हुई है।
उल्लेखनीय है कि मेरी निरंतर सघन रुग्णता के चलते अभी भी ईश कुमार गंगानिया जी और
शीलबोधिजी ने मेरी साहित्यिक प्रवृत्ति को मरने नहीं दिया और अप्रत्याशित मुलाकातों के जरिए मुझे
मानसिक बल और शारीरिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में एक उत्प्रेरक का काम करटाई रहते हैं। इतना
ही नहीं, हमारे एक दूसरे से जैसे घनिष्ठ घरेलू संबंध बन गए हैं। 2012 में जब मैं मृत्यु के दरवाजे पर
दस्तक दे रहा था, इनके आत्मीय प्रेम ने जैसे मुझे मृत्यु के मुंह से निकाल कर शैने-शैने मेरी साहित्यिक
गतिविधियों को फिर से जिंदा कर दिया। उनका यह सहयोग आज भी जस का तस बरकरार है।
इससे पूर्व जब मैं और गंगानिया जी ‘अपेक्षा’के संपादक डा. तेज सिंह के साथ उप-संपादक के रूप से
जुड़े हुए थे, तब मेरे अंदर का ग़जलकार रफ्ता-रफ्ता एक गद्यकार बनने के दिशा में अग्रसर हो गया।
सामाजिक / धार्मिक / राजनैतिक स्थितियों से जुड़े समकालीन विषयों पर आलोचनात्मक और
प्रतिक्रियात्मक आलेख लेखन करने कई दिशा में बढ़ गया। मेरे इस लेखन को अम्बेडकरी पत्रकारिता के
फ्रेम में रखकर भी देखा जा सकता है।
यथोक्त के आलोक में मुझे आशा है कि हमारे जगत के तमाम साहित्यकार मिलजुलकर बिना किसी
जातीय विभेद के अपने समाज को साहित्यिक विचारधारा के जरिए परंपरागत विसंगतियों को
भुलाकर एक होने का प्रमाण प्रस्तुत करेंगे। बेशक कितने ही अलग-अलग मंच बना रखे हों, किंतु जब-
जब भी कोई सामान्य मुद्दा एकता की मांगे करे तो तमाम के तमाम मंचों को उस मुद्दे के खिलाफ एक
मंच पर आ जाना चाहिए। वैसे ही ब्राह्मणवादी सोच ने हमारे समाज को विभिन्न वर्गों/जातियों में बांट
रखा है, इसलिए हम सब को एक होकर इस साजिश का मुकाबला करना चाहिए।
डा. तेज सिंह के निधन के बाद ‘अपेक्षा’ (पत्रिका)
एक समय ऐसा आया कि जब कुछ अप्रत्याशित कारणों के चलते मैंने और गंगानिया जी ने अपेक्षा (पत्रिका) के
उप-संपादक पद से त्याग पत्र दे दिया। ऐसा क्यों हुआ, यह विषय मुझे मेरी नैतिकता की सीमाओं में कैद रहने को विवश करता है इस सीमा का सम्मान करता हूं। यह अलग बात है कि अपेक्षा निरंतर हिचकोले खाती रही और जैसे-तैसेअपनी यात्रा पूरी करती रही। दुखद है कि जुलाई 2016 में डा. तेज सिंह का असामयिक निधन हो गया। तब मैंने डा. तेज सिंह के विषय एक लेख लिखा था “ डा. तेज सिंह : यादों में कुछ-कुछ यूं भी”, जिसका एक संक्षिप्त अंश कुछ इस प्रकार है –
“हिंदी के ख्यात आलोचक और अंबेडकरवादी साहित्य के मूर्धन्य प्रवक्ता तथा ‘अपेक्षा’ त्रैमासिक पत्रिका के संपादक डा. तेज सिंह ने हिन्दी साहित्य को अपनी तमाम आलोचनात्मक कृतियों से समृद्ध किया। उन्होंने अनेक मौलिक और संपादित पुस्तकें देकर विभिन्न प्रकार से अस्मिता विमर्श को ही जन्म नहीं दिया अपितु परम्परागत भाव धारा के विपरीत दलित आंदोलन को एक नया और निरंतर गतिमान रहने वाला वैज्ञानिक आवेग दिया। खैर! चाहे जैसी भी स्थितियां रही हों, डा. तेज सिंह द्वारा अम्बेडकरवादी साहित्य के प्रचार-प्रसार के प्रति दिए गए बहुमूल्य योगदान को किसी भी हालत में भुलाया नहीं जा सकता। डा. तेजसिंह बाबा साहब की तरह जातिविहीन व वर्गविहीन समाज की बात करते हैं लेकिन वर्ग की अपेक्षा वे जातिविहीन समाज की अवधारणा पर अधिक फोकस करते नजर आते हैं। लेकिन वे इस बात से बेहद आहत रहे हैं कि तथाकथित दलित लेखक अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करने, इन पर गर्व करने और जातीय चेतना पर जोर देते हैं। उन्होंने निरंतर इसका विरोध किया क्योंकि वे मानते थे कि जातिवाद अम्बेडकरवाद के मार्ग में सबसे बड़ा शत्रु है। डा. तेजसिंह सवाल उठाते हैं कि अधिकांश दलित लेखक अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करने का नारा लगाकर जातिवादी बनते जा रहे हैं।…इन्होंने दलित साहित्य में भी उत्पीड़न, शोषण-दमन, अत्याचार, असहायता, दीन-हीनता और दुख-दरिद्रता का इतना रोना-धोना किया कि दलित समाज खुद हीनताबोध का शिकार हो
गया। यहाँ मेरा मानना है कि अभी भी देर नहीं हुई है। यदि अब भी हम डा. तेज सिंह के स्तर पर जाने-अनजाने पैदा हो गई स्थिति से सबक लेकर और तमाम विकृत अवधारणाओं को भुलाकर आपस में मिल बैठते हैं और उनकी साहित्यिक मुहिम को अंजाम तक ले जाते हैं तो यही डा. तेज सिंह के लिए सच्ची श्रद्धांजली होगी।“
यथोक्त के आलोक में, हर्ष की बात है कि डा. तेज सिंह के निधन के बाद ‘अपेक्षा’ के पर्याय के रूप में दिल्ली में
कवि/आलोचक व उपन्यासकार ईश कुमार गंगानिया के संपादन में ‘समय संज्ञान’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया गया जो निर्बाध गति से निरंतर चल रहा है। ‘समय संज्ञान’ के संपादक मंडल में साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता शीलबोधि, प्रो. रामचंद्र, डा. रजनी दिसोदिया, डा. रजनी अनुरागी, डा. सुनील मांडीवाल, डा. राजेश कुमार जैसे कई और अम्बेडकरी वैचारिकी के धनी साहित्यकार शामिल हैं, जिनका अथक प्रयास और सामाजिक/राजनीतिक/धार्मिक चिंतन पत्रिका को इस रूप में बनाए रखेगा और यह सामाजिक हथकड़ियों को तोड़ने का काम करेगा। जरूरत है तो बस!
आपस में सामंजस्य और हाथ से हाथ मिलाकर चलने की। ‘समय संज्ञान’ की टैग लाइन में ही उल्लिखित है
“अम्बेडकरवादी वैचारिकी का संवाहक”। यदि यहां यह उल्लेख न किया जाए कि पत्रिका के परामर्श मंडल में माननीय जयप्रकाश कर्दम, प्रो. चौथीराम, श्यामलाल, ए. अच्युअतन, वासुदेव सुनानी व रोजीना अंसारी जैसे प्रबुद्ध साहित्यकार शामिल हैं, तो मेरी बात अधूरी रह जाएगी।
चंडीगढ़ : जब मैं अपने साहित्यिक उत्प्रेरक माननीय ए.पी.एन. पंकज से मिला चंडीगढ़ सम्मेलन के अन्तिम दिन उत्तरार्ध में मेरा मन किया कि स्टेट बैंक ओफ इंडिया, दिल्ली आँचलिक कार्यालय में उप-महाप्रबंधक रहे माननीय ए.पी.एन. पंकज (सेवा निवृत्त) से मिलने का मेरा मन किया। सो मैं राजेश हरित जी को साथ लेकर चंडीगढ़ स्थित उनके निवास पर उनसे मिलने गए। मैंने उनके आवास की डोर बैल बजाई तो देखा कि पंकज जी ने ऊपर से ही नीचे देखकर हमें रिसीव करने के भाव से खुद ही सीढ़ियों से नीचे आ गए। उनके चेहेरे की चमक साफ-साफ बता रही थी कि उन्हें मेरा उनसे मिलने के लिए आना बहुत ही सुखद भावना दर्शा रही थी। हम
उनके साथ उनके फ्लेट में गए और स्वागत कक्ष मे बैठ गए। बैठते ही हम बातों में मशगूल हो गए। ….पंकज जी अचानक उठे और बोले,’ अरे! मैं तो बातों-बातों में पानी तक लाना भूल गया। वे उठे और पानी के साथ ही चाय भी ले आए। मैं अपने साथ उनकों देने के लिए कुछ किताबें भी ले गया था। किताबें उनको जैसे ही थमाईं, उन्होंने अपनी पत्नी को भी स्वागत कक्ष में बुला लिया। उनके हालचाल देखकर लग रहा था कि शायद उनकी तबियत कुछ ठीक नहीं थी। पंकज जी नें पहले तो उन्हें मेरा परिचय कराया और फिर कुछ सांस खींचकर कहा कि पर हमारे बैंक ऐसे लोगों उतनी कदर नहीं की जाती, जितनी की जानी चाहिए। हम उनके साथ लगभग आधा-पौना घंटा रहे किंतु बातचीत कुछ पता ही नहीं चला कि समय कैसे इतनी जल्दी गुजर गया। साहित्यिक बात करते-करते उन्होंने मुझसे कहा, तेज भाई! हम तो मानस पुत्र होकर ही रह गए कितु तुम अपने लेखन में समाज के प्रति अपनी ईमानदारी को बनाए रखना।
ज्यादा देर रुकना मुझे खुद नहीं भा रहा था क्योंकि उन दिनों लातूर में भूचाल आया हुआ था और उनकी बेटी
जो उन दिनों आज तक टी वी चैनल में समाचार वाचक थी, लातूर में फंसी हुई थी। संचार सिस्टम बाधित होने के कारण पंकज जी अपनी बेटी से बात नहीं कर पा रहे थे। इस बात को लेकर उनके चेहेरे पर पीड़ा साफ झलक रही थी। इसलिए हमने ज्यादा देर रुकना उचित नहीं समझा। यह भी बतादूँ कि पंकज जी उच्च श्रेणी के गीतकार थे और उन दिनों वे ‘रामायण’ को लेकर ‘चाचा चौधरी’ जैसे कामिक्स लिखने कम कर रहे थे।
यह भी कि साहित्य में उनकी रुचि के चलते उनके दिल्ली में नियुक्ति के दौरान मुझे सहायक प्रबंधक होते हुए भी राजभाषा अनुभाग का इंचार्ज बना दिया जबकि वह पद प्रबंधक के लिए होता है। राजभाषा अनुभाग में रहते हुए माननीय पंकज जी के संरक्षण में ‘ स्टेट बैंक साहित्य मंच’ की स्थापना की और इसके माध्यम से बैंक में कार्यरत नवोदित कवियों की कविताओं के दो संकलन प्रकशित किए– (1) सृजन के पथ पर और (2) धूप ओसारे चढ़ी |
गौरी तुम इस तरह कैसे जा सकती हो?
मैं 28.01.2001 को जब चंडीगढ़ सम्मेलन से दिल्ली वापस अपने घर पर आया तो पता चला कि वर्षों से
खेलने- खिलाने वाली घर भर की प्यारी ‘गौरी’ का 26.01.2001 को जीवन से आजादी मिल गई थी। पाठकों को
जिसकी पूरी जानकारी गौरी की मृत्यु के बाद मेरी बेटी नीलिमा भारती द्वारा लिखित इस कहानी से मिलती है। जिसका शीर्षक था – ‘गौरी तुम इस तरह कैसे जा सकती हो?’
“अतीत के सागर में कुछ यादों की लहरें लेने लगीं तो आज गौरी की याद आ गई। जीवन में कई व्यक्तित्व कुछ
ऐसी छाप छोड़ जाते हैं जिनसे शायद मृत्यु के समय ही पीछा छुड़ाया जा सकता है। गौरी भी उन्हीं में से एक है, मुझे आज भी याद है कि जब पहली बार उसने हमारे घर में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। 1997 का अगस्त महीना था। मैं छ्त पर खड़ी-खड़ी आकाश में उड़ती हुई रंग-बिरंगी पतंगे देख रही थी। गौरी के चिल्लाने की आवाजें नीचे से ऊपर तक आ रहीं थीं। कुछ ऐसी अजीब सी आवाजें, जो मैंने घर में पहले कभी नहीं सुनी थीं। शायद कारण यह था कि गौरी अभी केवल सात दिन की ही थी और आज ही पहली बार घर में आई थी। इसलिए अजनबियों को अपने आस-पास देखकर उछल-कूद कर जोर-जोर से चिल्ला रही थी। उसकी आवाज सुनकर मैं दौड़ी-दौड़ी छत से नीचे आ गई। गौरी मुझे देखकर और जोर से चिल्लाने लगी। उसे चिल्लाता हुआ देखकर मेरी भी चीख निकल गई और डर के मारे मैं डाइनिंग टेबिल पर चढ़ गई।
उसे देखकर मुझे बहुत ही डर लगता था। मेरी समझ से परे था कि वो अभी ठीक से चल भी नहीं पाती थी किंतु फिर भी मुझे उससे न जाने क्यों डर लगता था। डर के मारे मैं हमेशा किसी न किसी चीज पर चढ़ी रहती थी। लेकिन उसके घर मेंआने से परिवार में एक अजीब तरह का उल्लास था।
जब वो चलने-फिरने लगी तो सुबह को पापा उसे घर से बाहर घुमाने ले जाने लगे। धीरे-धीरे छ: सात दिन में
गौरी दौड़ लगाने लगी। शुरु-शुरु में वो बस दूध पीती थी। जब भी किसी बर्तन के खिसकने की आवाज उसे सुनाई देती तो वो तुरंत दौड़कर वहाँ पहुँच जाती। हाँ। याद आया जिस दिन मम्मी ने उसे “गौरी” नाम दिया था। उस दिन से छोटी सी डौगी सबके लिए “गौरी” बन गई। गौरी अब अच्छी तरह से चलने-फिरने लगी थी किंतु पलंग पर चढ़ पाना उसके लिए अभी भी मुश्किल था। इससे किसी को कुछ हो न हो, मुझे काफी राहत रहती थी। क्योंकि मैं अभी भी उससे डरती थी। घर के अन्य सदस्य जब उसे गोदी में उठाते और बाहर घुमाने ले जाते तब भी मैं उसे सिर्फ दूर से ही देखती रहती थी।
एक रोज दिन में सोते-सोते अचानक मेरी नींद टूट गई। आँख खुली तो मुझे कुछ अजीब-सा अहसास हुआ। देखने पर पता चला कि गौरी मेरी चोटी को चबा रही है। चोटी पलंगे से नीचे जो लटक रही थी। यह देखकर मैं जोर-जोर से रोने लगी। और जैसे ही मैंने उससे अपनी चोटी छुड़ाई तो वो सिर हिला-हिलाकर मुझे देखने लगी। दरअसल उसके दांत कलने को थे, इसलिए उसका मन हर समय कुछ न कुछ चबाने को करता रहता था।
गर्मियों में जब छत पर सोते थे तो वो मेरे छोटे भाई के साथ सोते-सोते उसका कान चूसा करती थी। उसकी इस
हरकत को देखकर उसके लिए एक छोटा सा निप्पल खरीदा जिसे वो मुंह में डालकर दिनभर बच्चों के जैसे चूसती रहती थी। किसी कुत्ते के बच्चे को निप्पल चूसते हुए मैंने न केवल पहली बार देखा था अपितु कुछ अजीब भी लगता था। वो कुछ और बड़ी हुई तो उसकी निप्पल चूसने की आदत छूट चुकी थी। उसके शरीर के रोएं अब हल्के भूरे रंग के बाल बन चुके थे।
उसकी छोटी-छोटी आँखें अब कुछ बड़ी और चमकदार हो गई थीं। उसने अब कूँ-कूँ छोड़कर भौंकना शुरु कर दिया था। उसके बड़े होने के साथ, एक बड़ी मुसीबत आई, वह थी उसको काबू में रखने की। क्योंकि अब वो भागने-दौड़ने लगी थी। उसे घर में आए पूरा एक साल हो गया। किंतु किसी ने भी उसे जंजीर (पट्टा) से बाँधने के बारे में सोचा तक नहीं। उसे जंजीर से बाँधने की जरूरत तब महसूस हुई, जब गौरी दरवाजा खुला होने पर घर से बाहर भागने की ताक में लगी रहती। अगर वो एक बार घर से बाहर निकल जाए तो उसकी मर्जी के बिना उसे अन्दर लाना असंभव होता था। वो गली में इधर-उधर बहुत तेजी से भागती रहती और जब थक जाती तो खुद-ब-खुद घर के अन्दर आ जाती थी।
उसके खाने का कुछ बंधा-बंधाया (तयसुदा) समय नहीं था। जब भी उसे भूख लगती, वो घर के किसी भी सदस्य
के करीब आकर अपने पंजे से उसके पैर या हाथ को खुजलाने लगती थी। उसका कोई तय-सुदा बर्तन भी नहीं था। क्योंकि किसी भी बर्तन में खाना उसको पसंद ही नहीं था। जब तक उसे हाथ से ना खिलाया जाए, वो खाना नहीं खाती थी। जमीन पर रखा खाना भी वो नहीं खाती थी। जमीन पर बैठकर खाना भी उसे अच्छा नहीं लगता था। उसके मुंह में रोटी का टुकड़ा देने पर वो उसे बैड पर लेजाकर ही खाती थी। मम्मी के हाथ से खाना उसको बेहद पसंद था। मम्मी उसे सबसे ज्यादा डाँटती थी फिर भी वो मम्मी को ही ज्यादा पसंद करती थी। वो और कुत्तों से दूर रहती थी। बिल्कुल अलग। उसकी अजीबोगरीब आदतें उसे अन्य कुत्तों से अलग बनाती थीं। बैड पर हमारे साथ सोना, माँस न खाना, सब्जियों का शौकीन होना उसकी खास आदतें थीं। आलू और टमाटर खाना जैसे उसकी कमजोरी थी।
गौरी अब बहुत शरारती हो गई थी। उसे जंजीर से बाँधने की पूरी तैयारी कर ली गई थी। मुझे आज भी याद है,
जब पहली बार उसे जंजीर से बाँधा गया, कितना चिल्लाई थी वो। जंजीर से बाँधने के पाँच मिनट बाद ही उसे खोल देना पड़ा था। और वो जंजीर घर के कौने में डाल दी। वो जंजीर हमेशा इसी तरह कभी इस कौने में, कभी उस कौने में पड़ी रहती। अब मैं गौरी से नहीं डरती थी। अब मैं उसे गोद में उठाकर सारे घर मे घूमा करती थी, जैसे कोई छोटी सी बच्ची।
समय बीतता गया। गौरी बड़ी होती गई। लगभग चार साल होने को आए, गौरी हमारे घर का हिस्सा थी पूर्णरूप से। कोई उसे जानवर कहता भी तो बहुत बुरा लगता था। कोई पूछ्ता कि हमारे परिवार में कितने सदस्य हैं तो जवाब मिलता – आठ, गौरी को मिलाकर।
हमारे प्यार ने उसे बहुत आराम-तलबी बना दिया था। हमेशा हमारे पास लेटी रहती और सिर पर हाथ फेरने की
जिद करती रहती। अपने ऊपर हाथ फिरवाना उसे बहुत पसंद था। हाथ फेरना जैसे ही बन्द होता तो उठ खडी होती और अपने पंजे से हमारा हाथ अपने सिर पर ले जाने की कोशिश करने लगती।
एक दिन अचानक हल्की सी बीमार पड़ गई। घर पर ही ठीक हो जाएगी, यह सोचकर उसे डाक्टर के पास नहीं
ले जाया गया। और जब वो ठीक नहीं हुई तो डाक्टर के पास ले जाना जरूरी समझा गया। वो दिन भुलाए नहीं भूलता जब मेरे बड़े भाई ने डाक्टर के यहाँ से आकर बताया कि गौरी को बहुत भयंकर बीमारी है, अब वो ठीक नहीं होगी। और चन्द दिनों के बाद हमारे घर का एक सदस्य कम हो जाएगा। मुझे एक बार तो यकीन ही नहीं हुआ। पर सच्चाई को कौन झुटला सकता है। ये मनहूस खबर सुनने के बाद जैसे ही गौरी को देखा, आँखों से आँसू बहने लगे किंतु वो मासूम बच्ची अपने उसी पुराने अंदाज में सिर घुमा-घुमाकर हमारी ओर देखती रहती……..उस सबसे अनजान जो उसके साथ हो चुका है और होने वाला है। मैं उसे कैसे बताती कि उसे जब भी देखती अंतर्मन से एक ही आवाज आती … तुम इस तरह कैसे जा सकती हो?
धीरे-धीरे उसकी बीमारी नजर आने लगी। उसके सिर में निरंतर कुछ धड़कन जैसी होने लगी। वो दिन प्रति दिन
कमजोर होती जा रही थी। उसे देखकर दिन-रात दुआ निकलती कि वो ठीक जो जाए पर चाहने-भर से तो सब कुछ नहीं हो जाता। कठोर से कठोर चीज चबा जाने वाली गौरी रोटी भी बड़ी मुश्किल से चबा पाती थी। वो कमजोर पर कमजोर होती जा रही थी। दौड़ना तो दूर वो हाथों का सहारा दिए बिना ठीक से चल भी नहीं पाती थी। थोड़े दिन और बीते, सिर्फ लेटे रहने और दर्द से चिल्लाने के सिवा वो कुछ भी तो नहीं कर पाती थी। उसे देखकर उसका सारा दर्द अपने अन्दर समेट लेने का मन करता था। दिनभर मैं ही क्या घर का कोई न कोई सदस्य उसके साथ बैठा रहता, उसके सिर पर हाथ फेरता रहता था। वो चुपचाप पड़ी रहती किंतु हाथ हटाते ही उसकी कराहट दिल दहलाने लगती थी। अब वो कुछ भी तो नहीं खा पाती थी। दूध में ब्रेड भिगोकर उसके मुंह में रखने पर सिर्फ दूध चूस पाती थी। मैं अथवा घर का कोई न कोई सदस्य रात-रात भर उसके पास बैठा रहता।
दिन रात बैड पर बैठे रहने वाली गौरी का बिस्तर डाक्टर के कहने पर जमीन पर लगाना पड़ता और उसको गोद
में उठाना मना था… इंफेक्सन का डर था। पर गौरी को देखकर डाक्टर की कोई बात घर के किसी भी सदस्य को यादनहीं रहती….। सर्दियों में हमारे साथ हमारी रजाई में सोने वाली गौरी अब जमीन पर बिछे बोरी की टाट पर अलग पड़ीरहती। पापा ने कड़ाई के साथ मना किया था उसे गोदी में उठाने को….पर मेरा दिल नहीं मानता। दर्द से चिल्लाती गौरीको देखकर मन करता कि गौरी के आखरी समय तक गोद में लिटाकर रखूं। मना करने के बावजूद मैं उसे गोदी में लेकरबैठी रहती। वो भी शिथिल होकर चुप पड़ी रहती। थोड़े और दिन गुजरे तो वो बिल्कुल जिन्दा लाश बन चुकी थी।
आँखों को बार-बार साफ करने के बाबजूद उनमें मवाद भर जाता । मेरा छोटा भाई उसकी दयनीय हालत
देखकर जैसे मूक ही बना रहता था। गौरी की ये हालत देखकर किसी ने पापा को सुझाया कि उसे गुड़ में कोई जहरीलापदार्थ खिलाकर हमेशा के लिए सुला दिया जाए। पापा के बस में भला ऐसा करना कहाँ था। ऐसा कुछ करने की नौबत भीनहीं आई। 26 जनवरी 2000 का दिन था। पापा दो दिन पहले ही भारी मन से एक साहित्यिक सम्मेलन में भाग लेनेचंडीगढ़ चले गए थे। उस दिन काफी सर्दी थी। गौरी को छत पर ही गर्म कपड़ों में लिटाकर हम नीचे आ गए।
अगले दिन सुबह के लगभग नौ बजे जब मैं उसे कुछ खाना खिलाने पहुँची तो देखा गौरी अपनी अथाह पीड़ा से
निजात पा चुकी थी। हमारे आठ लोगों के परिवार मे से एक सदस्य जो चार साल पहले हमारे घर आया था, आज वापिस चला गया था। उस दिन घर के हर सदस्य की आँखे गीली थीं, किंतु मेरी नहीं…. मैं उस दिन बिल्कुल नहीं रोई। लेकिन उसके अगले दिन से आज तक जब भी गौरी की याद आ जाती है, कोई ऐसा दिन नहीं होता जब गौरी के बारे में सोचकर मेरे आँखें गीली नहीं होतीं। मैंने गौरी के जाने के बाद निश्चय किया कि अब मैं कभी किसी को इतनी आसानी से अपने जीवन में प्रवेश नहीं करने दूँगी।
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