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लड़खड़ा गई है मोदी सरकार की विदेश नीति

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सत्येंद्र रंजन

बीते सप्ताहांत अमेरिका ने चीन को घेरने की अपनी रणनीति के तहत चार देशों का एक नया समूह बनाया। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और फिलीपीन्स के इस समूह को क्वैड नाम दिया गया है। (U.S. Assembles ‘Squad’ to Counter China in Indo-Pacific | TIME

अमेरिका के जाने-माने थिंक टैंक- रैंड कॉरपोरेशन में राष्ट्रीय सुरक्षा एवं एशिया-प्रशांत क्षेत्र के विश्लेषक डेरेक जे. ग्रॉसमैन ने इस घटनाक्रम पर अपनी प्रतिक्रिया में लिखा- ‘दक्षिण चीन सागर में चीन का मुकाबला करने में क्वैड की मदद करने में भारत बस इसी हद तक जा सकता था। भारत का अधिक ध्यान अपने पास-पड़ोस पर टिका है। अतः अमेरिका ने वैकल्पिक क्वैड का गठन किया है- जिसे बोलचाल में स्वैड कहा गया है। स्वैड में भारत की जगह फिलीपीन्स को दे दी गई है।’ 

तो अब तक ऐसे कयास भर लगाए जा रहे थे। अब इस घटना ने संभवतः इस बात का ठोस संकेत दे दिया है कि अपनी भारत को चीन विरोधी रणनीति का हिस्सा बनाने की अमेरिकी उम्मीदें आधी-अधूरी रह गई हैं। नतीजा यह है कि उसने भारत के विकल्प के तौर पर फिलीपीन्स को महत्त्व दिया है, जो दक्षिण चीन सागर में उसके इशारे पर अपनी चीन विरोधी गतिविधियों को तेज करता जा रहा है। 

लाजिमी है कि क्वैड के गठन से चीन नाराज हुआ। चीन सरकार का मुखपत्र माने जाने वाले अखबार ग्लोबल टाइम्स ने इस पर अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि फिलीपीन्स अमेरिकी मोहरा बन रहा है, जिससे उसकी गति यूक्रेन जैसी हो सकती है।

यहां यह याद करने योग्य है कि क्वाड्रैंगुलर सिक्युरिटी डॉयलॉग (क्वैड) के गठन के पीछे अमेरिका की असली मंशा यही थी कि यह समूह उसकी रणनीति के मुताबिक एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन को घेरने में सहायक बने। यह समूह बनाने का विचार तकरीबन दो दशक पुराना था। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले तक भारत की सरकारें इससे परहेज करती रही थीं। वे संभवतः इसके दुष्परिणामों से परिचित थीं। उन्हें अहसास था कि चीन के साथ भारत के चाहे जैसे संबंध हों, लेकिन चीन पड़ोसी देश है। इन दोनों देशों को आसपास ही रहना है। उन्हें अंदाजा था कि सीधे अमेरिकी रणनीति का हिस्सा बनने का मतलब चीन से टकराव बढ़ाना होगा।

अनेक विशेषज्ञ मानते हैं कि बीते कुछ वर्षों में भारत और चीन के बीच बढ़े टकराव का एक कारण भारत का क्वैड में शामिल होना भी था। इसके बावजूद हकीकत संभवतः यही है कि मोदी सरकार भी चीन से तनाव को एक हद से आगे ले जाने के लिए तैयार नहीं हुई।

अमेरिका को मायूसी यूक्रेन युद्ध पर भारत के तटस्थ रुख से भी हुई। खुद राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक भाषण में भारत को स्विंग स्टेट (झूले की तरह झूलता देश) कहा था। जाहिर है, यह भारत जैसे बड़े देश का अपमान करना ही था।

अभी हाल में बाइडेन ने भारत को विदेशियों के प्रति द्वेष रखने वाला (xenophobic) देश बताया। चीन और जापान को भी उन्होंने इस श्रेणी में रखा और कहा कि इसी वजह से इन देशों की अर्थव्यवस्था आगे नहीं बढ़ रही है। (Joe Biden calls US allies India and Japan ‘xenophobic’ (bbc.com)) स्पष्ट है, उन्होंने एक बार फिर भारतवासियों की संवेदना को आहत किया। 

अनुमान लगाया जा सकता है कि पिछले साल जून में प्रधानमंत्री मोदी को वॉशिंगटन में राजकीय सम्मान देकर भारत को अमेरिकी धुरी से अभिन्न रूप से जोड़ने का बाइडेन प्रशासन ने आखिरी दांव चला था। मगर उसमें उसे कामयाबी नहीं मिली। या कम से कम उतनी कामयाबी नहीं मिली, जितने की उसे आशा रही होगी। तो आगे हुई घटनाएं भारत के प्रति अमेरिकी रुख में बदलाव का ठोस संकेत देती चली गई हैं। 

सबसे बड़ा मसला तो कनाडा में खालिस्तानी उग्रवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या और अमेरिका में उग्रवादी गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की कोशिश से संबंधित रहा है। अमेरिकी एजेंसियों ने यह कहने में कोई हिचक नहीं दिखाई है कि वह इन दोनों घटनाओं के लिए सीधे भारत सरकार को दोषी मानती हैं। इसका अर्थ भारत पर यह इल्जाम लगाना है कि वह अंतरराष्ट्रीय कायदों को नहीं मानता और विदेशी जमीन पर हत्याएं प्रायोजित करता है। साफ है, यह भी कोई दोस्ताना रुख नहीं है। इस आरोप से भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को जितना नुकसान पहुंचा है, उतना संभवतः इसके पहले किसी प्रकरण से नहीं हुआ था।  

यह भी गौरतलब है कि पश्चिमी मीडिया के भारत की (आर्थिक) विकास गाथा को लेकर रुख में पिछले कुछ महीनों में बारीक बदलाव आया है। जब से (2018) अमेरिका ने चीन के खिलाफ व्यापार युद्ध शुरू किया, पश्चिमी मीडिया ने चीन की अर्थव्यवस्था के तबाह होने की कहानियां प्रचारित करनी शुरू की थीं। कोरोना काल में, जब चीन में लगभग तीन साल जीरो कोविड की नीति के कारण लगभग लॉकडाउन रहा, इस कहानी को विश्वसनीयता भी मिली। इसी दौर में चीन के बरक्स भारत की उज्ज्वल संभावनाओं का नैरेटिव तैयार किया गया। संभवतः इसके पीछे मकसद यह संदेश देना था कि चीन की सोशलिस्ट अर्थव्यवस्था जहां गिरावट की ओर है, वहीं पश्चिम जैसी नव-उदारवादी व्यवस्था के साथ भारत अगली आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर बढ़ रहा है।

मगर हाल के महीनों में भारत की कहानी में कई अंधेरे पक्ष ढूंढे जा रहे हैं। बेरोजगारी, श्रमिकों की अकुशलता, घटता आम उपभोग आदि की चर्चा वहां छपने वाली रिपोर्टों में होने लगी है। मिसाल के तौर पर मशहूर पत्रिका टाइम में छपे एक विश्लेषण का जिक्र किया जा सकता है, जिसे ‘आर्थिक चमत्कार नहीं है मोदी का भारत’ (Modi’s India Is No Economic Miracle | TIME) शीर्षक के साथ छापा गया है।  

जब तक अमेरिका को यह आशा थी कि चीन के खिलाफ भारत उसकी रणनीति के मुताबिक चलेगा, तब तक यह भी आम तजुर्बा था कि वह भारत में “लोकतंत्र या मानव अधिकारों” की चिंता नहीं कर रहा था। लेकिन हाल में उसके इस रुख में बदलाव देखने को मिला है।

इन तमाम घटनाओं से यही संकेत ग्रहण किया जा सकता है कि अपने कार्यकाल के आरंभिक नौ वर्षों में मोदी सरकार भारतीय विदेश नीति को जिस राह पर ले गई, वह अब बंद गली में पहुंचती नजर आ रही है। इसका कारण क्या है, यह गंभीर विचार-विमर्श का विषय है। वैसे जिस समय दुनिया स्पष्टतः दो खेमों में बंट रही है, दोनों नावों पर सवारी का दांव सरसरी तौर पर इसका एक कारण समझ में आता है। अमेरिका एक वर्चस्ववादी ताकत है, जो अपने साथी देशों को किसी प्रकार का स्वायत्त रुख अपनाने की इजाजत नहीं देता। जबकि भारत सरकार विभाजित होती दुनिया में दोनों तरफ से लाभ उठाने की सोच के साथ चली। परिणामस्वरूप अब दोनों खेमों में भारत हाशिये पर नज़र आ रहा है।  

कभी भारत निर्विवाद रूप से विकासशील देशों (जिन्हें अब ग्लोबल साउथ कहा जाता है) की प्रमुख आवाज माना जाता था। मगर आज इस खेमे का नेतृत्व रूस, चीन और एक हद तक ईरान के पास चला गया लगता है। इस सदी के आरंभ में ग्लोबल साउथ में संवाद के जो कई मंच बने, उन्हें ब्रिक्स के अलावा RIC (रूस-भारत-चीन) एक महत्त्वपूर्ण पहल थी। लेकिन बीते दस साल में भारत ने जिस तरह अपने को पश्चिमी खेमे से जोड़ने की कोशिश की, उसका नतीजा यह है कि RIC में इंडिया का स्थान ईरान ने ले लिया है। (The Russia–Iran–China search for a new global security order (thecradle.co))

अब इन तीनों देशों को नए उभरते वैश्विक ढांचे में ग्लोबल साउथ की अग्रिम आवाज समझा जा रहा है। इसलिए सत्ता के करीबी हलकों में भी अब इस सवाल पर गंभीर चर्चा होने लगी है कि विदेश नीति में भारत के लिए आगे का रास्ता किधर है? विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन को भारतीय जनता पार्टी के इको-सिस्टम से जुड़ा थिंक टैंक माना जाता है। इसमें सीनियर फेलॉ और पूर्व राजदूत अशोक कांठा ने हाल में एक अंग्रेजी अखबार में लेख लिख कर भारत और चीन के संबंधों को रीसेट (फिर से तय) करने की वकालत की। (Resetting India-China ties in an era of tensions – Hindustan Times)

कांठा के लेख का सार है कि चीन से टकराव की नीति लाभदायक नहीं रही है, इसलिए उससे सीधे रणनीतिक संवाद कायम करने की जरूरत है। इस कथन में यह अंतर्निहित है कि पश्चिमी धुरी का हिस्सा बनने के अपेक्षित परिणाम भी भारत को नहीं मिले हैं।

मगर क्या मोदी सरकार बिना अपनी पिछली दस साल की विदेश नीति की विफलता को स्वीकार किए ऐसी पहल करने की स्थिति में है? यह स्तंभकार कांठा के तर्कों और सुझावों से मोटे तौर पर इत्तेफ़ाक रखता है। भारत की भलाई इसी में है कि मनोगत कारणों से (यानी भ्रामक सोच के कारण) विदेश नीति में जो एडवेंचर किए गए, उनकी नाकामी को स्वीकार करते हुए अब वस्तुगत स्थितियों के अनुरूप नई दिशा में चला जाए। बिना विकसित हुए विकसित देशों के साथ मेज पर बैठने की महत्त्वाकांक्षा का परिणाम बीच रास्ते में लड़खड़ाना ही होना था। तो अब उन देशों के साथ वाली मेज को अहमियत देने की जरूरत है, जिनके साथ भारत के वास्तविक हित जुड़े हुए हैं।

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