~ प्रखर अरोड़ा
फिर बरसात आई,
फिर हमारे बीजों को,
अनुकूलन का अहसास हुआ,
नमी मिली गर्मी मिली,
सडांध मारते घूरे से ऊर्जा मिली…
इनसे अंकुरण राह मिली,
अंकुरण भी हुआ,
लेकिन अनजाना डर,
बाहर की दुनिया का,
हमेशा बना ही रहा…
फिर भी हिम्मत कर,
बाहर तो आये हम,
लेकर सर पर ‘छत्र’ का अहं,
जो बचा लेगा सारे कष्टों से,
सभी बाहरी आघातों से,
उन सब से भी,
जो कब से काबिज हैं,
बाहर की बहारों मे….
सोचा ‘छत्र’ की छांव तले,
बचे ही रहेंगे हर हाल हम,
लेकिन..
बाहर आते ही सामना हुआ,
जंगल के उन ‘क्षत्रपों’ से,
जो सर उठाऐ खड़े थे,
नीचे गहरी जड़ें जो,
कबसे गड़ाये खड़े थे….
वो जंगल मे अटे पड़े थे,
वहाँ की मनोरम छटा बने थे,
उनकी कृपा से हमे धूप मिलती थी,
उनकी बची कुची हवा हमे मिलती थी,
उनकी जड़रज ही हमारा संसार थी…
हम जीवन पाकर भी,
अंकुरित होकर भी ,
वहाँ सबसे परित्यज थे….
हमारे वो सारे चटख रंग,
गिरी,फेंकी और सडांध मारती,
गंदगी उमस के संग थे….
जीवन पाकर ही हमने जाना,
दुनिया मे हमारी जगह क्या थी,
हम जहाँ पर कल उग कर उठे थे,
आज वहीं पर दबे कुचले से पड़े थे….!
(चेतना विकास मिशन)