विजय विनीत
सीन एकः बनारस लोकसभा सीट के लिए नॉमिनेशन फाइल करने आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14 मई, 2024 को दशाश्वमेध घाट पर गंगा का दुग्धाभिषेक कर पूजन किया और जीत का आशीर्वाद मांगा। इस मौके पर यह भी कहा, ” मेरी मां के निधन के बाद गंगा ही मेरी मां है। मां गंगा ने मुझे गोद लिया है।” बाद में ट्विट किया, “मेरी काशी से मेरा रिश्ता अद्भुत, अविभाज्य और अतुलनीय है… मैं बस इतना कह सकता हूं कि इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है…!”
सीन दोः साल 2014 में नामांकन करने आए नरेंद्र मोदी ने कहा था, “न मुझे किसी ने भेजा है, न मैं आया हूं, मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है।” पिछले साल 2 नवंबर 2023 को नरेंद्र मोदी ने एक ट्विट में कहा था, “गंगा जी की कसम खाकर झूठी घोषणा करने का काम सिर्फ कांग्रेस के नेता ही कर सकते हैं। मोदी की गारंटी का मतलब है-हर गारंटी पूरी होने की गारंटी।”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दस बरस पहले बनारस आए और उन्होंने गंगा को चुनावी मुद्दा बनाया और इस नदी को फिर से नया जीवन देने का ऐलान किया। उन्होंने पहली मर्तबा जब गंगा से अपने संबंधों की दुहाई दी तो बनारस के लोग उन पर रीझ गए और उन्हें सिर आंखों पर बैठा लिया। नॉमिनेशन फाइल करने से पहले मोदी ने इस बार भी गंगा का सहारा लिया। दस बरस गुजर जाने के बाद बनारस में गंगा किस हाल में है? मोदी ने इस पवित्र नदी के पुनरुद्धार के लिए क्या किया? गंगा के गोद लेने वाली बात क्या गंगा के दिल से निकली हुई आवाज है, स्लोगन है या फिर जुमला? ये ढेर सारे सवाल बनारस में चर्चा के अहम बिंदु बन गए हैं।
मुखर समाजवादी चिंतक एवं बीएचयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे चंचल पीएम नरेंद्र मोदी के गंगा के मुद्दे पर बेबाक राय रखते हैं। वह कहते हैं, “बीजेपी वालों के लिए गंगा सिर्फ दुधारू गाय है। हर चुनाव में वो इसे दुहते हैं और आगे चले जाते हैं। गंगा बुरी हालत में है और वो इनकी गंदगी ढो रही हैं। गंगा का बहना उसकी आदत है। बारिश के दिनों में गंगा समेत दुनिया भर की नदियां बाढ़ लाकर खुद को साफ करती हैं। जितनी गंदगी होती है वो उसे लेकर निकल जाती है। अगर गंगा जिंदा है तो अपने शाश्वत चरित्र के दम पर। गर्मियों में गंगा का हाल देखिए। इलाहाबाद में सूख गई है और बनारस में जहां-तहां बालू के टीले उभर आए हैं। यह नदी मरघट में बदलती जा रही है। गंगा की उखड़ती सांसों को मोदी आखिर क्यों नहीं सुन पा रहे हैं?”
गंगा की बर्बादी के गुनहगार हैं मोदी
चंचल यहीं नहीं रुकते। वो कहते हैं, ” बनारस के लोग महामारी के दौर को नहीं भूले हैं, जब इसी गंगा ने अनगिनत कोरोना संक्रमित लाशों को ढोया था। सरकारी नुमाइंदों ने विश्वनाथ कारिडोर का सारा मलबा गंगा में डलवा दिया। मणिकर्णिका घाट के सामने गंगा में प्लेटफार्म बनाकर उसके वेग को रोकने की गंदली कोशिश की गई। तब भी मोदी अपने कुप्रबंधन पर शर्मिंदा नहीं हुए। सच यह है कि गंगा को बर्बाद के लिए वो सबसे बड़े गुनहगार हैं। कुछ साल पहले ही मोदी ने गंगा की रेत पर नहर बनवाई थी। बाद में लग्जरी टेंट सिटी भी बसा दिया था।
गंगा को बर्बाद करने के लिए तमाम क्रूज चलवाए जा रहे हैं, जिससे जलीय जीवों को खतरा पैदा हो गया है। इस पवित्र नदी के साथ जितने खिलवाड़ हुए वो इनके कार्यकाल में ही हुए। इस शहर के प्रबुद्ध लोग मोदी से वाजिब सवाल कर रहे हैं कि बनारस की गलियों को किसने मिटाया? विश्वनाथ कारिडोर में लग्जरी गेस्ट हाउस और रेस्टोरेंट खोलने के लिए तमाम पौराणिक मंदिरों की बलि किसने ली? काशी को तोड़कर किसने तबाह किया? मंदिर को माल में किसने बदला? पक्के महाल को दो हिस्सों में किसने बांटा? बनारस के लोगों से बाबा विश्वनाथ को किसने दूर किया? इस शहर के लोगों ने उन्हें सिर आंखों पर बैठाया है तो इसके खतरनाक नतीजे भी बनारसियों को ही भुगतने पड़ेंगे।”
“कोरा सच यह है कि पीएम नरेंद्र मोदी सिर्फ अडानी-अंबानी के मोहरे हैं और कुछ नहीं। वो ऐसे संगठन से निकले हैं जो पूरी तरह गैर-राजनीतिक है। झूठे नारों और जुमलों की बदौलत वही सियासत करता है जो जमीन से जुड़ा नहीं होता। बनारसियों को तमाशा दिखाने में मोदी का कोई जवाब नहीं है। वो विदेश जाते हैं तो वहां लोगों को भरमाते हैं और बताते हैं कि 35 साल तक हमने भीख मांगकर जिंदगी बिताई है। वो कहीं चाय वाला बन जाते हैं तो कहीं कुछ और। दरअसल वो झूठ के जुमलों के सहारे सियासत में अपनी दखल बनाए रखना चाहते हैं। काशी आते हैं तो बनारसियों को तमाशा दिखाना शुरू कर देते हैं। बनारस गलियों का शहर है। वह दिन दूर नहीं जब इस शहर के लोग रोएंगे और उनका आंसू पोछने वाले कोई नहीं होगा।”
कैसी है बनारस की गंगा?
उत्तर भारत में 2,500 किलोमीटर क्षेत्र में फैली गंगा की जितनी दुर्गति बनारस में हुई है, उतनी शायद ही कहीं हुई होगी। गंगा में अगाध श्रद्धा रखने और नियमित स्नान करने वाली पर्यटक आरती सिंह कहती हैं, “मैं हर महीने बनारस आती हूं। कभी राजघाट, कभी दशाश्वमेध और कभी अस्सी घाट पर स्नान करती हूं। बीते आठ सालों में गंगा में कोई सुधार नहीं है। गंदगी जस की तस है। नदी का आकार छोटा होता जा रहा है। घाटों पर जमा बालू और गंदगी देख अब नहाने का मन नहीं करता है।”
वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, ” नमामि गंगे” बेवकूफ बनाने वाली योजना है। गंगा के साथ जितना खिलवाड़ हाल के कुछ सालों में हुआ है, उतना शायद कभी नहीं हुआ होगा। गंगा के बीचो-बीच बालू के जो टीले उभरे हैं उन्हें देखकर कोई भी कह सकता है कि गंगा नदी की सेहत ठीक नहीं है। नदी के अपर स्ट्रीम में बांधों का निर्माण और सहायक नदियों के जलस्तर में कमी के चलते नदी का वेग धीमा पड़ता जा रहा है। इसके चलते गंगा बेसिन के भूजल का स्तर कम होने लगा है।”
आईआईटी खड़गपुर के असिस्टेंट प्रोफेसर अभिजीत मुख़र्जी की एक शोध रिपोर्ट का हवाला देते हुए राजीव कहते हैं, “साल 1999 से 2013 के बीच गर्मी के दिनों में गंगा जल में −0.5 से −38.1 सेंटीमीटर प्रति वर्ष की कमी आई थी। हाल यह है कि इस साल मार्च महीने के पहले पखवाड़े में इस नदी का जल स्तर खिसक कर 57 मीटर पहुंच गया। पहले जून महीने में गंगा का जल स्तर 57 मीटर तक पहुंचता था। समझा जा सकता है कि स्थिति अभी इतनी भयावह है तो आगे कैसी होगी?”
गंगा प्रदूषण पर जुर्माना
बनारस में गंगा सिसक रही है, लेकिन उसके आंसू हुक्मरानों को नहीं दिख रहे हैं। अभी हाल में बनारस में गंगा नदी को प्रदूषित करने वाले लोगों और संस्थाओं पर पर्यावरणीय मुआवजा लगाने संबंधी राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के आदेश का पालन नहीं करने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्य पर्यावरण अधिकारी पर दस हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया है।
12 अप्रैल 2024 को एनजीटी पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में विभिन्न स्थानों पर नदी में घरेलू और औद्योगिक अपशिष्ट जल छोड़े जाने के संबंध में एक मामले की सुनवाई कर रहा था। इसी साल 16 फरवरी को अधिकरण ने वाराणसी नगर निगम की रिपोर्ट पर गौर किया था, जिसके मुताबिक 10 करोड़ लीटर प्रतिदिन (एमएलडी) अपशिष्ट जल नदी में छोड़ा जा रहा था।
उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) ने कहा था कि चार सप्ताह के भीतर दोषी संस्था या लोगों पर पर्यावरणीय मुआवजा (ईसी) लगाया जाएगा। एनजीटी के अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव की पीठ ने चार अप्रैल को पारित एक आदेश में कहा कि बोर्ड ने दो अप्रैल 2024 को एक नई रिपोर्ट दायर की थी। पीठ में न्यायिक सदस्य न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और विशेषज्ञ सदस्य ए सेंथिल वेल भी शामिल थे। पीठ ने कहा कि नई रिपोर्ट राज्य के सर्किल- 6 (वाराणसी, गोरखपुर, आजमगढ़ और बस्ती) के मुख्य पर्यावरण अधिकारी, घनश्याम द्वारा जारी की गई थी।
बोर्ड के यह कहने के बावजूद कि चार सप्ताह के भीतर जुर्माना लगाया जाएगा, लेकिन यूपी के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) ने प्राधिकारी इस मामले में कार्रवाई करने में विफल रहे। इससे पहले गंगा की रेत पर टेंट सिटी बसाने वाली गुजरात की दोनों कंपनियों एनजीटी पहले ही 34 लाख 25 हजार जुर्माना लगा चुकी है। टेंट कंपनियां ताकतवर हैं कि उन्होंने अभी तक जुर्माने की धनराशि अदा नहीं की है।
चिंतित हैं नदी विशेषज्ञ
बनारस में गंगा का दायरा लगाता सिकुड़ता जा रहा है। इसके चलते जगह-जगह बालू के टीले उभरने लगे हैं। नदी विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों का मानना है कि गंगा का रेत अब पश्चिम के बजाय पूरब की ओर शिफ्ट होने लगा है। इसकी दो बड़ी वजहें बताई जा रही है। पहला, गंगा की रेत अनियोजित तरीके खनन और दूसरा, रामनगर का वह पुल, जिसे बनाने में गंगा के प्रवाह का ख्याल ही नहीं रखा गया। विश्वनाथ कारिडोर के गेट के लिए गायघाट के पास नदी तल में करीब सौ मीटर तक का प्लेटफॉर्म भी कम खतरनाक नहीं है। मौजूदा समय में कुछ इसी तरह का खिलवाड़ मणिकर्णिका घाट हो रहा है। दोषपूर्ण इंजीनियरिंग के चलते इस नदी का आकार और उसकी धारा टेढ़ी-मेढ़ी हो गई है।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आईआईटी के प्रोफेसर और गंगा लैब के प्रभारी रहे प्रोफेसर यूके चौधरी कहते हैं, “रामनगर में जहां पुल बनाया गया है, वहां गंगा थोड़ी पश्चिम की ओर मुड़ती हैं। उसी जगह पर पुल के पिलर हैं। ये पिलर नदी में पानी के बहाव में रूकावट पैदा कर रहे हैं। यही वजह है कि गंगा द्वारा बहाकर लाया गया बालू सामने घाट के समीप बीच मझधार में इकट्ठा होने लगा है। गंगा की रेत पर जिस समय नहर खोदी गई थी, तभी से नदी की पारिस्थितिकी गड़बड़ाने लग गई थी। जहां तल उथला होना चाहिए था, वहां गहरा हो गया। नतीजा, गंगा में आने वाली रेत घाटों की ओर शिफ्ट होने लगी है। गंगा में पानी का वेग लगातार घटता जा रहा है।”
गंगा का पानी जा रहा दिल्ली
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में महामना मालवीय गंगा शोध केंद्र के चेयरमैन और प्रख्यात गंगा विशेषज्ञ प्रो. बीडी त्रिपाठी कहते हैं, “बनारस की गंगा में बालू के टीले पहले जून के महीने में दिखाई देते थे। बीचो-बीच गंगा में बालू के टीलों का दिखना यह दर्शाता है कि नदी में वाटर फ्लो कम हुआ है। गंगा की सेहत के लिए यह स्थिति बेहद खराब और चिंताजनक है। उत्तराखंड में गंगा का पानी रोका गया है, जिसके चलते पानी का बहाव कम हुआ है। साथ ही सिल्ट्रेशन रेट बढ़ गया है। इस वजह से संकट की स्थिति पैदा हुई है। गंगा के पानी की कुछ मात्रा हरिद्वार और भीमगौड़ा कैनाल से दिल्ली की तरफ छोड़ा जा रहा है। काफी हद तक गंगा के पानी को सिंचाई के लिए नहरों में मोड़ दिया गया है। इससे गंगा की मुख्य धारा दिनों-दिन छोटी होती जा रही है। हमें अपनी जल नीति बनानी होगी और ग्राउंड वाटर के दोहन को नियंत्रित करना होगा।”
प्रो.त्रिपाठी कहते हैं, “गंगा में लगातार पानी का प्रवाह कम होने से सिल्ट्रेशन रेट बढ़ता है। यह एक इंडिकेशन है कि गंगा में लगातार पानी कम हो रहा है। गंगा में प्रवाह कम होने की कई वजहें हैं। उत्तराखंड में कई स्थानों पर जल विद्युत परियोजनाएं स्थापित की गई हैं। इसके चलते गंगा पर बांध बनाए गए हैं जिससे नदी का फ्लो रोका गया है। हाइड्रो परियोजनाओं में सिर्फ टरबाइन चलाते समय बहुत कम पानी गंगा की मुख्य धारा में छोड़ा जाता है। इसकी वजह से गंगा की मुख्य धारा में पानी कम आ रहा है।”
नदी विशेषज्ञ प्रो.बीडी त्रिपाठी के मुताबिक, ” बनारस में गंगा जल का इस्तेमाल जहां पीने के पानी के लिए किया जा रहा है वहीं नहरों के जरिये फसलों की सिंचाई के काम में भी लाया जा रहा है। चिंता की सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार की अपनी कोई जल नीति नहीं है। यह तय ही नहीं है कि गंगा से कोई कितना पानी निकाले और कितना न निकाले? सरकार ने गंगा जल के बंटवारे की अभी तक कोई पॉलिसी तय नहीं की है। जिस तरह से ग्राउंड वाटर का मनमाने तरीके से दोहन किया जा रहा है, वही स्थिति गंगा की है।”
“ग्राउंड वाटर लगातार नीचे जा रहा है। ऐसे में गंगा का पानी भूजल को रिचार्ज करने में चला जा रहा है। नतीजा, गंगा में पानी घट रहा है और बीचो-बीच नदी में बालू के टीले उभरते जा रहे हैं। हम जिन राज्यों में गंगाजल भेज रहे हैं उन्हें पहले आत्मनिर्भर बनाना पड़ेगा। हमें क्रॉपिंग पैटर्न बदलना होगा। धान गेहूं की प्रजातियां हैं जिसे बहुत पानी की जरूरत पड़ती है। ऐसे प्रजातियों की खेती करानी होगी जिससे पानी का इस्तेमाल कम से कम हो सके।”
जलीय जीवों को खतरा
गंगा निर्मलीकरण मुहिम से जुड़े पर्यावरणविद प्रो. विशंभरनाथ मिश्र कहते हैं, “गंगा का डायनमिक फ्लो प्रभावित हो रहा है। अनियोजित विकास के चलते गंगा अपना बालू मेन स्ट्रीम में फेंक रही है। यह घातक नतीजे का संकेत है। गंगा में जब पानी का फ्लो कम होगा तो डाइल्यूशन फैक्टर पर उसका असर पड़ेगा। कम प्रदूषित पानी भी ज्यादा प्रदूषित दिखाई देगा। नदी में टीलों का उभरना सिर्फ इंसान ही नहीं जलीय जीवों के लिए भी खतरनाक है। नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी ने तय कर रखा है कि गंगा डॉल्फिन को नेशनल एक्वेटिक एनीमल घोषित किया जाएगा। इसके लिए बनारस में 18 फिट तक का पानी चाहिए। यदि इतना पानी नहीं रहेगा तो डॉल्फिन जिंदा नहीं रह पाएगी। साथ ही दूसरे जलीय जीवों पर भी उसका दुष्प्रभाव पड़ेगा। टीले का उभरना इस बात का संकेत है कि गंगा में लगातार पानी कम हो रहा है।”
प्रो. मिश्र यह भी कहते हैं, “गंगा का फ्लो कम होने से नदी की पाचन क्षमता कम हो जाती है। बनारस में गंगा प्रदूषकों को नहीं पचा पा रही है। हाल यह है कि ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के बावजूद गंगा प्रदूषण में कोई खास बदलाव नहीं दिख रहा है। गंगा निर्मलीकरण की मुहिम साल 1986 में शुरू हुई थी, और तब से लेकर अब तक इस पर हजारों करोड़ रुपये ख़र्च किए जा चुके हैं। 14 जनवरी, 1986 में ‘गंगा एक्शन प्लान’ बनाया गया था, जिसका मक़सद गंगा में मिलने वाले सीवेज और औद्योगिक प्रदूषण को रोकना था। उसके बाद साल 2009 में ‘मिशन क्लीन गंगा’ शुरू किया गया, लेकिन वह भी बेअसर रहा।
“बनारस में वरुणा नदी जहां गंगा में मिलती है वहां स्थिति बेहद भयावह और डरावना है। यहां फीकल कॉलिफोर्म 56 मिलियन है। आमतौर पर नहाने योग्य नदी में फीकल कॉलिफोर्म बैक्टिरिया की मात्रा प्रति सौ मिलीलीटर में 500 से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के अनुसार पीने के पानी में फीकल कॉलिफोर्म बैक्टीरिया की कोई उपस्थिति नहीं होनी चाहिए। गंगा प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए हमें नदी में पानी के फ्लो को बढ़ाना पड़ेगा। चिंता की बात यह है कि गंगा की मुख्य धारा दिनों-दिन छोटी होती जा रही है, जिसके चलते नदी का प्रदूषण भी बढ़ रहा है।”
जल परिवहन घातक
गंगा निर्मलीकरण मुहिम से जुड़े डॉ. अवधेश दीक्षित कहते हैं, ” गंगा सिर्फ लोगों के कसम खाने का बहाना बन चुकी है। किसी को इस नदी की पवित्रता, सुचिता और स्वच्छता की तनिक भी चिंता नहीं है। हर कोई सिर्फ गाल बजाना चाहता है। जब तक हम गंगा के प्रवाह को सतत जारी नहीं रखते तब तक उसकी कसम खाना बेमानी है। गंगा के पाट खतरनाक होते जा रहे हैं। नदी में जगह-जगह टीले उभर आए हैं। बनारस की गंगा में क्रूज और नौकाओं का कोलाहल देखकर लगता है कि गंगा व्यापार की चीज हो गई हैं। इसकी पवित्रता गायब हो गई है। जिस तरह काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर को व्यावसायिक प्रतिष्ठान बना दिया, वही हाल गंगा का हो गया है। गंगा में जलपोत चलाने के नाम पर मोदी सरकार ने बनारस में बड़ी धनराशि का इंवेस्टमेंट किया है। अगर जल परिवहन शुरू होता है तो दुर्घटनाएं बढ़ेंगी और गंगा में प्रदूषण का खतरा कई गुना ज्यादा बढ़ जाएगा, जिसका सीधा असर नदी के जंतुओं और आसपास के लोगों पर पड़ेगा।
बनारस में बिना ट्रीटमेंट के सारा सीवेज गंगा में गिराया जा रहा है। शहरी कचरे को साफ़ करने के लिए बनाए गए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तकनीकी रूप से सही नहीं हैं। गंगा नदी इंसान के शरीर की तरह है। इसका ख़ून कम कर इसे विष पिलाया जा रहा है। जब तक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में सही तकनीक का इस्तेमाल नहीं होता है और गंगा पर बनाए गए बांधों के डिज़ाइन में ज़रूरी बदलाव नहीं किए जाते, सरकार कितनी ही बैठकें कर ले और कितना ही पैसा लगा ले, कुछ सुधार नहीं होगा। पीएम मोदी ने एक दशक पहले बनारस की गंगा की सेहत सुधारने का भरोसा दिलाया था और इसी वायदे के बूते उन्होंने पहला चुनाव जीता था, लेकिन स्थिति जस की तस बनी हुई है। गंगा की कसम खाने वालों की कथनी-करनी में बहुत फर्क है।”
“जुमला होती हैं चुनावी बातें”
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार मोदी के उस बयान को जुमला मानते हैं जिसमें उन्होंने कहा था, “मां के गंगा ही मेरी मां, मुझे गोद लिया है।” वह कहते हैं, “चुनाव में बहुत सारी बातें कही जाती हैं, जिनमें कई जुमले होते हैं। इस तरह की बयानबाजी का कोई मतलब नहीं होता है। मतदाता जब पांच साल के कामकाज का लेखा-जोखा करता है तो सही तस्वीर उसके निगाहों के सामने रहती है। गंगा की सफाई को लेकर चाहे जितने भी दावे किए जाएं, हकीकत से हर शख्स वाकिफ है। गंगा आज भी मैली हैं और उसमें गिरने वाले गंदे नालों की रफ्तार बढ़ती जा रही है। यह वैज्ञानिक तथ्य है की बनारस की गंगा आचमन योग्य नहीं रह गई है।”
“गंगा के नाम पर वोट मांगना ‘इमोशनल ड्रामा’ है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है गंगा के तट पर रहने वालों की अकल पर ही पत्थर पड़ा है। गंगा जितनी मैली होती जा रही हैं, उतनी दुगुनी रफ्तार से वो जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं। जिस नदी के सहारे लोग धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन जीते हैं, उन्हें ही इस नदी की फिकर नहीं है। अगर फिकर होती तो इस चुनाव में गंगा प्रदूषण एक बड़ा मुद्दा होता। कांग्रेस नेता अजय राय का सौभाग्य है कि वह काशी के रहने वाले हैं और अक्सर गंगा स्नान भी करते हैं। दूसरे नेताओं को सिर्फ चुनाव अथवा किसी इवेंट में ही वक्त मिलता है। वो गंगा जल छिड़ककर निकल लेते हैं और भक्त उसे गंगा स्नान का नाम दे देते हैं। हकीकत तो यह है कि गंगा में डुबकी लगाने का जो संस्कार है वो बनारस के लोगों में रचा-बसा है।”
गंगा की कसम की चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कहते हैं, “एक तरफ वो गंगा की कसम खाते हैं और दूसरी ओर इस पवित्र नदी में खेल शुरू हो जाता है। मोदी जब पहली बनारस आए थे तो ऐलान किया था कि हमें गंगा ने बुलाया है। तीसरी बार आए तो कह दिया कि गंगा ने हमें गोद ले लिया है। गंगा के किनारे जिन गांवों को मोदी ने गोद लिया है उन गांवों को देखिए, हाल बेहाल है। डोमरी में जमीन की खरीद-फरोख्त तक रोक दी गई है। कहा जा रहा है कि डोमरी से रामनगर तक फ्रेट विलेज बनाया जाएगा और सारी जमीनें कारपोरेट घरानों के हवाले की जाएंगी। अब वो गंगा के गोद में आ गए हैं तो गंगा बचेंगी या नहीं, कुछ भी कह पाना मुश्किल है।”
“बहरुपिये हैं कसम खाने वाले”
काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी के मुताबिक गंगा स्नान अगर आप गंगा में स्नान करते हैं तो आपको नकारात्मक विचारों से मुक्ति मिल जाती है, क्योंकि इससे आपका शरीर और मन शुद्ध हो जाता है, लेकिन छलियों और फरेबियों को इससे न भक्ति मिलती है, न शक्ति।
राजेंद्र कहते हैं, “गंगा की कसम खाने वाले बहरुपिये हैं। बाबा विश्वनाथ और रामजी की कृपा से इन्हें समूचे देश ने पहचान लिया है। गंगा की गोद में बैठने वाले माई से कमाई का साधन खोज रहे हैं। माई ने तिलांजलि दे दिया है। इस बहरुपिया को न राम बचाएंगे, गंगा बचा पाएंगी। भारतीय राजनीति के कालनेमी को हनुमान ने पहचान लिया है। अब अली और बजरंगबली की सेना कालनेमी से देश को मुक्ति दिलाएगी। मोदी पोलिटिकल इवेंट के चलते 13 मई 2024 को बाबा विश्वनाथ की सप्तऋषि आरती अपने निर्धारित समय से एक घंटे देर से शुरू कराई गई। यह आरती साढ़े सात बजे होती थी, लेकिन उसी वक्त मोदी वहां पहुंच गए, जिसके चलते उनका धार्मिक इवेंट शुरू हो गया और विश्वनाथ मंदिर की परंपरा प्रभावित हुई। अब तो इनसे बाबा विश्वनाथ भी इनसे दुखी हो गए हैं। आखिर वो किससे-किससे माफी मांगेंगे? “
चुनाव आयोग पर सवाल खड़ा करते हुए महंत राजेंद्र यह भी कहते हैं, “ये कैसा आयोग है जो कुंभकरण की तरह सो रहा है। किसी की सभा नहीं चलने दे रहा है तो किसी के मेगा इवेंट पर खर्च किए जा रहे करोड़ों रुपये का लेखा-लोखा रखने के मामले में वो मौन है। मोदी के रोड शो और नामांकन से पहले पूरे शहर को भगवा रंग में कपड़ों, गुब्बारों और चाइनीज झालरों से सजाया गया। लंका से लेकर कचहरी तक फ्लड लाइटें लगवाई गईं। धर्म की आड़ लेकर ड्रोन शो किया गया। करोड़ों का खर्च किस मद में दिखाया गया? इन खर्चों पर चुनाव आयोग ने अपना आंख और कान बंद कर लिया है। गंगा की झूठी कसम खाने वालों को इस बार वो माफ करने वाली नहीं हैं। झूठ, फरेब और ढेर सारे पापों की सजा तो उन्हें भुगतनी ही पड़ेगी।”