अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

* कर्पूरीग्राम के कण-कण में हैं जननायक की यादें*

Share

डा.राजेन्द्र शर्मा

बिहार की राजनीति का मूल आधार कैश कास्ट और क्रिमिनल रहा है। ऐसी धरती पर कर्पूरी ठाकुर की राजनीति ताउम्र अपने विशेष गुणों के कारण ही चलती रही। वर्ष 1952 से लगातार विधायक पद पर जीतते रहे केवल 1984 का लोकसभा चुनाव हारे। एक बार उप मुख्यमंत्री दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक तथा विरोधी दल के नेता रहे। 

वर्तमान राज्यसभा उपाध्यक्ष हरिवंश कहते हैं, कर्पूरी जी ने अपने लिए कुछ नहीं किया। घर तक नहीं बनाया। एक बार उनका घर बनवाने के लिए 50 हजार ईंट भेजी गई, लेकिन उन्होंने घर न बनाकर उस ईंट से स्कूल बनवा दिया। यही खासियत कर्पूरी जी को कास्ट और क्रिमिनल वाले राज्य में एक वर्ग का पुरोधा बना कर रखा।

अपने पत्रकारीय जीवन को याद करते हुए हरिवंश लिखते हैं कि राज्य में जहां कहीं भी बड़ी घटना हो, वहां सबसे पहले पहुंचने वाले नेताओं में वे शामिल थे। यही कारण रहा कि वे जीते जी जननायक की उपाधि पा गए।

कर्पूरीग्राम के कण-कण में उनकी यादें बसी हैं। स्वतंत्रता सेनानी और शिक्षक के रूप में सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करने वाले जननायक का जन्म समस्तीपुर के पितौंझिया में 24 जनवरी, 1924 को हुआ था। अब यह गांव कर्पूरीग्राम के नाम से चर्चित है।

महज 14 साल की उम्र में अपने गांव में नवयुवक संघ की स्थापना की। गांव में होम विलेज लाइब्रेरी के लाइब्रेरियन बने। 1942 में पटना विश्वविद्यालय पहुंचने के बाद वे स्वतंत्रता आंदोलन और बाद में समाजवादी पार्टी तथा आंदोलन के प्रमुख नेता बने।

1952 में भारतीय गणतंत्र के प्रथम आम चुनाव में ही वे समस्तीपुर के ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए थे। तब 31 साल के थे। संसदीय कार्यकलापों में तो उन्होंने दक्षता दिखाई ही, समाजवादी आंदोलन को जमीं पर उतारने का भी भरसक प्रयास किया।

उनके पुत्र सह राज्यसभा सदस्य रामनाथ ठाकुर बताते हैं कि कर्पूरी जी आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण के दबाव पर ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने को तैयार हुए, लेकिन उनके पास पैसे नहीं थे। कार्यकर्ताओं ने चंदा जुटाए। तब कर्पूरी जी ने तय किया कि चवन्नी-अठन्नी तथा दो रुपये से ज्यादा सहयोग नहीं लेनी है।

जयप्रकाश नारायण की धर्मपत्नी प्रभावती देवी के आग्रह पर उनसे पांच रुपया चंदा स्वीकार किया था। समाजवादी नेता दुर्गा प्रसाद सिंह बताते हैं कि हर बार वे चंदे के पैसे से ही चुनाव लड़ते थे। एक-एक पैसे का हिसाब खुद रखते थे। एक पाई भी निजी काम में नहीं लगाया। उनका यह स्व-अनुशासन, नैतिक आग्रह व प्रतिबद्धता 17 फरवरी, 1988 को उनके विदा होने तक लगा रहा।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें